Bhagwat saptahik Katha, भागवत कथा,पंचम स्कंध,भाग- 2

भागवत साप्ताहिक कथा, 
पंचम स्कंध, भाग-2
श्रीमद्भागवत महापुराण सप्ताहिक कथा Bhagwat Katha story in hindi
जड़ भरत चरित्र
ऋषभदेव जी के जेष्ठ पुत्र भरत ने विश्वरूप की पुत्री पाञ्चजनी से विवाह किया जिससे सुमति आदि पांच पुत्र हुए, भरत जी भगवान के परम भक्त थे अपनी प्रजा का पालन अपने पुत्रों के समान किया करते थे जब भरत जी की वृद्धावस्था आई तो अपना राज्य अपने पुत्रों को सौंप कर पुलहाश्रम चले गए, वहां भगवान का भजन करते भजन में इतने तन्मय हो जाते की पूजा का क्रम ही भूल जाते |

एक दिन गंडकी नदी के किनारे पर संध्या वंदन कर रहे थे उसी समय एक गर्भवती मृगी जल पीने आयी वह जल पी ही रही थी उसी समय किसी सिंह ने जोर से गर्जना कि उस गर्जना को सुन भयभीत हो उसने नदी पार करने के लिए नदी में छलांग लगा दी उस मृगी का गर्भ नदी में गिर कर बहने लगा वेदना के कारण मृगी का प्राणांत हो गया |

 भरत जी संत थे वे उस मृग शिशु को मरते हुए नहीं देख सकते थे उन्होंने उसे बचाने के लिए नदी में छलांग लगा दी उस मृग शिशु को बाहर निकाला और सोचने लगे यदि मैं इसे यहां छोडूंगा तो हिंसक प्राणी इसे मार डालेंगे इसलिए उसे आश्रम में ले आए उसके लिए हरी हरी घास लाते जब कहीं भी जाते तो उसे कंधे में बिठाल कर साथ ले जाते, उस मृग शिशु में इतना आसक्त हुए की पूजा पाठ सब बंद कर दिए |

एक दिन जब वह मृग शिशु कहीं चला गया तो व्यथित हो गए एक वन से दूसरे वन में दीनों की भांति उसे ढूंढने लगे एक स्थान पर मृगों के चरण चिन्हों को देखा तो पृथ्वी में लोटने लगे इसी समय सायं काल हो गया पूर्व दिशा से पूर्ण चंद्र उदय हुआ चंद्र में मृग के समान काले निशान को देखा तो चंद्रदेव से कहने लगे कि हे चंद्रदेव तुमने मेरे प्यारे मृग शिशु की रक्षा की है मैं तुम्हें अनेकानेक आशीर्वाद देता हूं |

उसी समय वह मृग वापस लौट आता है उसे देखते ही भरत जी उसे हृदय से लगा लिया कहने लगे बेटा तुम कहां चले गए थे अब कभी मुझे छोड़कर कहीं मत जाना जब इनकी मृत्यु का समय निकट आया वह मृग सामने बैठा आंसू बहा रहा था भरत जी मृग शिशु को दुखी देखकर दुखी थे मेरे ना रहने पर इसका क्या होगा |

भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं--- अपने अंतिम समय में मनुष्य जिसका स्मरण करके मरता है अपना शरीर त्यागता है वह अगले जन्म में उसी योनि को प्राप्त करता है भरत जी मृग का स्मरण कर के मरे इसलिए अगला जन्म मृग योनि में हुआ परंतु भजन का इतना प्रभाव था कि पूर्व जन्म की स्मृति ( याद ) बनी हुई थी अब भरत जी संग से आसक्ति से बहुत डरते थे अपने सभी साथियों का संग भी त्याग दिया अकेले कालिंजर पर्वत पर चले गए वहां सूखी सूखी घास खाते और काल की प्रतीक्षा करने लगे  इनकी मृत्यु का समय निकट आया तो गंडकी नदी में अपने शरीर का त्याग कर दिया |

अगला जन्म आंगीरस गोत्रीय ब्राह्मण के यहा हुआ जो वेद वेदातों में निशाद थे जिनकी पहली पत्नी से 9 संतानें हुई और दूसरी पत्नी से भाटरत जी तथा एक कन्या का जन्म हुआ,  पिछले दोनों जन्मों का इन्हें स्मरण था इसलिए यह जड़ अंधे बहरे के समान रहते परंतु पिता का अन्य पुत्रों के समान इनसे भी प्रेम था जब यह 8 वर्ष के थे पिता ने इनका उपनयन संस्कार किया गायत्री मंत्र की दीक्षा दी परंतु 4 महीने में भी ठीक से गायत्री मंत्र नहीं पढ़ सके पिताजी ने पढ़ाने का बहुत प्रयास किया परंतु यह नहीं पढ़ सके |

काल के प्रभाव से वृद्धा वस्था आने पर पिताजी का देहावसान हो गया इनकी माता सती हो गई अब भरत जी भोजन के लिए लोगों के यहां काम करते और फिर आराम से बैठकर भजन करते इन के बाहर काम करने से इनकी भाइयों की बदनामी होने लगी लोग कहते देखो कैसा भाई है जिन्होंने इनकी जमीन भी ले ली और काम करने को छोड़ दिया इस बदनामी को सुन भाई भरत को घर ले आए और झूठे बर्तन साफ करने में लगा दिया घर में जो कुछ खाने से बच जाता वह इन्हें खाने को दे देते उसे भी यह बड़े प्रेम से खाते थे ,दो-चार दिन तो बर्तन साफ किए फिर बर्तनों को पटक कर फोडना प्रारंभ कर दिया |

भाभियों ने जब यह देखा तो भाइयों से उनके बताया भाई इनसे लड़ तो सकते नहीं थे क्योंकि भरत जी का शरीर हटा कट्टा था तो भाई इनको खेत में ले आए और वहां ऊंचे नीचे वाले खेतों को बराबर करने में लगा दिया भाइयों के जाने के बाद उन्होंने एक ही स्थान पर खोदना प्रारंभ कर दिया रात भर में एक तरफ मिट्टी का पहाड़ खड़ा कर दिया और दूसरी तरफ विशाल गड्ढा बना दिया।

 भाइयों ने जब यह देखा तो भरत जी को बहुत डांटा भरत जी ने कहा भाइयों मेहनत में कमी हो तो बताइए भाइयों ने कहा तू पूरा का पूरा जड़ है |  तभी से इनका नाम जड़ भरत हुआ |

अब भाइयों ने इन्हें खेती रखवारी में नियुक्त कर दिया कुछ देर तो एक चिड़िया उड़ाई फिर सोचने लगे----
 रामजी की चिड़िया रामजी के खेत |
 खाओ  रि चिड़िया भर  भर  पेट  ||
यह चिड़िया भी रामजी की हैं खेत भी रामजी के हैं मैं कौन होता हूं इन्हें रोकने वाला सुबह से शाम तक चिड़ियों ने खाया परंतु खेत वैसे ही लहलहा रहे थे उसी समय भरत जी ने गायों को आता हुआ देखा सारे द्वारों को खोल दिया 1 घंटे में ही गायों ने सारा खेत खाली कर दिया |

 खाय गई गइयां और खाली भयो खेत |
भाइयों ने जब यह देखा तो भरत जी पर बहुत नाराज हुए और भरत जी को भगा दिया,  जडभरत जी वन में आ गए और भगवान का भजन करने लगे |

इसी  समय किसी डाकुओं के सरदार ने भद्रकाली से मान्यता मांग रखी थी कि यदि संतान होगी तो नर की बलि दूंगा, दैवयोग से संतान हो गई डाकुओं ने बलि के लिए जिस मनुष्य को पकड़ रखा था वह अवसर पाकर रात्रि में भाग गया सरदार के सेवकों ने उसे बहुत ढूंढा परंतु वह नहीं मिला इसी समय उनकी दृष्टि वज्रासन पर बैठे हुए जड़ भरत जी पर पड़ी भरत जी को देखा तो प्रसन्न हो गए।

कहने लगे हमारा सरदार इसे देखेगा तो हमें बहुत सा इनाम देगा अपने साथ जड़ भरत जी को ले आए उन्हें स्नान कराएं नए वस्त्र पहनाए स्वादिष्ट भोजन कराएं प्रातकाल शोभायात्रा निकली शोभायात्रा में नाचते हुए भरत आगे आगे चल रहे थे ब्रह्मज्ञानी महापुरुष थे इन्हें अपने शरीर की कोई चिंता नहीं थी डाकुओं के सरदार ने जड़ भरत जी का पूजन किया तलवार का पूजन किया | 

जडभरत जी से कहा सर नीचे करो भरत जी ने सर झुका लिया डाकुओं के सरदार ने जैसे ही बलि के लिए तलवार ऊपर उठाई भद्रकाली इनके ब्रम्हतेज को सह न सकी मूर्ति से प्रगट हो गई तलवार छीन सभी डाकुओं का संघार कर दिया जब भरत जी ने शोरगुल को ना सुन सिर ऊपर उठाया मरे हुए डाकुओं को देखा तो वहां से चले। 

यहां सिंधुसौवीर्य देश का राजा रहूगण सत्संग के लिए पालकी में सवार होकर कपिल भगवान के पास जा रहा था मार्ग में उनका एक कहार बीमार पड़ गया सेवक जब दूसरा कहार ढूंढने लगे तो भरत जी दिखाई दिए उनसे कहा तुम राजा की प्रजा हो राजा की सेवा करना तुम्हारा धर्म है जबरदस्ती उन्हें पालकी ढोने में लगा दिया |

जडभरत जी ने पृथ्वी में चलते हुए कीड़ों को देखा तो एकदम रुक गया जिससे सारे कहार आपस में टकरा गए राजा ने कहा सेवकों पालकी ठीक से चलाओ मुझे कष्ट हो रहा है अन्य सेवकों ने कहा महाराज इसमें हमारा कोई दोष नहीं है यह जो नया कहार लगा है यही ठीक से नहीं चल रहा है रहूगण जब जडभरत को देखा तो आक्षेप करते हुए कहने लगा अरे भैया बड़े कष्ट की बात है तुम बड़े दूर से अकेले ही पालकी उठाकर चले आ रहे हो थक गए होगे तुम्हारा शरीर भी बड़ा दुबला पतला है ऊपर से वृद्धावस्था ने वैसे ही तुम्हें घेर रखा है।

इस प्रकार अनेकों उपहास किए परंतु जड़ भरत जी ने कुछ नहीं कहा पालकी उठा के चलते रहे कुछ देर पश्चात जैसे ही पैरों के सामने चीटियों की कतार को देखा तो छलांग लगा दी रहूगण का सिर पालकी के छत पर जाकर लगा अत्यंत क्रोधित होकर रहूगण कहने लगा---
त्वं जीवन्मृतो मां कदर्थीकृत्य भर्तृशासन मति चरसि |
प्रमत्तस्य च ते करोमि चिकित्सां दण्ड पाणिरिव ||
( 5.10.7 )
तुम जीते जी मुर्दे के समान हो जो मेरी आज्ञा की अवहेलना कर रहे हो मैं यमराज के समान तुम्हारी चिकित्सा कर दूंगा रहूगढण के इन वचनों को सुनकर आज जडभरत जी के हृदय में रहूगण के प्रति कृपा का भाव उत्पन्न हो गया यह रहूगण पूर्व जन्म का वही मृग था जिसे भरत जी अपने कंधे पर उठाकर चलते थे आज रहूगण के कल्याण के लिए श्रीजडभरत जी ने बोलना प्रारंभ किया--
त्वयोदितं व्यक्तमपि प्रलब्धं
        भर्तुः समे स्याद्यदि वीर भारः |
गन्तुर्यदि स्यादधिगम्यमध्वा
        पीवेत राशौ न विदां प्रवादः ||
( 5.10.9 )
 राजन तुम्हारा कहना सत्य है परंतु यदि भार नाम की चीज है तो वह ढोने वाले के लिए है, रास्ता है तो चलने वाले के लिए है ,मोटा होना पतला होना उत्पन्न होना मरना यह सब शरीर के धर्म है, आत्मा का  इनसे कोई संबंध नहीं होता |

राजन मैं तो अपने आत्मानंद में मस्त रहता हूं तुम क्या मेरी चिकित्सा करोगे और यदि मैं वास्तव में जड़ हूँ तो मुझे शिक्षा देना पिसे हुए को पीसने के समान व्यर्थ है |

रहूगण ने जब इनके वचनों को सुना पालकी से कूद पड़ा जडभरत जी के चरण पकड़ लिया, प्रभु आप कौन हैं आपने द्विजों का चिन्ह यज्ञोपवीत धारण कर रखा है कहीं आप दत्तात्रेय अथवा कपिल ही तो नहीं है जो मेरा कल्याण करने के लिए यहां आए हैं |
नाहं विशंके सुरराजवज्रा-
      न्न त्र्यक्षशूलान्न यमस्य दण्डात |
नाग्न्यर्कसोमानिलवित्तपास्त्रा-
     च्छङ्के भृशं ब्रह्मकुलावमानात ||
( 5.10.17 )
मैं इंद्र के वज्र शिव के त्रिशूल यमराज के दंड और अग्नि सोम आदि देवताओं के अस्त्र शस्त्रों से नहीं डरता परंतु ब्राम्हण कुल के अपमान से मुझे बहुत डर लगता है, ब्राह्मण आपने जो यह बताया कि देहादि के धर्मों का आत्मा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता इसमें मुझे संदेह है क्योंकि देखा जाता है, चूल्हे पर जब बटलोयी चढ़ाई जाती है तो अग्नि के ताप से वह तपने लगती है और इसके तपने से उसमें रखा हुआ अन्न भी तपने लगता है और वह पक जाता है इसी प्रकार शरीर में रहने वाली आत्मा पर भी शरीर का प्रभाव अवश्य पड़ता होगा और आपने जो यह दंड आदि की व्यर्थता बताई तो राजा का तो धर्म है प्रजा पर शासन करना |रहूगण के वाक्यों को सुनकर जड़ भरत जी क्रोधित हो गए और कहने लगे---
( 5.11.1 )
राजन तुम तो हो अज्ञानी परंतु ज्ञानियों के समान तर्क वितर्क की बात कह रहे हो तत्व ज्ञानी महापुरुष इस प्रकार के लौकिक व्यवहार को तत्व विचार के समय सत्य रूप से स्वीकार नहीं करते, यदि लौकिक व्यवहार से देखा जाए तो जैसे चावल पक जाते हैं वैसे ही चावलों के साथ पढ़े हुए कंकड़ क्यों नहीं पकते और रहूगण तुम अपने आपको राजा कहते हो |

रञ्जते प्रजाः इति राजाः |जो प्रजा का पालन करे उसे ही राजा कहते हैं तुमने तो बेकार में ही मुफ्त में ही इन सेवकों को पालकी ढोने में लगा रखा है तुम्हें धिक्कार है |

रहूगण जब तक महापुरुषों की चरण धूलि में स्नान ना कर लिया जाए तब तक अनेकानेक साधनों से मुक्ति की प्राप्ति परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती , मैं पूर्व जन्म में भरत नाम का राजा था एक मृग में आसक्त होने के कारण मेरी यह गति हुई इसलिए मैं आसक्ती से बहुत डरता हूं, अकेला ही स्वच्छन्द रूप से बिचरण करता हूं |

रहूगण जब इस प्रकार के उपदेशों को सुना उनके चरणों में प्रणाम किया राज्य का त्याग कर दिया और भगवान का भजन कर भगवान को प्राप्त कर लिया |

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