श्री घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग की कहानी वा रहस्य जाने क्या है ?

 श्री घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग की कहानी
वा रहस्य जाने क्या है ?

स्थिति- शंकर भगवान की ज्योतिर्लिंग की यात्रा करने पर आखिर में जिनके दर्शन किए बिना बा सफल नहीं हो सकती, उस बारहवे ज्योतिर्लिंग का नाम घृष्णेश्वर है । औरंगाबाद से पश्चिम की ओर लगभग 30 किमी. दूरी पर वेरूल गाँव के समीप शिवालय नाम के तीर्थस्थान पर, घृष्णेश्वराजी का दिव्य ज्योतिर्लिंग है |

वेरूल, शिवालय और घष्णेश्वर के संबंध में हम जो कथाएँ सुनते आए हैं, वे इस प्रकार हैं | पहले यहाँ नाग जाति के आदिवासी लोगों की बस्ती थी | नागों का स्थान बांबी होता है मराठी में उसे 'वारूल' कहते हैं | आगे चलकर इस स्थान को वारूल के बदले वेरूल नाम से सभी जानने लगे । यहाँ से येलगंगा नदी बहती है | उसे येलगंगा के किनारे पर स्थित गाँव को 'येरूल' यह नाम दिया गया ।

इस प्रदेश में पहले 'एल' नामका राजा राज कर रहा था ।

उसी राजा की राजधानी को येलापूर या येलूर अथवा वेरूल रही है ।
कथा- एक बार एल राजा वन में शिकार करने के हेतु गया था । शिकार करते समय ऋषिमुनियों के आश्रम में रहनेवाले प्राणियों की हत्या भी एल राजा ने की । यह देखकर ऋषि-मुनियों ने राजा को शाप दिया उस शाप से राजा के सर्वांग में कीड़े पड़ गये ।

इस प्रकार एल राजा वन में भटक रहा था । तब प्यास से उसका गला सूख गया कहीं भी पानी नहीं था । आखिर में एक स्थान पर गाय के खुर से बने गढ्ढों में थोड़ा पानी राजा का दिखाई दिया । जैसे ही वह पानी राजा पीने लगा, एक चमत्कार हुआ । राजा का सर काडा से मुक्त हुआ | फिर उस स्थान पर राजा ने तपस्या की । फल-स्वरूप राजा पर ब्रह्मदेव प्रसन्न हुए । ब्रह्मदेव ने उस स्थान परअष्टतीर्थों की प्रतिष्ठापना की । पास में हा एक विशाल और पवित्र सरोवर भी बनाया । उस ब्रह्म सरोवर का नाम आगे चलकर शिवालय रखा गया ।

इस शिवालय की भी एक कथा है -

कैलाश पर शिव-पार्वती शतरंज खेल रहे थे । खेलते समय पार्वती ने दाँव जीत लिया । इस से शंकरजी गुस्सा हए । वे दक्षिण की ओर चले गए । सह्याद्रि के एक पठार पर जहाँ शीतल हवा है, बस गए । उस प्रदेश को महेशमौली म्हैसमाल यह नाम दिया गया । शंकर की खोज में पार्वती भी वहाँ पहुँच गई । उस स्थान पर पार्वती ने भिल्लीण वेश में भगवान शंकर का मन मोह लिया। दोनों उस वन में कछ समय तक सानंद रहे ।

उस वन को काम्यक वन यह नाम प्राप्त हुआ । काम्यक वन के उस महेशमौल या भैंसमाल प्रदेश में कौओं को आना महेशने मना किया था । एक बार पार्वती प्यासी थी, तब शंकरजी जमीन में त्रिशूल घोंपकर पाताल से भोगावती का पानी ऊपर लाये । उसी को शिवालय तीर्थ कहा जाता है ।

आगे शिवालय तीर्थ का विस्तार हुआ । इस शिवतीर्थ में शिवनदी (शिवनानदी) आकर मिलती है, शिवतीर्थ के आगे वह एलगंगा में आकर मिलती है । काम्यवन में जब शिवपार्वती क्रीडा-रत थे तब सुधन्वा नाम का एक आदमी उस वन में शिकार करने आया था । चमत्कार यह हुआ कि सुधन्वा का रूपांतर स्त्री में हुआ ।

तब उसने शिवालय तीर्थपर घोर तप किया ।

शंकर प्रसन्न हुए । वास्तव में सुधन्वा पूर्वजन्म इला नाम की स्त्री बनकर रही थी । अतः भगवान शंकरने उसे शाप के रूप में सुधन्वा को एलगंगा बनाया । इस प्रकार पुण्य-सरिता एलगंगा का उद्गम काम्यवन में हुआ । आगे वह धारातीर्थ या सीता का स्नानगृह बनकर और ऊंचाई से नीचे उतरकर वेरूल गाँव के पास से आगे निकल गई ।

काम्यवन में एक बार कुंकुम और केशर लेकर माँग भरने के लिए पार्वती खड़ी थी उन्होंने बाएँ हथेली पर कुंकुम-केशर लिया और उस में शिवालय तीर्थ का पानी मिलाया । बाद में दाहिने हाथ की अंगुली से वे कुंकुम-केशर को मलने लगी । तब चमत्कार यह हुआ कि उस कुंकुम का शिवलिंग बन गया और उस लिंगमें से एक दिव्य ज्योति प्रकट हुई । इस बात से पार्वती आश्चर्य से देखने लगी ।

तब शंकर भगवान बोले - "यह लिंग था अगाध पाताल में । वह निकाला त्रिशूल से । तब एक उबाल आया भू-मंडल से । पानी के साथ ।" (काशीखंड) पार्वती ने उस दिव्य ज्योति को पत्थर के लिंग में रखा और विश्वकल्याण के लिए. लिंगमूर्ति की वहाँ प्रतिष्ठापना की ।

उस पूर्ण ज्योतिर्लिंग को कुंकुमेश्वर नाम रखा गया ।

लेकिन दाक्षायणी ने घर्षण के द्वारा उस लिंग का निर्माण किया था इसलिए ज्योतिर्लिंग को घृष्णेश्वर नाम दिया गया । दक्षिण दिशा स्थित देव पर्वत पर अपनी पति परायणा सुन्दर पत्नी सुदेहा के साथ भारद्वाज गोत्र वाला सुधर्मा नामक वेदज्ञ ब्राह्मण रहता था सुदेहा के यहां कोइ सन्तान ही हुई, इस कारण वह अत्यन्त दुःखी रहती थी ।

वह आये दिन अपने पडौसियों के व्यंग्य बाणों तथा अपने अपमान आदि की बात कहती परन्तु तत्वज्ञ सुधर्मा इधर ध्यान नहीं देते थे । अन्ततः एक दिन आत्मघात की धमकी देकर सुदेहा ने अपने पति को दूसरे विवाह के लिए राजी कर लिया । अपनी बहन धुश्मा को गानी बहन धश्मा को बुलाकर उसका अपने पति से विवाह कर दिया और की ईर्ष्या न करने का दोनों का आश्वासन दिया ।

समय बीतने पर धुश्मा-पुत्रवती हुई और यथा समय उस पुत्र का विवाह हुआ। टधर यद्यपि सुधर्मा और धुश्मा दोनों की सुद्रेहा का बहुत आदर करते थे । परन्त उनमें दर्या टेष उतना परिपक्व और सुदृढ़ हो गया था कि उसने धुश्मा के सोते हुए यूवा बालक की हत्या करके शव को समीपस्थ तालाब में फेंक दिया ।

प्रातः काल घर में कोहराम मच गया ।

धुश्मा पर तो दुख का तुषारापात हो गया, परन्तु व्याकल होते हुए भी धुश्मा ने नित्य की भाँति पूजन न छोड़ा वह तालाब में जाकर एक सौ शिवलिंग बनाकर उन्हें पूजने लगी। ज्योंहि विसर्जन करके वह घर की ओर मुड़ी त्योंहि उसे अपना पत्र तालाब पर खड़ा मिला और शिवजी ने खुश होकर सुदेहा के पाप की पोल खोल दी ओर उसे मारने के लिए वे उद्यत हो गए ।

धुश्मा ने हाथ जोड़कर शिवजी की विनती की और उनसे सुदेहा का अपराध क्षमा करने के लिए कहा । इसके अतिरिक्त धुश्मा ने अत्यन्त विनीत शब्दों में शिवजी से विनती की कि यदि वे उस पर प्रसन्न हैं तो संसार की रक्षा के लिए वे सदा यहीं निवास करें । शिवजी ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और धुश्मेश नाम से अपने शुभ ज्योतिमय लिंग द्वारा वहां स्थित हो गये ।

परम शिवभक्त भोसले (वेरूल के पटेल) को घृष्णेश्वर की कृपा से साँप की बाँबी में बड़ा खजाना प्राप्त हुआ था । उस धन में से उन्होंने मंदिर का जीर्णोद्धार किया और शिखरशिंगणापुर में तालाब बनवाया । बाद में भोसले खानदान में प्रत्यक्ष भोलेनाथ ने अवतार लेकर भोसले घराने का नाम रोशन किया था । गौतमीबाई (बायजाबाई) और अहिल्यादेवी होलकरने बाद में घृष्णेश्वर मंदिर का जीर्णोधार किया 240x185 फीट लम्बाई-चौड़ाई का मंदिर आज भी मजबूत और सुंदर दिखाई देता है ।

मंदिर के अर्धऊँचाई के लाल पत्थर पर दशावतार के दृश्य दर्शानवाली तथा अन्य अनेक देवताओं की मूर्तियाँ खुदवाई गई हैं | जयराम भाटिया नाम के दाता ने सोने की चद्दर मढा हुआ ताम्रशिखर बनवाया है । 24 पत्थर के खम्भों पर सभामंडप बनवाया है ।

खम्भों पर अति उत्तम नक्काशी तराशी गई है ।

चित्र भी सुंदर दिखाई देते हैं । गर्भाशय 17x17 फीट का है ओर लिंगमूर्ति पूर्वाभिमुख रखी हुई है । सभामंडप में भव्य नंदीकेश्वर है । देवस्थान का कारोबार एक नियुक्त समिति के द्वारा चलता है । दिन में ही बार नक्कारा बजता है, पूजा और आरती की जाती है । गर्भगृह में दर्शन के लिए जाते समय कपड़े उतारकर जाना पड़ता है । सोमवार, प्रदोष, शिवरात्रि तथा अन्य पर्वो पर यहाँ बहुत बड़ा मेला लगता है भीड-भाड़ तो हमेशा लगी रहती है । 21 गणेश पीठों में से एक पीठ लक्षविनायक नाम से प्रसिद्ध है । सबसे पहले लक्षविनायक के दर्शन किये जाते हैं । इस प्रदेश में हमेशा 'शिवनाम' का घोष लगा रहता है ।



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ओऽम् नमः शिवाय । ओऽम नमः शिवाय !

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