प्रेम स्वरूपा गोपियों द्वारा गाया हुआ प्रणय गीत pranay geet in shrimad bhagwat

प्रेम स्वरूपा गोपियों द्वारा गाया हुआ प्रणय गीत
pranay geet in shrimad bhagwat
प्रेम स्वरूपा गोपियों द्वारा गाया हुआ प्रणय गीत  pranay geet in shrimad bhagwat

गोपियों ने कहा- प्यारे श्री कृष्ण तुम घट घटव्यापी हो हमारे हृदय की बात जानते हो ! तुम्हें इस प्रकार निष्ठुरता भरे वचन नहीं कहना चाहिए|

हम सब कुछ छोड़कर केवल तुम्हारे चरणों में ही प्रेम करती हैं इसमें संदेह नहीं कि तुम स्वतंत्र और हठीले हो तुम पर हमारा कोई वश नहीं है, फिर भी तुम अपनी ओर से जैसे आदि पुरुष भगवान नारायण कृपा करके अपने मुमुक्षु भक्तोंसे प्रेम करते हैं, वैसे ही हमें स्वीकार कर लो। हमारा त्याग मत करो ॥ १॥

प्यारे श्यामसुन्दर ! तुम सब धर्मोका रहस्य जानते हो । तुम्हारा यह कहना कि अपने पति, पुत्र और भाई-बन्धुओंकी सेवा करना ही स्त्रियोंका स्वधर्म है' -अक्षरशः ठीक है । परंतु इस उपदेशके अनुसार हमें तुम्हारी ही सेवा करनी चाहिये; क्योंकि तुम्हीं सब उपदेशोंके पद (चरम लक्ष्य) हो; साक्षात् भगवान् हो। तुम्हीं समस्त शरीरधारियोंके सुहृद् हो, आत्मा हो और परम प्रियतम हो ॥ २ ॥

आत्मज्ञान में निपुण महापुरुष तुमसे ही प्रेम करते हैं; क्योंकि तुम नित्य प्रिय एवं अपने ही आत्मा हो । अनित्य एवं दुःखद पतिपुत्रादिसे क्या प्रयोजन है ?

परमेश्वर ! इसलिये हमपर प्रसन्न होओ। कृपा करो । कमलनयन ! चिरकालसे तुम्हारे प्रति पाली-पोसी आशा-अभिलाषाकी लहलहाती लताका छेदन मत करो ॥ ३ ॥

मनमोहन ! अबतक हमारा चित्त घरके कामधंधोंमें लगता था। इसीसे हमारे हाथ भी उनमें रमे हुए थे। परंतु तुमने हमारे देखते-देखते हमारा वह चित्त लूट लिया। इसमें तुम्हें कोई कठिनाई भी नहीं उठानी पड़ी, तुम तो सुखस्वरूप हो न ! परंतु अब तो हमारी गति-मति निराली ही हो गयी है ।

हमारे ये पैर तुम्हारे चरणकमलोंको छोड़कर एक पग भी हटनेके लिये तैयार नहीं हैं, नहीं हट रहे हैं। फिर हम व्रजमें कैसे जायँ ? और यदि वहाँ जायँ भी तो करें क्या ? ॥ ४ ॥

प्राणवल्लभ ! हमारे प्यारे सखा ! तुम्हारी मन्द-मन्द मधुर मुसकान, प्रेमभरी चितवन और मनोहर संगीतने हमारे हृदयमें तुम्हारे प्रेम और मिलनकी आग धधका दी है। उसे तुम अपने अधरोंकी रसधारासे बुझा दो। नहीं तो प्रियतम ! हम सच कहती हैं, तुम्हारी विरह-व्यथाकी आगसे हम अपने-अपने शरीर जला देंगी और ध्यानके द्वारा तुम्हारे चरणकमलोंको प्राप्त करेंगी ॥ ५ ॥

प्यारे कमलनयन ! तुम वनवासियोंके प्यारे हो और वे भी तुमसे बहुत प्रेम करते हैं। इससे प्रायः तुम उन्हींके पास रहते हो । यहाँतक कि तुम्हारे जिन चरणकमलोंकी सेवाका अवसर स्वयं लक्ष्मीजीको भी कभी-कभी ही मिलता है, उन्हीं चरणोंका स्पर्श हमें प्राप्त हुआ ।

जिस दिन यह सौभाग्य हमें मिला और तुमने हमें स्वीकार करके आनन्दित किया, उसी दिनसे हम और किसीके सामने एक क्षणके लिये भी ठहरनेमें असमर्थ हो गयी हैं—पति-पुत्रादिकी सेवा तो दूर रही ॥ ६ ॥

हमारे स्वामी ! जिन लक्ष्मीजीका कृपाकटाक्ष प्राप्त करनेके लिये बड़े-बड़े देवता तपस्या करते रहते हैं, वही लक्ष्मीजी तुम्हारे वक्षःस्थलमें बिना किसीकी प्रतिद्वन्द्विताके स्थान प्राप्त कर लेनेपर भी अपनी सौत तुलसीके साथ तुम्हारे चरणोंकी रज पानेकी अभिलाषा किया करती है ।

अबतकके सभी भक्तोंने उस चरणरजका सेवन किया है । उन्हींके समान हम भी तुम्हारी उसी चरणरजकी शरणमें आयी हैं ॥ ७ ॥

भगवन् ! अबतक जिसने भी तुम्हारे चरणोंकी शरण ली, उसके सारे कष्ट तुमने मिटा दिये। अब तुम हमपर कृपा करो। हमें भी अपने प्रसादका भाजन बनाओ। हम तुम्हारी सेवा करनेकी आशा-अभिलाषासे घर, गाँव, कुटुम्ब-सब कुछ छोड़कर तुम्हारे युगल चरणोंकी शरणमें आयी हैं।

प्रियतम ! वहाँ तो तुम्हारी आराधनाके लिये अवकाश ही नहीं है। पुरुषभूषण ! पुरुषोत्तम ! तुम्हारी मधुर मुसकान और चारु चितवनने हमारे हृदयमें प्रेमकीमिलनकी आकाङ्क्षाकी आग धधका दी है। हमारा रोमरोम उससे जल रहा है। तुम हमें अपनी दासीके रूपमें स्वीकार कर लो। हमें अपनी सेवाका अवसर दो ॥ ८ ॥

प्रियतम ! तुम्हारा सुन्दर मुखकमल, जिसपर धुंघराली अलकें झलक रही हैं। तुम्हारे ये कमनीय कपोल, जिनपर सुन्दरसुन्दर कुण्डल अपना अनन्त सौन्दर्य बिखेर रहे हैं; तुम्हारे ये मधुर अधर, जिनकी सुधा सुधाको भी लजानेवाली है; तुम्हारी यह नयनमनोहारी चितवन, जो मन्द-मन्द मुसकानसे उल्लसित हो रही है। तुम्हारी ये दोनों भुजाएँ, जो शरणागतोंको अभयदान देनेमें अत्यन्त उदार हैं और तुम्हारा यह वक्षःस्थल, जो लक्ष्मीजीका-सौन्दर्यकी एकमात्र देवीका नित्य क्रीडास्थल है, देखकर हम सब तुम्हारी दासी हो गयी हैं ।।९।।

प्यारे श्यामसुन्दर ! तीनों लोकोंमें भी और ऐसी कौन-सी स्त्री है, जो मधुर-मधुर पद और आरोह-अवरोह-क्रमसे विविध प्रकारकी मूर्च्छनाओंसे युक्त तुम्हारी वंशीकी तान सुनकर तथा इस त्रिलोकसुन्दर मोहिनी मूर्तिको-जो अपने एक बूंद सौन्दर्यसे त्रिलोकीको सौन्दर्यका दान करती है |

एवं जिसे देखकर गौ, पक्षी, वृक्ष और हरिन भी रोमाञ्चित, पुलकित हो जाते हैं-अपने नेत्रोंसे निहारकर आर्य-मर्यादासे विचलित न हो जाय, कुल-कान और लोकलजाको त्यागकर तुममें अनुरक्त न हो जाय ॥ १० ॥

हमसे यह बात छिपी नहीं है कि जैसे भगवान् नारायण देवताओंकी रक्षा करते हैं, वैसे ही तुम ब्रजमण्डलका भय और दुःख मिटानेके लिये ही प्रगट हुए हो |

और यह भी स्पष्ट है कि दीन दुखियों पर तुम्हारा बड़ा प्रेम बड़ी कृपा है, प्रियतम हम भी बड़ी दु:खिनी हैं | तुम्हारे मिलन की आकांक्षा की आग से हमारा वक्षस्थल जल रहा है |

तुम अपनी इन दासियों के वक्ष:स्थल और सिर पर अपने कोमल करकमल रखकर इन्हें अपना लो हमें जीवन दान दो ||११

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