।। चतुः श्लोकी भागवत प्रवचन ।।
चतुः श्लोकी भागवत प्रवचन
chatuh shloki Bhagwat discourse
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स सर्वधीवृत्यनुभूतसर्व आत्मायथा स्वप्रजनेक्षितैकः ।
त सत्यमानन्द निधिं भजेत नान्यत्र सज्जेत्यत आत्मपातः ।।
इसी प्रकार इस जागृत अवस्था में परमात्मा से भिन्न कुछ भी नहीं है सब रूपों में वही है -
स सर्वधीवृत्यनुभूतसर्वः सर्वेषां धीवृत्तिभिरनुभूतं सर्व येन सः
परमात्मा सबकी बुद्धि वृत्तियों से वही सबका अनुभव कर रहा है, वही सबके नेत्रों से देख रहा है, कानों से सुन रहा है, जिह्वा से चख रहा है । उसी सच्चिदानन्द भगवान् का भजन करना चाहिए अन्य किसी वस्तु में आसक्ति नहीं करनी चाहिए क्योंकि अन्यत्र की गई आसक्ति जीव के अधःपतन का हेतु है ।नभारती मेऽङ्गमषोपलक्ष्यते न वैक्चचिन्मे मनसो मृषा गतिः ।
न मे हृषीकाणि पतन्त्यसत्पथे यन्मे हृदौत्कण्ठ्यवताधृतो हरिः ।।
आत्ममायामृतेराजन् परस्यानुभवात्मनः ।
न घटेतार्थसम्बन्धः स्वप्नदृष्टुरिवाजसा ।।
चतुः श्लोकी भागवत प्रवचन
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भगवान् ने ब्रह्मा जी को जब सृष्टि करने का आदेश दिया जब ब्रह्मा जी बोले भगवन् आप मुझ पर ऐसी कृपा कीजिए कि मैं आपकी आज्ञा का पालन कर सकूँ और सृष्टि की रचना करते समय मुझे कर्तापन का अभिमान न हो -ज्ञानं परमगुह्यं मे यद् विज्ञान समन्वितम् ।
सरहस्यं तदङ च गृहाण गदितं मया ।।
मेरा जितना विस्तार है, जो लक्षण हैं और मेरे जितने रूप, गुण, लीलायें हैं मेरी कृपा से तुम उनके स्वरूप को ठीक-ठाक जान सकोगे।
यदा तु सर्वभूतेषु दारूष्वग्निमिवस्थितम् ।
प्रतिचक्षीत मा लोको जह्यात्तार्येव कश्मलम् ।।
जब कोई विवेकी अपने को शरीर इन्द्रिय, मन, बुद्धि इनसे पृथक कर ब्रह्म रूप समझ लेता है तब वह मोक्ष पद प्राप्त कर लेता है ।
भगवान् कहते हैं ब्रह्मा जी -
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद्यत्सदसत्परम् ।
पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम् ।।
अनेन च अनाद्यनन्तत्वादद्वितीयत्वाच्चपरिपूर्णोऽहम ।
ऋतेऽर्थ यत्प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि ।
तविद्यादात्मनो माया यथाऽभाऽसो यथा तमः ।।
जो वस्तु नहीं है उसको दिखावे और जो वस्तु है उसको छिपावे उसी को माया कहते हैं । जैसे राहु ग्रह मण्डल में रहता है पर दीखता नहीं है । दो चन्द्रमा नहीं है परन्तु जब नेत्र रोग होता है तब दो चन्द्रमा दिखाई पड़ते हैं, इसी प्रकार आत्मा सच्चिदानन्द रूप है पर उसकी सच्चिदानन्दरूपता का भान नहीं होता और आत्मा कर्ता, भोक्ता, सुखी, दुःखी न होने पर भी उसमें कर्तृव्य-भोक्तृत्व, सुख-दुःख की प्रतीति होती है, इसी को माया कहते हैं ।
जैसे पञ्चमहाभूत प्राणियों के छोटे-बड़े शरीरों में प्रविष्ट भी है और अप्रविष्ट भी हैं, अर्थात् उनके पृथक भी हैं, इसी प्रकार सभा प्राणियों के शरीरों में मैं आत्मरूप से प्रविष्ट भी हैं और उनके पृथक्
जैसे पञ्चमहाभूत प्राणियों के छोटे-बड़े शरीरों में प्रविष्ट भी है और अप्रविष्ट भी हैं, अर्थात् उनके पृथक भी हैं, इसी प्रकार सभा प्राणियों के शरीरों में मैं आत्मरूप से प्रविष्ट भी हैं और उनके पृथक्
एतावदेव जिज्ञास्य तत्वजिज्ञासुनात्मनः ।
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत्स्यात्सर्वत्र सर्वदा ।।
आत्मा के स्वरूप को जो जानना चाहता है उसको, यह ब्रह्म नही, यह ब्रह्म नहीं इस प्रकार निषेध की पद्धति से और यह ब्रह्म है यह ब्र है, इस अन्वय की पद्धति से इतना ही जानना है कि सवात सर्वस्वरूप, भगवान् सर्वदा और सर्वत्र स्थित हैं वही वास्तविक तत्व है।एतन्मतं समातिष्ठ परमेण समाधिना ।
भवान्कल्पविकल्पेषु न विमुह्यति कर्हिचित् ।।
ब्रह्मा जी तुम समाहित होकर मेरे इस सिद्धान्त में पूर्ण निष्ठा कर लो इससे तुम्हें कल्प-कल्प में अनेक प्रकार की सृष्टि की रचना करने पर भी कभी मोह नहीं होगा ।अहमात्माऽऽत्मना धातः प्रेष्ठः सन्प्रेयसामपि ।
अतो मयि रतिं कुर्यात्देहादिर्यत्कृते प्रियः ।।
ब्रह्मा जी मैं सब जीवों की आत्मा हूँ और स्री, पुत्रादि प्रियों का भी प्रिय हूँ, देहादि भी मेरे लिए ही प्रिय हैं । इसलिए सबको मुझसे ही प्रेम करना चाहिए ।चतुः श्लोकी भागवत प्रवचन
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