F श्रीविष्णुसूक्ति- विष्णु स्तुति मंत्र श्लोक/lord vishnu slokas - bhagwat kathanak
श्रीविष्णुसूक्ति- विष्णु स्तुति मंत्र श्लोक/lord vishnu slokas

bhagwat katha sikhe

श्रीविष्णुसूक्ति- विष्णु स्तुति मंत्र श्लोक/lord vishnu slokas

 श्रीविष्णुसूक्ति- विष्णु स्तुति मंत्र श्लोक/lord vishnu slokas

 श्रीविष्णुसूक्ति- विष्णु स्तुति मंत्र श्लोक/lord vishnu slokas

श्रीविष्णुसूक्ति- विष्णु स्तुति मंत्र श्लोक/lord vishnu slokas


शुक्लाम्बरधरं विष्णु शशिवर्ण चतुर्भुजम्।

प्रसन्नवदनं ध्यायेत सर्वविघ्नोपशान्तये॥१॥

स्वच्छ वस्त्रधारी, चन्द्रमाके समान शुक्लवर्ण, चतुर्भुज, प्रसन्नवदन विष्णुका सर्वविघ्नोंकी शान्तिके लिये ध्यान करे॥ १॥ 


न नाकपृष्ठं न च पारमेष्ठ्यं न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम्।

न योगसिद्धीरपुनर्भवं वा समञ्जस त्वा विरहय्य काझे ॥२॥

हे समदर्शिन् ! आपको छोड़कर मुझे न तो स्वर्गकी, न ब्रह्मलोककी, न सार्वभौम साम्राज्यकी, न पृथ्वीपतित्वकी, न योगसिद्धियोंकी और न जन्म-मरणसे छूटनेकी ही इच्छा है ॥ २॥ 


अजातपक्षा इव मातरं खगाः स्तन्यं यथा वत्सतराः क्षुधार्ताः।

प्रियं प्रियेव व्युषितं विषण्णा मनोऽरविन्दाक्ष दिदृक्षते त्वाम्॥३॥

बिना पङ्खोंवाले पक्षिशावक जिस प्रकार अपनी माताके लिये उत्सुक रहते हैं, भूखे बछड़े जैसे दूधके लिये व्याकुल रहते हैं तथा विरहिणी स्त्री जैसे व्यथित होकर अपने प्रवासी पतिकी बाट देखती है; हे कमलनयन ! मेरा मन भी उसी प्रकार आपके दर्शनोंके लिये लालायित हो रहा है ॥ ३॥ 


यन्मूर्ध्नि मे श्रुतिशिरस्सु भाति यस्मि-

न्नस्मन्मनोरथपथः सकलः समेति।

स्तोष्यामि नः कुलधनं कुलदैवतं तत्

पादारविन्दमरविन्दविलोचनस्य ।।४।।

कमलनयन भगवान् विष्णुके जो चरणारविन्द मेरे मस्तकपर तथा वेदोंके शिरपर सुशोभित होते हैं और जिनमें मेरे मनोरथोंके सभी मार्ग मिलते हैं तथा जो मेरे कुलधन और कुलदेवता हैं, उनकी मैं वन्दना करता हूँ ॥ ४॥ 

 श्रीमद्भा०६।११। २५-२६ ।


तत्त्वेन यस्य महिमार्णवशीकराणुः

शक्यो न मातुमपि सर्वपितामहाद्यैः।

कर्तुं तदीयमहिमस्तुतिमुद्यताय

मह्यं नमोस्तु  कवये निरपत्रपाय॥५॥*

जिनकी महिमारूप समुद्रके छोटे-से-छोटे जलकणका भी मान बतलानेको शिव और ब्रह्मा आदि देवता भी समर्थ नहीं हैं; उन्हींकी महिमाका स्तवन करनेके लिये उद्यत हुए मुझ निर्लज्ज कविको नमस्कार है ! (भला, मैं उनकी महिमा क्या जानूँ)? ॥ ५ ॥ 


यद्वा श्रमावधि यथामति वाप्यशक्तः

स्तौम्येवमेव खलु तेऽपि सदा स्तुवन्तः।

वेदाश्चतुर्मुखमुखाश्च महार्णवान्तः

को मज्जतोरणुकुलाचलयोर्विशेषः॥६॥

अथवा असमर्थ होनेपर भी अपने परिश्रम और बुद्धिके अनुसार मैं स्तुति करूँगा ही, क्योंकि सदा स्तुति करनेवाले वेद और ब्रह्मा आदि देवता भी श्रम और बुद्धिके अनुसार ही स्तुति करते हैं, (पूरी-पूरी स्तुति उनसे भी नहीं हो पाती, फिर मुझसे उनमें कोई विशेषता नहीं) भला, महासागरके बीच डूबते हुए परमाणु और कुल-पर्वतोंमें क्या अन्तर है? ॥ ६॥ 


किञ्चैष शक्तयतिशयेन न तेऽनुकम्प्यः

स्तोतापि तु स्तुतिकृतेन परिश्रमेण।

तत्र श्रमस्तु सुलभो मम मन्दबुद्धे-

रित्युद्यमोऽयमुचितो मम चाब्जनेत्र॥७॥

हे कमलनयन भगवन् ! कोई भी स्तुति करनेवाला अपनी शक्तिकी अधिकतासे तुम्हारी दयाका पात्र नहीं होता, बल्कि स्तुति करते-करते जब थक जाता है तो उसकी थकावटके कारण आप उसपर दया करते हैं। ऐसी दशामें ब्रह्मा आदि तो अधिक शक्तिमान् होनेके कारण जल्दी नहीं थक सकते, पर मैं तो मन्दबुद्धि हूँ, मेरा शीघ्र ही थक जाना अधिक सम्भव है, अत: ब्रह्मादिसे पहले मैं ही आपका कृपापात्र बनूँगा!-इसलिये स्तुति करनेका यह मेरा उद्योग उचित ही है॥ ७॥

* श्रीआलवन्दारस्तोत्रात्, श्लो० ९, १०, ११, १२ ।


नावेक्षसे यदि ततो भुवनान्यमूनि

नालं प्रभो भवितुमेव कुतः प्रवृत्तिः।

निसर्गसुहृदि त्वयि सर्वजन्तोः

स्वामिन्न चित्रमिदमाश्रितवत्सलत्वम्॥८॥

हे भगवन् ! यदि आप इन लोकोंकी ओर दृष्टि न डालें तो इनकी उत्पत्ति ही नहीं हो सकती, फिर प्रवृत्ति तो हो ही कैसे सकती है? इस प्रकार समस्त प्राणियोंके स्वाभाविक सुहृद् आपमें अपने आश्रितजनोंके ऊपर वत्सल (सदय) होनेका गुण रहना आश्चर्यकी बात नहीं है ॥ ८॥ 


स्वाभाविकानवधिकातिशयेशितृत्वं

नारायण त्वयि न मृष्यति वैदिकः कः।

ब्रह्मा शिव: शतमखः परमः स्वराडि-

त्येतेऽपि यस्य महिमार्णवविपुषस्ते॥९॥

हे नारायण! कौन ऐसा वेदवेत्ता पुरुष है, जो आपके स्वाभाविक निरवधि और निरतिशय ऐश्वर्यको सहन न कर सकता हो? क्योंकि ब्रह्मा, शिव, इन्द्र और बड़े-बड़े आत्माराम मुनि भी आपकी महिमारूप महासागरकी छोटी बूंदोंके समान हैं ॥ ९॥ 


क: श्री श्रियः परमसत्त्वसमाश्रयः क:

कः पुण्डरीकनयनः पुरुषोत्तमः कः।

कस्यायुतायुतशतैककलांशकांशे

विश्वं विचित्रचिदचित्प्रविभागवृत्तम्॥१०॥

आपके अतिरिक्त-लक्ष्मीजीकी शोभा कौन है? शुद्ध सत्त्वका आधार कौन है ? कमलदलके समान विशाल नेत्रोंवाला कौन है ? पुरुषोत्तम नाम किसका है? तथा किसकी अनन्त करोड़ कलाओंके एकांशके भी अंशमें यह जड़-चेतनरूप विचित्र संसार विभागपूर्वक स्थित है ॥ १०॥ 


वेदापहारगुरुपातकदैत्यपीडा-

द्यापद्विमोचनमहिष्ठफलप्रदानैः।

कोऽन्यः प्रजापशुपती परिपाति कस्य 

पादोदकेन स शिवः स्वशिरोधृतेन॥११॥

भगवन् ! आपको छोड़कर दूसरा कौन है, जो वेदोंके अपहरणसे, ब्रह्माहत्यासे और दैत्योंद्वारा दिये गये कष्टोंसे प्राप्त हुई आपदाओंको दूर करके तथा महान् वरदान देकर ब्रह्मा और महादेवजीका भी पालन करता हो; तथा वे प्रसिद्ध महादेवजी आपके अतिरिक्त अन्य किसका चरणोदक (गङ्गाजल) सिरपर धारण करके, शिव (कल्याणमय) कहलाते हैं? ॥ ११॥ 

* श्रीआलवन्दारस्तोत्रात, श्लो० १३, १४, १५ ।


कस्योदरे हरविरिञ्चमुखप्रपञ्चः

को रक्षतीममजनिष्ट च कस्य नाभेः।

क्रान्त्वा निगीर्य पुनरुद्रिति त्वदन्यः

कः केन चैष परवानिति शक्यशङ्कः॥१२॥*

भला, आपके सिवा और किसके उदरमें शिव, ब्रह्मा आदि यह सारा प्रपञ्च स्थित है, कौन इसकी रक्षा करता और किसकी नाभिसे यह उत्पन्न होता है? आपको छोड़कर कौन इसे अपने पैरोंसे मापकर [प्रलयकालमें] निगल जाता और पुनः [सृष्टिकालमें] बाहर प्रकट कर देता है; यह प्रपञ्च किसी दूसरेके अधीन है-ऐसी शङ्का भी कौन कर सकता है? ॥ १२ ॥ 


त्वां शीलरूपचरितैः परमप्रकृष्ट-

सत्त्वेन सात्त्विकतया प्रबलैश्च शास्त्रैः।

प्रख्यातदैवपरमार्थविदां मतैश्च

नैवासुरप्रकृतयः प्रभवन्ति बोद्धम्॥१३॥*

आसुरी प्रकृतिवाले मनुष्य आपके लोकोत्तर शील, रूप, चरित्र, परम उत्तम सत्त्वगुण और सात्त्विक स्वभावद्वारा, आपको प्रबल शास्त्रों तथा देवसम्बन्धी परमार्थ (रहस्य) को जाननेवाले विख्यात पाराशरादि महर्षियोंके सिद्धान्तोंसे भी, यथावत् नहीं जान सकते ॥ १३ ॥ 


उल्लवितत्रिविधसीमसमातिशायि-

सम्भावनं तव परिवढिमस्वभावम्।

मायाबलेन भवतापि निगुह्यमानं

पश्यन्ति केचिदनिशं त्वदनन्यभावाः॥१४॥*

परन्तु आपमें अनन्य भावना रखनेवाले कुछ भक्तजन आपके ऐश्वर्यको-जो देश, काल और वस्तुकी सीमासे रहित तथा अपने समान या अपनेसे अधिककी सम्भावनासे पृथक् है-निरन्तर देखते हैं, यद्यपि उसे आप अपनी मायाके बलसे छिपाये रखते हैं॥ १४॥

श्रीआलवन्दारस्तोत्रात्, श्लो० १६, १७, १८, १९ ।


यदण्डमण्डान्तरगोचरञ्च यद्दशोत्तराण्यावरणानि यानि च।

गुणाः प्रधानं पुरुषः परम्पदं परात्परं ब्रह्म च ते विभूतयः॥१५॥*

हे प्रभो! अण्ड, ब्रह्माण्डस्थित सर्ववस्तु, दस ऊपरके आवरण, तीन गुण, प्रकृति, पुरुष, परमपद, और परात्पर ब्रह्म-ये सब आपकी ही विभूतियाँ हैं ॥ १५ ॥ 


वशी वदान्यो गुणवानृजुः शुचिम॒दुर्दयालुर्मधुरः स्थिरः समः ।

कृती कृतज्ञस्त्वमसि स्वभावतः समस्तकल्याणगुणामृतोदधिः॥१६॥*

हे प्रभो! आप सबको वशमें रखनेवाले, उदार, गुणवान्, सरल, पवित्र, मृदुल स्वभाववाले, दयालु, मधुर, अविचल, समदर्शी, कृतकृत्य और कृतज्ञ हैं; इस प्रकार आप स्वभावहीसे समस्त कल्याणमय गुणरूप अमृतके सागर हैं ॥ १६ ॥ 


उपर्युपर्यब्जभुवोऽपि पूरुषान् प्रकल्प्य ते ये शतमित्यनुक्रमात्।

गिरस्त्वदेकैकगुणावधीप्सया सदा स्थिता नोद्यमतोऽतिशेरते॥१७॥*

हे प्रभो ! वेदवाणी आपके गुणोंमेंसे एक- एकका भी अन्त लगानेकी इच्छासे प्रजापति ब्रह्माके भी ऊपर-ऊपर पुरुषोंकी कल्पना करके 'ते ये शतं प्रजापतेरानन्दाः स एको ब्रह्मणः' इत्यादिरूपसे सदा परिगणना करती रहती है, वह कभी उद्योगसे मुँह नहीं मोड़ती है [फिर भी पता नहीं पाती] ॥ १७ ॥


त्वदाश्रितानां जगदुद्भवस्थितिप्रणाशसंसारविमोचनादयः।

भवन्ति लीलाविधयश्च वैदिकास्त्वदीयगम्भीरमनोऽनुसारिणः॥१८॥*

[हे शरण्य !] आपके आश्रितजनोंको जगत्की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय तथा संसारसे मुक्ति-ये सब लीलामात्र होते हैं और वैदिक विधियाँ भी आपके भक्तोंके गम्भीर मनको अनुसरण करनेवाली होती हैं ॥ १८ ॥ 


नमो नमो वाङ्मनसातिभूमये नमो नमो वाड्मनसैकभूमये।

नमो नमोऽनन्तमहाविभूतये नमो नमोऽनन्तदयैकसिन्धवे॥१९॥*

मन और वाणीके अगोचर आपको प्रणाम है, [ऐसा होते हुए भी भक्तजनोंके] मन-वाणीके एकमात्र विश्रामस्थान आपको नमस्कार है; अत्यन्त महाविभूतियोंसे सम्पन्न और अनन्त दयाके एकमात्र सागर आपको प्रणाम है, बारम्बार प्रणाम है॥ १९॥ 


न धर्मनिष्ठोऽस्मि न चात्मवेदी न भक्तिमांस्त्वच्चरणारविन्दे।

अकिञ्चनोऽनन्यगतिः शरण्यं त्वत्पपादमूलं शरणं प्रपद्ये ॥२०॥*

मैं न धर्मनिष्ठ हूँ, न आत्मज्ञानी हूँ और न आपके चरणोंमें भक्तिमान्ही  हूँ; मैं तो अकिञ्चन हूँ, अनन्यगति हूँ और शरणागतिरक्षक आपके चरणकमलोंकी शरण आया हूँ॥ २०॥

* श्रीआलवन्दारस्तोत्रात्, श्लो० २० २१, २२, २३, २४, २५ ।


न निन्दितं कर्म तदस्ति लोके सहस्त्रशो यन्न मया व्यधायि।

सोऽहं विपाकावसरे मुकुन्द क्रन्दामि सम्प्रत्यगतिस्तवाग्रे॥२१॥*

संसारमें ऐसा कोई निन्दित कर्म नहीं है, जिसको हजारों बार मैंने न किया हो,ऐसा मैं अब फलभोगके समयपर विवश (अन्य साधनहीन) होकर, हे मुकुन्द ! आपके आगे बारम्बार रोता-क्रन्दन करता हूँ ।। २१ ॥ 


निमजतोऽनन्तभवार्णवान्तश्चिराय मे कूलमिवासि लब्धः।

त्वयापि लब्धं भगवन्निदानीमनुत्तमं पात्रमिदं दयायाः॥२२॥*

अनन्त महासागरके भीतर डूबते हुए मुझको आज अति विलम्बसे आप तटरूप होकर मिले हैं, और हे भगवन् ! आपको भी आज यह दयाका अनुपम पात्र मिला है ! ।। २२ ॥ 


अभूतपूर्वं मम भावि किं वा सर्वं सहे मे सहजं हि दुःखम्।

किन्तु त्वदग्रे शरणागतानां पराभवो नाथ न तेऽनुरूपः॥२३॥*

[अब इस समय यदि आप मेरा दु:ख दूर नहीं करते तो] मेरे लिये तो यह कोई नयी बात नहीं है, मैं तो सब सहन कर लूँगा, क्योंकि दु:ख तो मेरे साथ ही उत्पन्न हुआ है; किन्तु आपके सामने शरणागतका पराभव होना आपके योग्य नहीं है-आपको शोभा नहीं देता।॥ २३ ॥ 


निरासकस्यापि न तावदुत्सहे महेश हातुं तव पादपङ्कजम्।

रुषा निरस्तोऽपि शिशुः स्तनन्धयो न जातु मातुश्चरणौ जिहासति ॥२४॥*

हे महेश्वर ! आप त्याग देंगे तो भी आपके चरणकमलोंके परित्याग करनेका साहस नहीं कर सकता; क्रोधवश गोदीसे अलग किया हुआ भी दूध पीनेवाला शिशु, अपनी माताके चरणोंको कभी नहीं छोड़ना चाहता ॥ २४॥ 


तवामृतस्यन्दिनि पादपङ्कजे निवेशितात्मा कथमन्यदिच्छति।

स्थितेऽरविन्दे मकरन्दनिर्भरे मधुव्रतो नेक्षुरकं हि वीक्षते॥२५॥*

जो पुरुष आपके अमृतवर्षी चरणकमलोंमें दत्तचित्त है, वह किसी और पदार्थकी इच्छा कैसे कर सकता है? मधुसे भरे हुए पङ्कजपर बैठा हुआ भ्रमर इक्षुरक (तालमखानेके पुष्प अथवा ईखके रस) की ओर कब दृष्टिपात करता है? ॥ २५ ॥ 


त्वदज्रिमुद्दिश्य कदापि केनचिद्यथा तथा वापि सकृत्कृतोऽञ्जलिः।

तदैव मुष्णात्यशुभान्यशेषतः शुभानि पुष्णाति न जातु हीयते॥२६॥*

आपके चरणोंके उद्देश्यसे, किसी भी समयमें, किसीने भी, जैसे-तैसे एक बार भी हाथ जोड़ दिया तो वह (नमस्कार) उसके समस्त पापोंको हर लेता है, पुण्यराशिकी पुष्टि करता है और उसका फिर कभी नाश नहीं होता ॥ २६ ॥

* श्रीआलवन्दारस्तोत्रात्, श्लो० २६, २७, २८, २९, ३०, ३१ ।


उदीर्णसंसारदवाशुशुक्षणिं क्षणेन निर्वाप्य परां च निर्वृतिम् ।

प्रयच्छति त्वच्चरणारुणाम्बुजद्वयानुरागामृतसिन्धुशीकरः ।। २७।।*

आपके युगलचरणरूपी अरुण कमलके अनुरागसे उत्पन्न हुए अमृत-सिन्धु (गङ्गाजी) का जलकण बढ़े हुए संसार-दावाग्निको क्षणमात्रमें शान्त करके परमानन्द देता है ।। २७ ।। 


विलासविक्रान्तपरावरालयं नमस्यदार्तिक्षपणे कृतक्षणम्।

धनं महीयं तव पादपङ्कजं कदा नु साक्षात्करवाणि चक्षुषा ।। २८॥*

लीलामात्रसे ही पर-अपर सब लोकोंको (वामनरूपमें) नापनेवाले और प्रणतकी पीड़ाको हरनेमें ही अपना प्रत्येक क्षण लगानेवाले मेरे परमधन आपके पादपङ्कजको, नेत्रोंसे मैं कब प्रत्यक्ष देखूगा? ॥ २८॥ 


कदा पुनः शङ्खरथाङ्गकल्पकध्वजारविन्दाङ्कुशवज्रलाञ्छनम्।

त्रिविक्रम त्वच्चरणाम्बुजद्वयं मदीयमूर्द्धानमलङ्करिष्यति ।। २९ ।।*

हे वामन ! शङ्ख, चक्र, कल्पवृक्ष ध्वजा, कमल, अङ्कुश, वज्र आदि शुभ चिह्नोंवाले आपके चरणयुगल, मेरे मस्तकको कब अलकृत करेंगे ॥ २९॥ 


विराजमानोज्ज्वलपीतवाससं स्मितातसीसूनसमामलच्छविम्।

निमग्ननाभिं तनुमध्यमुन्नतं विशालवक्षःस्थलशोभिलक्षणम्॥ ३० ॥*

जिनके अङ्गोंपर निर्मल पीताम्बर शोभा पा रहा है, जिसकी अमल श्यामल कान्ति प्रफुल्लित अतसी-पुष्पके समान सुन्दर है, जिनका देह ऊँचा, नाभि गम्भीर, कटिदेश (कमर) सूक्ष्म और विशाल वक्षःस्थल श्रीवत्सचिह्नसे सुशोभित हो रहा है ऐसे आपको मैं कब अपनी सेवाद्वारा प्रसन्न करूँगा?] ॥ ३०॥ 


चकासतं ज्याकिणकर्कशैः शुभैश्चतुर्भिराजानुविलम्बिभिर्भुजैः ।

प्रियावतंसोत्पलकर्णभूषणश्लथालकाबन्धविमर्दशंसिभिः ॥३१॥*

जो प्रियतमा लक्ष्मीके शिरोभूषण कमलदलादि कर्णभूषणों तथा शिथिल अलक बन्धके विमर्दकी सूचना देनेवाले हैं। [अति कोमल होते हुए भी] शार्ङ्गधनुषकी प्रत्यञ्चाके चिह्नोंसे कठोर हो गये हैं, ऐसे आजानुलम्बी सुन्दर चार भुजदण्डोंसे सुशोभित होनेवाले आपको [मैं कव प्रसन्न कर सकूँगा?] || ३१ । 


उदग्रपीनांसविलम्बिकुण्डलालकावलीबन्धुरकम्बुकन्धरम् ।

मुखश्रिया न्यक्कृतपूर्णनिर्मलामृतांशुविम्बाम्बुरुहोज्ज्वलश्रियम्।।३२ ।।*

उन्नत और पुष्ट कन्धोंपर लटकते हुए कुण्डल तथा अलकोंसे जिनकी शवसदृश (उन्नत) ग्रीवा मनोहर मालूम होती है; जो अपने मुखकी शोभासे निर्मल पूर्णचन्द्रविम्ब तथा श्वेत कमलकी कान्तिको तिरस्कृत कर रहे हैं, ॥३२।।

श्रीआलवन्दारस्तोत्रात, श्ली०३२, ३३, ३४, ३५, ३६, ३७ ।


प्रबुद्धमुग्धाम्बुजचारुलोचनं सविभ्रमभ्रूलतमुज्ज्वलाधरम्।

शुचिस्मितं कोमलगण्डमुन्नसं ललाटपर्यन्तविलम्बितालकम्॥३३॥*

खिलेहुए सुन्दर पद्मके समान जिनके मनोहर नेत्र हैं; विलासमयी भौंहें हैं, अमल अधर हैं, मधुर मुसकान है, कोमल कपोल, ऊँची नासिका और भालदेशमें लटकी हुई अलकें हैं [ऐसे आपको मैं कब आनन्दित करूँगा?] ॥३३ ।।


स्फुरत्किरीटाङ्गदहारकण्ठिकामणीन्द्रकाञ्चीगुणनूपुरादिभिः ।

रथाङ्गशङ्खासिगदाधनुर्वरैर्लसत्तुलस्या वनमालयोज्वलम्॥३४॥*

 प्रकाशमान किरीट, भुजबन्द, हार, कण्ठी, जड़ाऊ रत्नोंकी किङ्किणी और नूपुर आदि आभूषणोंसे, शङ्ख, चक्र, गदा, खड्ग और धनुष आदि दिव्य आयुधोंसे तथा तुलसीमयी वनमालासे आप सुशोभित हैं ॥ ३४॥ 


चकर्थ यस्या भवनं भुजान्तरं तव प्रियं धाम यदीयजन्मभू।

जगत्समग्रं यदपाङ्गसंश्रयं यदर्थमम्भोधिरमन्थ्यबन्धि च॥३५॥*

स्ववैश्वरूप्येण सदानुभूतयाप्यपूर्ववद्विस्मयमादधानया।

गुणेन रूपेण विलासचेष्टितैः सदा तवैवोचितया तव श्रिया॥३६॥*

आपने अपनी भुजाओंका मध्यभाग (हृदय) ही जिसके लिये निवास-मन्दिर बनाया, जिसकी जन्मभूमि (क्षीरसागर) ही आपका प्रिय वासस्थान है, सारा संसार जिसके कटाक्षोंके आश्रित है तथा जिसके लिये आपने समुद्रका मन्थन और बन्धन किया, जो विश्वरूपसे आपके द्वारा सदा अनुभूत होनेपर भी नूतन-सी विस्मय उत्पन्न करती है, जो रूप, गुण और विलास-चेष्टाओंके द्वारा केवल आपके ही योग्य है॥ ३५-३६॥


सहासीनमनन्तभोगिनि प्रकृष्टविज्ञानबलैकधामनि।

फणामणिवातमयूखमण्डलप्रकाशमानोदरदिव्यधामनि ॥३७॥*

निवासशय्यासनपादुकांशुकोपधानवर्षातपवारणादिभिः

शरीरभेदैस्तव शेषतां गतैर्यथोचितं शेष इतीरिते जनैः॥३८॥*

उस लक्ष्मीजीके साथ आप अनन्त फणोंसे विशिष्ट शेषनागकी शय्यापर विराजमान रहते हैं, जो कि समयानुसार निवास, शय्या, आसन, पादुका, वस्त्र, तकिया और शीतवर्षादिनिवारक छत्रादिरूप नाना शरीरभेदोंके द्वारा आपके शेषत्व (अङ्गभाव) को प्राप्त होनेके कारण लोगोंसे 'शेष' कहे जाते हैं और फणोंकी मणियों के किरण-जालसे अपना उदररूप दिव्य-धाम प्रकाशित किये रहते हैं तथा जो उत्तम ज्ञान और बलके एकमात्र आश्रय हैं ।। ३७-३८॥

श्रीआलवन्दारस्तोत्रात्, श्लो० ३८, ३९, ४०, ४१, ४२, ४३ ।


दासः सखा वाहनमासनं ध्वजो यस्ते वितानं व्यजनं त्रयीमयः।

उपस्थितं तेन पुरो गरुत्मता त्वदध्रिसंमईकिणाङ्कशोभिना॥३९॥*

वेदत्रयी जिनका स्वरूप है, जो [अकेले ही समय-समयपर] आपके दास, सखा, वाहन, आसन, ध्वजा, वितान (चाँदनी) और चँवरका काम देते हैं, सवारीके समय आपके पैरोंकी रगड़से बने हुए चिह्नद्वारा जिनका अङ्ग सुशोभित है, वे गरुड़जी आपके सामने हाथ जोड़कर खड़े हैं ॥ ३९॥ 


त्वदीयभुक्तोज्झितशेषभोजिना त्वया निसृष्टात्मभरेण यद्यथा।

प्रियेण सेनापतिना निवेदितं तथानुजानन्तमुदारवीक्षणैः॥ ४०॥*

जो सदा आपकी प्रसादीमात्रको ही भोजन करनेवाले हैं तथा जिनपर आपने अपना सारा भार रख छोड़ा है, ऐसे प्रिय सेनापति (तथा प्रधान मन्त्री विष्वक्सेनजी) के निवेदनका आप अपनी उदार दृष्टि से अनुमोदन करते हैं ॥ ४० ॥


हताखिलक्लेशमलैः स्वभावतस्त्वदानुकूल्यैकरसैस्तवोचितैः।

गृहीततत्तत्परिचारसाधनैर्निषेव्यमाणं सचिवैर्यथोचितम्॥४१॥*

 स्वभावसे ही जिनके क्लेशरूप मल नष्ट हो चुके हैं तथा आपकी अनुकूलता ही जिनके लिये एकमात्र रस है ऐसे सचिवगण आपके योग्य छत्र, पंखा एवं चामरादि यथोचित उपचारों को देकर आपकी सेवा कर रहे हैं ॥ ४१ ॥ 


अपूर्वनानारसभावनिर्भरप्रबुद्धया मुग्धविदग्धलीलया।

क्षणाणुवत्क्षिप्तपरादिकालया  प्रहर्षयन्तं महिषीं महाभुजम्॥४२॥*

जो नित्य नूतन नाना प्रकार के [शृङ्गारादि] रसों तथा [विलासादि] भावों से परिपूर्ण एवं विकसित हैं और जिनमें ब्रह्मादिकोंकी आयु भी क्षणमात्र कालके अणुभागके समान बीत जाती है, ऐसी चातुर्य पूर्ण मोहिनी लीलाओं से अपनी महारानी लक्ष्मीजीको आनन्दित करते हुए, आप विशाल बाहुओं से युक्त होकर शोभा पा रहे हैं ॥ ४२ ॥ 


अचिन्त्यदिव्याद्भुतनित्ययौवनस्वभावलावण्यमयामृतोदधिम्।

श्रियः श्रियं भक्तजनैकजीवितं समर्थमापत्सखमर्थिकल्पकम्॥४३॥*

जो अचिन्त्य, दिव्य, अद्भुत और नित्य यौवनयुक्त (सदा षोडशवर्षीय) हैं, स्वभावसे ही लावण्यमय अमृतके समुद्र हैं लक्ष्मीजीकी भी शोभा हैं, भक्तजनों के मुख्यजीवनरूप हैं, समर्थ हैं, आपत्तिकालके सखा हैं और याचकजनों के लिये कल्पवृक्ष हैं ॥ ४३ ॥ 


भवन्तमेवानुचरन्निरन्तरं प्रशान्तनिश्शेषमनोरथान्तरः।

कदाहमैकान्तिकनित्यकिङ्करः प्रहर्षयिष्यामि सनाथजीवितम्॥४४॥*

ऐसे एक आपका ही निरन्तर अनुसरण करता हुआ अन्य सब मनोरथोंसे सर्वथा रहित और आपका ही ऐकान्तिक नित्यदास होकर मैं इस जीवनको सनाथ मानता हुआ कब आपको सन्तुष्ट करूँगा॥ ४४ ॥ 

श्रीआलवन्दारस्तोत्रात्, श्लो० ४४, ४५, ४६, ४७, ४८ ।


धिगशुचिमविनीतं निर्दयं मामलज्जं 

परमपुरुष योऽहं योगिवर्याग्रगण्यैः।

विधिशिवसनकाद्यैर्ध्यातुमत्यन्तदूर

तव परिजनभावं कामये कामवृत्तः॥४५॥

हे परम पुरुष ! मुझ अपवित्र, अविनीत, निर्दय और निर्लज्जको धिक्कार है, जो स्वेच्छाचारी होकर भी मैं मुख्य-मुख्य योगीश्वरों तथा ब्रह्मा, शिव और सनकादिके ध्यानमें भी न आ सकनेवाले आपके दुर्लभ परिजन-भावकी कामना करता हूँ ॥ ४५ ॥ 


अपराधसहस्त्रभाजन पतितं भीमभवार्णवोदरे।

अगति शरणागतं हरे कृपया केवलमात्मसात्कुरु॥४६॥*

हे हरे ! हजारों अपराध करनेवाले, भयङ्कर संसार-समुद्र में पड़े हुए और निराश्रय मुझ शरणागतको आप केवल अपनी कृपासे ही अधीन कर लीजिये ॥ ४६॥ 


अविवेकघनान्धदिङ्मुखे बहुधा सन्ततदुःखवर्षिणि।

भगवन् भवदुर्दिने पथः स्खलितं मामवलोकयाच्युत॥४७॥*

हे भगवन्! हे अच्युत ! जिसने अविवेकरूपी बादलोंद्वारा दिशाओंको अन्धकाराच्छन्न कर दिया है और जिसके कारण निरन्तर दु:खरूपी वृष्टि हो रही है, उस संसाररूपी दुर्दिनमें मार्गसे गिरे हुए मेरी ओर आप निहार लीजिये॥ ४७॥ 


न मृषा परमार्थमेव मे शृणु विज्ञापनमेकमग्रतः।

यदि मे न दयिष्यसे ततो दयनीयस्तव नाथ दुर्लभः॥४८॥*

हे नाथ! इस मेरे एकमात्र विज्ञापनको आप पहले सुन लीजिये, यह झूठी बात नहीं है, सत्य ही है-यदि आप मुझपर दया नहीं करेंगे तो फिर आपको दयापात्र मिलना कठिन ही है॥४८॥ 


तदहं त्वदृते न नाथवान्मदृते त्वं दयनीयवान्न च ।

विधिनिर्मितमेतदन्वयं भगवन् पालय स्म जीहपः॥४९॥*

हे भगवन् ! तुम्हारे बिना मैं नाथवान् नहीं हूँ और मुझ दीनके बिना आप दीनदयालु नहीं हो सकते; इसलिये विधि-निर्मित इस सम्बन्धको आप निभाइये। इसका. त्याग न होने दीजिये॥ ४९ ॥ 


वपुरादिषु योऽपि कोऽपि वा गुणतोऽसानि यथातथाविधः।

तदयं तव पादपद्मयोरहमद्यैव मया समर्पितः॥५०॥*

हे नाथ! शरीर, इन्द्रिय, मन, प्राण और बुद्धि आदिमें मैं जो कोई भी होऊँ,गुणके अनुसार [ भला-बुरा] जैसा भी होऊँ, मै तो आज ही अपनेको आपके चरण-कमलोंमें समर्पण कर चुका ॥ ५० ॥ 

श्रीआलवन्दारस्तोत्रात्, श्लो० ४९, ५०, ५१, ५२, ५३, ५४ ।



मम नाथ यदस्ति योऽस्म्यहं सकलं तद्धि तवेव माधव।

नियतस्वमिति प्रबुद्धधीरथवा किन्नु समर्पयामि ते॥५१॥*

हे प्रभो ! स्वयं मैं और जो कुछ भी मेरा है, वह सब आपका ही नियत धन है, हे माधव! यही मेरी बुद्धिमें आता है, ऐसी दशामें मैं आपको क्या समर्पण करूँ? ॥५१॥ 


अवबोधितवानिमां यथा मयि नित्यां भवदीयतां स्वयम्।

कृपयैवमनन्यभोग्यतां भगवन् भक्तिमपि प्रयच्छ मे॥५२॥*

हे भगवन् ! जिस प्रकार आपने मुझे अपनी नित्यस्थित भवदीयता (मैं आपका हूँ इस भाव) को स्वयं जनाया, इसी तरह कृपा करके मुझे अपनी अनन्य भक्ति भी दीजिये।। ५२ ।। 


तव दास्यसुखैकसङ्गिनां भवनेष्वस्त्वपि कीटजन्म मे।

 इतरावसथेषु मा स्म भूदपि मे जन्म चतुर्मुखात्मना ॥५३॥*

आपके दासत्व-भावका ही सुखानुभव करनेवाले सज्जनोंके घरमें तो मुझे कीट-योनि भी मिले, पर इससे भिन्न तो मुझे ब्रह्माकी योनि भी प्राप्त न हो [यही मेरी प्रार्थना है ॥ ५३॥ 


सकृत्त्वदाकारविलोकनाशया तृणीकृतानुत्तमभुक्तिमुक्तिभिः।

महात्मभिर्मामवलोक्यतां नय क्षणेऽपि ते यद्विरहोऽतिदुस्सहः॥५४॥*

जिन्होंने आपके स्वरूपको एक बार देखनेकी इच्छासे उत्तमोत्तम भोग और मुक्तिको भी तृणवत् त्याग दिया है तथा जिनका क्षणभरका भी वियोग आपके अत्यन्त असह्य है, ऐसे महात्माओंके दृष्टि-पथमें मुझे डाल दीजिये॥ ५४॥


न देहं न प्राणान्न च सुखमशेषाभिलषितं

न चात्मानं नान्यत्किमपि तव शेषत्वविभवात्।

बहितंर्भूतं नाथ क्षणमपि सहे यातु शतधा

विनाशं तत्सत्यं मधुमथन विज्ञापनमिदम्॥५५॥*

हे नाथ! आपकी दासताके वैभवसे रहित होनेवाले देह, प्राण, सुख, सर्वकामनाएँ, अपनी आत्मा तथा अन्य जो कुछ भी हो उसे क्षणभर भी नहीं सह सकता हूँ, चाहे ये सैकड़ों प्रकारसे नष्ट हो जायँ; हे मधुसूदन ! यह मेरा विज्ञापन सत्य है ॥ ५५ ॥*

श्रीआलवन्दारस्तोत्रात्, श्लो० ५५, ५६, ५७, ५८, ५९, ६० ।


दुरन्तस्यानादेरपरिहरणीयस्य महतो

विहीनाचारोऽहं नृपशुरशुभस्यास्पदमपि।

दयासिन्धो बन्धो निरवधिकवात्सल्यजलधे

तव स्मारं स्मारं गुणगणमितीच्छामि गतभीः॥५६॥*

हे दयासिन्धो! हे दीनबन्धो! मैं दुराचारी, नर-पशु, आदि-अन्तरहित और अपरिहरणीय महान् अशुभोंका भण्डार हूँ तो भी हे अपारवात्सल्यसागर! आपके गुण- गणोंका स्मरण कर-करके निर्भय हो जाऊँ, ऐसी इच्छा करता हूँ ! ॥५६॥ 


अनिच्छन्नप्येवं यदि पुनरितीच्छन्निव रज-

स्तमश्छन्नश्छद्मस्तुतिवचनभङ्गीमरचयम् ।

तथापीत्थं रूपं वचनमवलम्ब्यापि कृपया

त्वमेवैवंभूतं धरणिधर मे शिक्षय मनः ।। ५७॥*

हे धरणीधर! यद्यपि मैंने रजोगुण और तमोगुणसे आच्छन्न होकर पूर्वोक्तरूपसे वस्तुतः इच्छा न रखते हुए भी, इच्छुककी भाँति, कपटयुक्त स्तुति-वचनोंका निर्माण किया है; तथापि मेरे ऐसे वचनोंको भी अपनाकर आप ही कृपा करके मेरे मनको [सच्चे भावसे स्तुति करनेयोग्य होनेकी] शिक्षा दें॥ ५७ ॥ 


पिता त्वं माता त्वं  दयिततनयस्त्वं प्रियसुह-

त्वमेव त्वं मित्रं गुरुरपि गतिश्चासि जगताम्।

त्वदीयस्त्वद्भुत्यस्तव परिजनस्त्वद्गतिरहं  

प्रपन्नश्चैवं सत्यहमपि तवैवास्मि हि भरः ॥५८॥*

हे हरे! आप ही जगत्के पिता-माता प्रिय पुत्र, प्यारे सुहृद्, मित्र, गुरु और गति हैं, मैं आपका ही सम्बन्धी, आपका ही दास, आपका ही परिचारक, आपको ही [एकमात्र] गति माननेवाला और आपकी ही शरण हूँ, इस प्रकार अब आपहीपर मेरा सारा भार है॥ ५८॥ 


अमर्यादः क्षुद्रश्चलमतिरसूयाप्रभवभूः

कृतघणो दुर्मानी स्मरपरवशो वञ्चनपरः।

नृशंसः पापिष्ठः कथमहमितो दुःखजलधे-

रपारादुत्तीर्णस्तव परिचरेयं चरणयोः ।।५९॥*

भगवन् ! मैं तो मर्यादाका पालन न करनेवाला, नीच, चञ्चलमति और [गुणों में भी दोष- दर्शनरूप] असूयाकी जन्मभूमि हूँ; साथ ही कृतघ्न, दुष्ट, अभिमानी, कामी, ठग,क्रूर और महापापी हूँ; भला, मैं किस प्रकार इस अपार दु:ख-सागरसे पार होकर आपके चरणोंकी परिचर्या करूँ? ॥ ५९॥ 

श्रीआलवन्दारस्तोत्रात, श्लो० ६१, ६२ ६३ ।


रघुवर यदभूस्त्वं तादृशो वायसस्य

प्रणत इति दयालुर्यच्च चैद्यस्य कृष्ण।

प्रतिभवमपरार्द्धर्मुग्ध सायुज्यदोऽभूर 

बद किमपदमागस्तस्य तेऽस्ति क्षमायाः।।६०।।*

हे रघुवर! जब कि उस काक [रूपधारी जयन्त] के ऊपर, यह सोचकर कि, 'यह मेरी शरणमें आया है, आप वैसे दयालु हो गये थे, और हे सुन्दर कृष्ण! जो अपने प्रत्येक जन्ममें आपका अपराध करता आ रहा था, उस शिशुपालको भी जब आपने सायुज्यमुक्ति दे दी तो अब कौन ऐसा अपराध है, जो आपकी क्षमाका विषय न हो? ।। ६० ॥ 


ननु प्रपन्नः सकृदेव नाथ तवाहमस्मीति च याचमानः।

तवानुकम्प्यः स्मरतः प्रतिज्ञां मदेकवर्ज किमिदं व्रतं ते॥६॥*

( ४ संख्यादारभ्य ६१ संख्यापर्यन्तं सर्वं श्रीमद्यामुनाचार्यस्वामिप्रणीतालवन्दारस्तोत्रात् )

हे नाथ! एक बार भी जो आपकी शरणमें आकर 'मैं तुम्हारा हूँ' ऐसा कहकर याचना करता है, वह अपनी प्रतिज्ञाको सदा स्मरण रखनेवाले आपका कृपापात्र बन जाता है; परन्तु क्या आपकी यह प्रतिज्ञा एकमात्र मुझको ही छोड़कर प्रवृत्त होती है? ॥ ६१ ॥ 


विपदो नैव विपदः सम्पदो नैव सम्पदः।

विपद्विस्मरणं विष्णो: सम्पन्नारायणस्मृतिः।। ६२ ।।

विपत्ति सच्ची विपत्ति नहीं है और सम्पत्ति भी सच्ची सम्पत्ति नहीं है, अपितु, विष्णुका विस्मरण ही विपत्ति है और नारायणका स्मरण ही सम्पत्ति है॥ ६२॥ 


मधुमर्दि महन्मञ्जु मन्द्यं मतिमतामहम्।

मन्येऽमलमदोऽमन्दमहिम श्यामलं महः ।।६३॥

मतिमान् महात्माओंके वन्दनीय, मधुदैत्यका मर्दन करनेवाले, महनीय, मनोहर और उत्कृष्ट महिमाशाली निर्मल श्यामल तेजको ही मैं अपना आराध्यदेव मानता हूँ॥ ६३॥

* श्रीआलवन्दारस्तोत्रात्, श्लो० ६५, ६६, ६७ ।


नारायणो नाम नरो नराणां प्रसिद्धचौरः कथितः पृथिव्याम्।

अनेकजन्मार्जितपापसञ्चयं हरत्यशेषं स्मरतां सदैव॥६४॥*

मनुष्यों में नारायण नामका एक पुरुषविशेष है, जो संसारमें प्रसिद्ध चोर कहा जाता है, क्योंकि वह स्मरण करते ही अनेक जन्मोंकी कमायी हुई सभी पापराशिको सदा ही हड़प जाता है ॥ ६४॥ 


मेघश्यामं पीतकौशेयवासं श्रीवत्साङ्कं कौस्तुभोद्भासिताङ्गम्।

पुण्योपेतं पुण्डरीकायताक्षं विष्णुं वन्दे सर्वलोकैकनाधम्॥६५॥*

नवीन मेघके समान श्यामसुन्दर, रेशमी पीताम्बरधारी, श्रीवत्सचिह्नाङ्कित, कौस्तुभमणिसे देदीप्यमान अङ्गोंवाले, पुण्यात्मा, कमलनयन और सम्पूर्ण लोकोंके एकमात्र स्वामी श्रीविष्णुभगवान्को प्रणाम करता हूँ॥ ६५॥ 


स्वकर्मफलनिर्दिष्टां यां यां योनि व्रजाम्यहम्।

तस्यां तस्यां हृषीकेश त्वयि भक्तिर्दृढास्तु मे॥६६॥*

हे इन्द्रियोंके सूत्रधार! अपने कर्मों के अनुसार होनेवाली जिन-जिन योनियोंमें मैं जाऊँ, हर एकमें तुमसे मेरा अटूट प्रेम बना रहे ॥६६॥ 


आर्ता विषण्णा: शिथिलाश्च भीता घोरेषु व्याघ्रादिषु वर्तमानाः।

सङ्कीर्त्य नारायणशब्दमानं विमुक्तदुःखा सुखिनो भवन्ति॥६७॥*

घबराये हुए, विषादयुक्त, ढीले पड़े हुए, भयभीत हुए, भयङ्कर बाघ आदिके चंगुलमें फँसे हुए मनुष्य भी 'नारायण' नाममात्रका उच्चारण करते ही दुःखसे छूटकर सुखी हो जाते हैं ॥६७॥ 


अहं तु नारायणदासदासदासस्य दासस्य च दासदासः।

अन्येभ्य ईशो जगतो नराणामस्मादहं चान्यतरोऽस्मि लोके॥६८॥*

मैं तो नारायणके दासोंके दासका अनुदास और उनके भी दासानुदासका दास हूँ, मानव-जगत्के राजालोग दूसरोंके लिये हैं, इसलिये संसारमें उनसे मैं अलग ही रहनेवाला हूँ॥ ६८॥


ये ये हताश्चक्रधरेण राजंस्त्रैलोक्यनाथेन जनार्दनेन।

ते ते गता विष्णुपुरी प्रयाता: क्रोधोऽपि देवस्य वरेण तुल्यः॥६९॥*

 हे राजन्! त्रैलोक्यपति चक्रधारी जनार्दनके द्वारा जो लोग मारे गये, वे सभी विष्णुलोकको चले गये, इस देवका क्रोध भी वरकी तरह ही कल्याणप्रद है॥ ६९॥ 


मज्जन्मनः फलमिदं मधुकैटभारे

मत्प्रार्थनीयमदनुग्रह एष एव।

त्वद्धृत्यभृत्यपरिचारकभृत्यभृत्य-

भृत्यस्य भृत्य इति इति मां लोकनाथ ॥ ७०॥*

हे माधव! हे लोकनाथ! मेरे जन्मका यही फल है, मेरी प्रार्थनासे मुझपर होनेवाली दया भी यही है कि आप मुझे अपने भृत्यका भृत्य, उसके सेवकका सेवक और उसके दासका दासानुदासरूपसे याद रखें ॥ ७० ॥

श्रीपाण्डवगीतायाम्, श्लो० ४, ५, १०, १९, २०, २३।



यज्ञेशाच्युत गोविन्द माधवानन्त केशव।

कृष्ण विष्णो हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते॥७१॥*

 हे यज्ञों के स्वामी! अच्युत, गोविन्द, माधव, अनन्त, केशव, कृष्ण, विष्णु, हृषीकेश! तुम्हें नमस्कार है ।। ७१ ॥


'तत्रैव गङ्गा यमुना च वेणी गोदावरी सिन्धुसरस्वती च।

सर्वाणि तीर्थानि वसन्ति तत्र यत्राच्युतोदारकथाप्रसङ्गः।। ७२ ।।*

 गङ्गा, यमुना, त्रिवेणी, गोदावरी, सिन्धु, सरस्वती और अन्य सभी तीर्थ वहीं निवास करते हैं, जहाँ भगवान्की उदार कथा होती रहती है ।। ७२ ॥ 


नाथ योनिसहस्त्रेषु येषु येषु व्रजाम्यहम्।

तेषु तेष्वचला भक्तिरच्युतास्तु सदा त्वयि॥७३॥*

हे नाथ ! जिन-जिन हजारों योनियों में जाऊँ हर एकमें तुम्हारी अचल भक्ति मुझे प्राप्त हो ॥ ७३ ॥ 


या प्रीतिरविवेकानां विषयेष्वनपायिनी।

त्वामनुस्मरतः सा मे हृदयान्मापसर्पतु ॥ ७४॥*

मूढ़ लोगोंकी जिस प्रकार विषयों में नित्य प्रीति बनी रहती है, उसी प्रकार तुम्हारा बारम्बार स्मरण करते हुए मेरे हृदयमें भी वही प्रीति हो । ७४ । 


नित्योत्सवस्तदा तेषां नित्यश्रीनित्यमङ्गलम्।

येषां हृदिस्थो भगवान्मङ्गलायतनं हरिः॥७५॥

जबसे जिनके हृदयमें मङ्गलधाम हरि बसने लगते हैं, तभीसे उनके लिये नित्य उत्सव है, नित्य लक्ष्मी और नित्य मङ्गल है ! ।। ७५ ॥ 


नमामि नारायणपादपङ्कजं करोमि नारायणपूजनं सदा।

वदामि नारायणनाम निर्मलं स्मरामि नारायणतत्त्वमव्ययम्॥७६॥*

मैं नारायणके चरणारविन्दोंको नमस्कार करता हूँ, नारायणहीकी नित्य पूजा करता हूँ, नारायणके निर्मल नामका उच्चारण करता हूँ और नारायणके अव्यय तत्त्वका स्मरण करता हूँ॥ ७६ ॥

श्रीपाण्डवगीतायाम्, श्लो० २४, २९(वि० पु० २ । १३), ३८, ४१-४२ (वि० पु० १ । २० । १८-१९), ४४, ६० ।


नारायणेति मन्त्रोऽस्ति वागस्ति वशवर्तिनी।

तथापि नरके घोरे पतन्तीत्येतदद्भुतम्॥७७॥

नारायणरूप मन्त्रके रहते हुए और वाणीके स्ववश रहते हुए भी लोग नरकमें गिरते हैं-यह बड़ा आश्चर्य है ! ॥ ७७॥


आलोड्य सर्वशास्त्राणि विचार्यैवं पुनः पुनः।

इदमेकं सुनिष्पन्न ध्येयो नारायणः सदा॥७८॥

 सभी शास्त्रोंका मन्थन करके, तदनुसार बारम्बार विचार करके, यही सार निकला है कि-सदैव नारायणहीका ध्यान करना चाहिये॥ ७८ ॥ 


आकाशात्पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम्।

सर्वदेवनमस्कार: केशवं प्रति गच्छति॥७९॥*

(६४ संख्यादारभ्य ७९ संख्यापर्यन्तं श्रीपाण्डवगीतायाम् )

जैसे आकाशसे गिरा हुआ जल अन्तमें समुद्रमें ही जा मिलता है, उसी प्रकार सभी देवोंके प्रति किया हुआ नमस्कार भगवान् केशवके ही पास जा पहुँचता है॥ ७९ ॥ 


श्रीवल्लभेति वरदेति दयापरेति

भक्तप्रियेति भवलुण्ठनकोविदेति।

नाथेति नागशयनेति जगन्निवासे-

त्यालापिनं प्रतिदिनं कुरु मां मुकुन्द॥८॥

हे मुकुन्द ! मुझे ऐसा बनाइये कि मैं-'हे रमानाथ! हे वरदाता! दयापरायण, भक्तप्रेमी, आवागमनको छुड़ानेमें चतुर, नाथ, शेषशायी, जगदाधार!'-इस प्रकार निरन्तर बोलता रहूँ॥ ८० ॥ 


नाहं वन्दे तव चरणयोर्द्वन्द्वमद्वन्द्वहेतोः

कुम्भीपाकं गुरुमपि हरे नारकं नापनेतुम्।

रम्या रामा मृदुतनुलता नन्दने नापि रन्तुं

भावे भावे हृदयभवने भावयेयं भवन्तम्॥८१॥

हे हरे! मैं आपके चरणयुगलमें इसलिये नमस्कार नहीं करता हूँ कि मेरे द्वन्द्व (शीतोष्णादि) नाश हों, कुम्भीपाकादि बड़े-बड़े नरकोंसे बचा रहूँ और नन्दनवनमें कोमलाङ्गी अप्सराओंके साथ रमण करूँ; अपितु इसलिये कि मैं सदा हृदय- मन्दिरमें आपकी ही भावना करता रहूँ ।। ८१ ॥

श्रीपाण्डवगीतायाम्, श्लो० ६२, ७३(नरसिंहपु० ६४।७७), ८० ।

+ श्रीमुकुन्दमालायाम्, श्लो० २, ६।


नास्था धर्मे न वसुनिचये नैव कामोपभोगे

यद्यद्भव्यं भवतु भगवन्पूर्वकर्मानुरूपम्।

एतत्प्रार्थ्य मम बहु मतं जन्मजन्मान्तरेऽपि

त्वत्पादाम्भोरुहयुगगता निश्चला भक्तिरस्तु॥८२॥*

हे भगवन् ! मैं धर्म, धन-संग्रह और कामभोगकी आशा नहीं रखता, पूर्वकर्मानुसार जो कुछ होना हो सो हो जाय, पर मेरी यही बार-बार प्रार्थना है कि जन्म-जन्मान्तरोंमें भी आपके चरणारविन्द-युगलमें मेरी निश्चल भक्ति बनी रहे ॥ ८२ ॥ 


दिवि वा भुवि वा ममास्तु वासो नरके वा नरकान्तक प्रकामम्।

अवधीरितशारदारविन्दौ चरणौ ते मरणेऽपि चिन्तयामि॥८३॥*

हे नरकनाशक! मैं स्वर्ग, पृथ्वी या नरकमें ही क्यों न रहूँ, किन्तु शरत्कालीन कमलको तिरस्कृत करनेवाले आपके चरण-युगलको मरते समय भी याद करता रहूँ॥ ८३॥ 


भवजलधिमगाधं दुस्तरं निस्तरेयं

कथमहमिति चेतो मा स्म गाः कातरत्वम्।

सरसिजदृशि देवे तावकी भक्तिरेका

नरकभिदि निषण्णा तारयिष्यत्यवश्यम्॥८४॥*

हे मन! मैं इस अथाह और दुस्तर भवसागरको कैसे पार करूँगा?-इस चिन्तासे कातर मत हो। क्योंकि कमललोचन देवमें जो तुम्हारी ऐकान्तिकी भक्ति बनी हुई है, वह तुम्हें अवश्य ही पार पहुँचावेगी॥ ८४ ॥


तृष्णातोये मदनपवनोद्भूतमोहोर्मिमाले

दारावर्ते तनयसहजग्राहसङ्घाकुले च।

संसाराख्ये महति जलधौ मज्जतां नस्त्रिधामन

पादाम्भोजे वरद भवतो भक्तिभावं प्रदेहि॥८५॥*

हे सर्वव्यापी! हे वरदाता ! तृष्णारूपी जल, कामरूपी आँधीसे उठी हुई मोहमयी तरङ्गमाला, स्त्रीरूप भँवर और भाई-पुत्ररूपी ग्राहोंसे भरे हुए इस संसाररूपी महान् समुद्रमें डूबते हुए हमलोगोंको अपने चरणारविन्दकी भक्ति दीजिये॥ ८५॥ 


आम्नायाभ्यसनान्यरण्यरुदितं वेदव्रतान्यन्वहं

मेदश्छेदफलानि पूर्तविधयः सर्वं हुतं भस्मनि।

तीर्थानामवगाहनानि च गजस्नानं विना यत्पद-

द्वन्द्वाम्भोरुहसंस्मृति विजयते देवः स नारायणः॥८६॥*

जिस भगवान्के चरण-युगलोंका स्मरण किये बिना वेदाभ्यास अरण्यरोदन, व्रत शरीरशोषणमात्र, कर्मकाण्ड भस्ममें दी हुईआहुतिके समान और तीर्थस्नान गजस्नानके समान ही निरर्थक रह जाते हैं, ऐसे नारायणदेवकी बलिहारी है॥८६॥

श्रीमुकुन्दमालायाम्, श्लो०७-८, १७-१८ ।


भवजलधिगतानां द्वन्द्ववाताहतानां

सुतदुहितृकलत्रत्राणभारादितानाम् ।

विषमविषयतोये मज्जतामप्लवानां

भवतु शरणमेको विष्णुपोतो नराणाम्॥८७॥*

 जो संसारसागरमें गिरे हुए हैं, [सुख-दु:खादि] द्वन्द्वरूपी वायुसे आहत हो रहे हैं, पुत्र-पुत्री, स्त्री आदिके पालन-पोषणके भारसे आर्त्त हैं और विषयरूपी विषम जलराशिमें बिना नौकाके डूब रहे हैं, उन पुरुषोंके लिये एकमात्र जहाजरूप भगवान् विष्णु ही शरण हों॥ ८७॥ 


आनन्द गोविन्द मुकुन्द राम नारायणानन्त निरामयेति।

वक्तुं समर्थोऽपि न वक्ति कश्चिदहो जनानां व्यसनानि मोक्षे॥८८॥*

आश्चर्य है कि लोगोंको मोक्षकी ओर जानेमें बाधाएँ उपस्थित होती हैं, जो कि बोलनेमें समर्थ होनेपर भी कोई आनन्द, गोविन्द, मुकुन्द, राम, नारायण, अनन्त, निरामय-इस प्रकार नहीं पुकारते ॥ ८८ ॥


क्षीरसागरतरङ्गसीकरासारतारकितचारुमूर्तये ।

भोगिभोगशयनीयशायिने माधवाय मधुविद्विषे नमः॥८९॥*

क्षीरसागरकी तरङ्गोंके छींटोंकी वर्षासे जिनकी श्यामल मूर्ति ताराओंसे आवृत हुई- सी अत्यन्त सुन्दर प्रतीत होती है तथा जो शेषनागके शरीररूपी शय्यापर शयन करते हैं, उन मधुसूदन भगवान् माधवको नमस्कार हो॥ ८९ ॥ 


प्रभो वेङ्कटेश प्रभा भूयसी ते तमः संछिनत्ति प्रदेशे ह्यशेषे।

अहो मे हृदद्रेर्गुहागूढमन्धन्तमो नैति नाशंकिमेतन्निदानम्॥९०॥

हे वेङ्कटेश्वर स्वामिन् ! आपकी मात्रामें फैली हुई प्रभा सारे संसारके अन्धकारका नाश करती है; किन्तु आश्चर्य है कि मेरे हृदयाचलकी गुहामें छिपा हुआ अन्धकार नष्ट नहीं होता है, इसका क्या कारण है? ॥ ९० ॥ 


कदा शृङ्गैः स्फीते मुनिगणपरीते हिमनगे

द्रुमावीते शीते सुरमधुरगीते प्रतिवसन्।

क्वचिद्धयानासक्तो विषयसुविविक्तो भवहर

स्मरंस्ते पादाब्ज जनिहर समेष्यामि विलयम्॥९१॥* 

हे संसारतापहारिन् ! हे पुनर्जन्मसे छुड़ानेवाले! [ऊँची-ऊँची] चोटियोंसे बड़े प्रतीत होनेवाले, वृक्षोंसे घिरे हुए, देवोंके मधुर संगीतसे सुशोभित प्रचुरऔर मुनिगणोंसे सेवित ठंढे हिमालयमें निवास करता हुआ कहीं विषयोंसे विरक्त और ध्यानमें मग्न होकर, आपके चरणारविन्दोंका स्मरण करता हुआ मैं कब तन्मय हो जाऊँगा?॥ ९१॥ 

श्रीमुकुन्दमालायाम्, श्लो० २०, ११, २१, २२ ।

+ स्वामिनोऽनन्ताचार्यस्य वेङ्कटेशक्षमास्तोत्रात्।


यन्नामकीर्तनपरः श्वपचोऽपि नूनं

हित्वाखिलं कलिमलं भुवन पुनाति।

दग्ध्वा ममाघमखिलं करुणेक्षणेन

दृग्गोचरो भवतु मेऽद्य दीनबन्धुः॥१२॥

जिनके नाम-कीर्तनमें तत्पर चाण्डाल भी अपने समस्त कलिमलका नाश करके सम्पूर्ण संसारको निश्चय ही पवित्र कर देता है, वे दीनबन्धु हमारे सभी पापोंको अपनी दया-दृष्टिसे भस्म करके, मेरी आँखोंके सामने प्रकट हों॥ ९२॥ 


सर्ववेदमयी गीता सर्वधर्ममयो मनुः।

सर्वतीर्थमयी गङ्गा सर्वदेवमयो हरिः॥९३॥

गीता सर्ववेदमयी है, मनुस्मृति सर्वधर्ममयी है, गङ्गा सर्वतीर्थमयी है और भगवान् हरि सर्वदेवमय हैं ॥ ९३ ॥


वेदे रामायणे चैव पुराणे भारते तथा।

आदौ मध्ये तथा चान्ते हरिः सर्वत्र गीयते॥९४॥

वेद, रामायण, पुराण और महाभारत-इन सभीके आदि, मध्य और अन्तमें सब जगह भगवान्हीका गुणानुवाद है॥ ९४॥ 


नेदं नभोमण्डलमम्बुराशि¥ताश्च तारा नवफेनभङ्गाः।

नायं शशी कुण्डलितः फणीन्द्रो नायं कलङ्कः शयितो मुरारिः॥९५॥

यह आकाश नहीं, समुद्र है; ये तारागण नहीं, समुद्र- फेनके कण हैं; यह चन्द्रमण्डल नहीं, कुण्डलाकार बैठे हुए शेषजी हैं और (चन्द्रविम्बमें) ये धब्बे नहीं, सोये हुए विष्णु ही हैं॥ ९५ ॥ 


अरे भज हरेर्नाम क्षेमधाम क्षणे क्षणे।

बहिस्सरति निःश्वासे विश्वासः प्रवर्तते॥९६॥+

अरे उस प्रेम-धाम हरिका नाम भज, [क्षण- क्षणमें] बाहर निकलनेवाले श्वासपर क्या विश्वास है?॥ ९६॥

महाभारते १८।६।९३।

$ चौरकविविल्हणस्य।

+ गुरुकौमुद्याम्।


कदा प्रेमोद्दारैः पुलकिततनुः साश्रुनयनः

स्मरन्नुच्चैः प्रीत्या शिथिलहृदयो गद्गदगिरा।

अये श्रीमन्विष्णो बी रघुवर यदूत्तंस नृहरे

प्रसीदेत्याक्रोशन् निमिषमिव नेष्यामि दिवसान्॥ ९७ ॥

प्रेमोद्गारोंसे पुलकितशरीर, सजलनयन और प्रेमसे शिथिलहृदय होकर गद्गद वाणीसे, 'हे श्रीमन् विष्णो! हे रघुवर! हे यदुवंशभूषण! हे नृसिंह! प्रसन्न होइये'-ऐसा उच्चस्वरसे कहता हुआ, मैं अपने दिनोंको क्षणके समान कब बिताऊँगा? ॥ ९७॥ 


तपन्तु तापैः प्रपतन्तु पर्वतादटन्तु तीर्थानि पठन्तु चागमान्।

यजन्तु यागैर्विवदन्तु वादैर्हरिं विना नैव मृतिं तरन्ति ॥ ९८ ॥*

चाहे कोई तप करे, पर्वतोंसे गिरे, तीर्थों में भ्रमण करे, शास्त्र पढ़े, यज्ञ-यागादि करे अथवा तर्क-वितर्कोद्वारा विवाद करे, परन्तु श्रीहरि (की कृपा) के बिना कोई भी मृत्युको नहीं पार कर सकता॥ ९८ ॥ 


अभिमानं सुरापानं गौरवं रौरवं समम्।

प्रतिष्ठा सूकरीविष्ठा त्रयं. त्यक्त्वा हरि भजेत्॥ ९९ ॥

अभिमान मद्यपानके समान है, गौरव (बड़प्पन) रौरवनरकके तुल्य है और प्रतिष्ठा (मान-बड़ाई) सूकर- विष्ठाके सदृश है; अतः इन तीनोंको त्यागकर हरिका भजन करे ॥ ९९॥ 


संसारसागरं घोरमनन्तं क्लेश भाजनम। 

त्वामेव शरणं प्राप्य निस्तरन्ति मनीषिणः॥१००॥

ज्ञानीजन आपकी ही शरण लेकर इस अपार दुःखमय भयङ्कर संसार-सागरसे पार हो जाते हैं।॥ १०० ॥ 


न ते रूपं न चाकारो नायुधानि न चास्पदम्।

तथापि पुरुषाकारो भक्तानां त्वं प्रकाशसे॥१०१॥

वस्तुतः आपका कोई रूप, आकार, आयुध और स्थान नहीं है तो भी भक्तोंके लिये आप पुरुषरूपमें प्रकट होते हैं ॥ १०१॥ 


किं पाद्यं पदपङ्कजे समुचितं यत्रोद्भवा जाह्नवी

किं वायँ मुनिपूजिते शिरसि ते भक्तयाहृतं साम्प्रतम्।

किं पुष्पं त्वयि शोभनं व्रजपते सत्पारिजातार्चिते

किं स्तोत्रं गुणसागरे त्वयि हरे केनार्चयेत्त्वां नरः॥१०२॥

जिन चरणोंसे पुण्यसलिला भागीरथीका उद्भव हुआ है, उनको पाद्यरूपसे क्या देना उचित है ? जिस आपके मस्तकका मुनिजनोंने पूजन किया है, अब उसपर भक्तिपूर्वक अर्घ्य किसका दें?और हे व्रजराज! कल्पतरुके सुन्दर पुष्पोंसे पूजित आपको पुष्पाञ्जलि किसकी दें? तथा हे गुणोंके सागर हरे! आपका स्तवन भी कैसे करें? तो फिर कहिये, मनुष्य आपका पूजन किस प्रकार करे! ॥ १०२॥ 

* श्रीधरस्य।

+ महापुरुषविद्यायाम्।


माता च कमला देवी पिता देवो जनार्दनः।

बान्धवा विष्णुभक्ताश्च स्वदेशो भुवनत्रयम॥१०३॥

मेरी माता श्रीलक्ष्मीजी हैं, पिता विष्णुभगवान् हैं, बन्धुजन भगवद्भक्त हैं और सम्पूर्ण त्रिभुवन मेरा स्वदेश है॥ १०३॥ 


केचिद् वदन्ति धनहीनजनो जघन्यः

केचिद् वदन्ति गुणहीनजनो जघन्यः।

व्यासो वदत्यखिलवेदविशेषविज्ञो

नारायणस्मरणहीनजनो जघन्यः॥१०४॥

कोई तो धनहीनमनुष्यको नीच कहते हैं और कोई गुणहीनको नीच बतलाते हैं; किन्तु सम्पूर्ण वेदोंके विशेष ज्ञाता श्रीवेदव्यासजी तो हरिस्मरणहीन पुरुषको ही नीच कहते हैं ॥ १०४॥


त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।

त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देवदेव॥१०५॥

हे देवदेव! तुम ही मेरी माता हो, तुम ही पिता हो, तुम ही बन्धु हो, तुम ही सखा हो, तुम ही विद्या हो, तुम ही धन हो और तुम ही मेरे सर्वस्व हो॥ १०५॥ 


शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं

विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण शुभाङ्गम्।

लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं

वन्दे विष्णु भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्॥१०६॥

सर्वलोकोंके एकमात्र स्वामी भवभयहारी भगवान् विष्णुकी वन्दना करता हूँ, जो शान्तस्वरूप हैं, शेषशायी हैं, कमलनाभ और सुरेश्वर हैं, जो विश्वके आधार, आकाशके समान निर्लेप मेघवर्ण और सुन्दर शरीरवाले हैं तथा जो लक्ष्मीजीके आनन्दवर्धक, कमलनयन और योगियोंके द्वारा ध्यानगम्य हैं॥ १०६॥

* चाणक्यनीतेः।

+श्रीधरस्य व्रजविहारात्।

+ पाण्डवगीतायाम् २८।

श्रीविष्णुसूक्ति- विष्णु स्तुति मंत्र श्लोक/lord vishnu slokas

सशङ्खचक्रं सकिरीटकुण्डलं सपीतवस्त्रं सरसीरुहेक्षणम्।

सहारवक्षःस्थलकौस्तुभश्रियं नमामि विष्णुं शिरसा चतुर्भुजम्॥१०७ ॥

उन चतुर्भुज भगवान् विष्णुको मैं सिरसे प्रणाम करता हूँ, जो शङ्क-चक्र धारण किये हैं, किरीट और कुण्डलोंसे विभूषित हैं, पीताम्बर ओढ़े हुए हैं, सुन्दर कमल-से जिनके नेत्र हैं और जिनके वक्षःस्थलमें वनमालासहित कौस्तुभमणिकी अनूठी शोभा है॥ १०७॥ 


जले विष्णुः स्थले विष्णुर्विष्णुः पर्वतमस्तके।

ज्वालामालाकुले विष्णुः सर्व विष्णुमयं जगत्॥१०८॥*

जलमें, स्थलमें, पर्वतशिखरोंमें और ज्वालामालाओं में सर्वत्र विष्णु विराजमान हैं, समस्त जगत् विष्णुमय है ॥ १०८॥ 


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै-

वेदैः साङ्गपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगाः।

ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो

यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः॥१०९॥

ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र, रुद्र और मरुद्रण जिनका दिव्य स्तोत्रोंसे स्तवन करते हैं, सामगान करनेवाले लोग अङ्ग, पद, क्रम और उपनिषदोंके सहित वेदोंसे जिनका गान करते हैं, ध्यानमग्न एवं तल्लीनचित्तसे योगी जिनका साक्षात्कार करते हैं और जिनका पार सुर और असुर कोई भी नहीं पाते, उन भगवान्को नमस्कार है॥ १०९॥ 


केचित्स्वदेहान्तर्हदयावकाशे प्रादेशमात्रं पुरुषं वसन्तम्।

चतुर्भुज कञ्जरथाङ्गशङ्खगदाधरं धारणया स्मरन्ति ॥११०

कोई- कोई अपने देहके भीतर चित्ताकाशमें विराजमान प्रादेशमात्र (बित्ताभरके ) चतुर्भुज पुरुषको, जो शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये हुए हैं, धारणाद्वारा स्मरण करते हैं ॥ ११०॥ 


प्रसन्नवक्त्रं नलिनायतेक्षणं कदम्बकिञ्जलकपिशङ्गवाससम्।

लसन्महारत्नहिरण्यमयाङ्गदं स्फुरन्महारत्नकिरीटकुण्डलम्॥१११॥

जो प्रसन्नवदन हैं, कमलके समान विशाल लोचन हैं, कदम्बकेसरके सदृश पीताम्बर ओढ़े हुए हैं, जिनके रत्नखचित स्वर्णमय भुजबन्द सुशोभित हैं तथा बहुमूल्य रत्नमय किरीट और कुण्डल देदीप्यमान हो रहे हैं, १११॥ 


ब्रह्माण्डपुराणे विष्णुपञ्जरस्तोत्रात् ।

+ श्रीमद्भा० १२॥ १३॥ १; २।२।८-९।

१ पाठान्तरम्-हृदोऽवकाशे।


उन्निद्रहृत्पङ्कजकर्णिकालये योगेश्वरास्थापितपादपल्लवम्।
श्रीलक्ष्मणं कौस्तुभरत्नकन्धरमम्लानलक्ष्या वनमालयाञ्चितम्॥११२॥*

जिनके चरण-कमलोंको योगीश्वरोंने अपने हृदयरूप खिले हुए कमलकोषमें स्थापित कर रखा है, जो श्रीवत्सचिह्नको धारण किये रहते हैं, कौस्तुभमणिसे जिनकी ग्रीवा सुशोभित हो रही है और जो अमन्द कान्तिमयी वनमालासे सुशोभित होते हैं॥ ११२॥


विभूषितं मेखलयाङ्गुलीयकैर्महाधनैर्नूपुरकङ्कणादिभिः।
स्निग्धामलाकुञ्चितनीलकुन्तलैर्विरोचमानाननहासपेशलम् ॥११३॥*

जो मेखला, अङ्गुलीय (अँगूठी), महामूल्य नूपुर और कङ्कणादिसे विभूषित हैं, अत्यन्त चिकने, स्वच्छ, घुघराले, काले-काले बालोंसे जिनका मन्द मुसकानयुक्त मधुर मुख शोभा पा रहा है॥ ११३॥ 


अदीनलीलाहसितेक्षणोल्लसद्भूभङ्गसंसूचितभूर्यनुग्रहम्
ईक्षेत चिन्तामयमेनमीश्वरं यावन्मनो धारणयावतिष्ठते॥११४॥*

उदार लीलामयी मुसकान और चितवनके द्वारा उल्लसित भ्रूभङ्गीसे जिनका भारी अनुग्रह सूचित हो रहा है, ऐसे ध्यानमय प्रभुको तबतक देखते रहना चाहिये, जबतक धारणाके द्वारा चित्त स्थिर न हो॥ ११४॥ 


प्रसादाभिमुखं शश्वत्प्रसन्नवदनेक्षणम्।
सुनासं सुभ्रुवं चारुकपोलं सुरसुन्दरम्॥११५॥*

जो सदा कृपा करनेको उद्यत रहते हैं, प्रसन्नमुख और प्रसन्ननयन हैं, जिनकी नासिका, भौंहें और कपोल अतिसुन्दर हैं और समस्त देवताओंमें जो मनोहर हैं ॥ ११५॥ 


तरुणं रमणीयाङ्गमरुणोष्ठेक्षाणाधरम्।
प्रणताश्रयणं नृम्णं शरण्यं करुणार्णवम्॥११६॥*

जो तरुण हैं, कमनीयकलेवर हैं, जिनके ओष्ठ, अधर और नेत्र अरुण हैं, जो शीश झुकानेवालोंको आश्रय देनेवाले, अपार सुखदायक, शरणागतवत्सल और करुणाके सागर हैं॥ ११६॥ 


श्रीवत्साकम  घनश्याम पुरुष वनमालिनम्।
शङ्खचक्रगदापौरभिव्यक्तचतुर्भुजम् ११७॥*

जिनके वक्षःस्थलमें श्रीवत्सचिह्न है, जो घनश्याम हैं, परमपुरुष हैं, वनमालाधारी हैं, शङ्ख, चक्र, गदा और पद्मयुक्त जिनकी चार भुजाएँ हैं ॥ ११७॥ 


किरीटिनं कुण्डलिनं केयूरवनमालिनम्।
कौस्तुभाभरणग्रीवं पीतकौशेयवाससम्॥११८॥*

जिन्होंने किरीट, कुण्डल, केयूर, वनमाला, गलेमें कौस्तुभमणिरूप आभूषण तथा रेशमी पीताम्बर धारण कर रखा है ॥११८ ॥
* श्रीमद्भा० २।२।१०, ११, १२,४।८।४५-४८।

श्रीविष्णुसूक्ति- विष्णु स्तुति मंत्र श्लोक/lord vishnu slokas

भगवान् सर्वभूतेषु लक्षितः स्वात्मना हरिः।

दृश्यैर्बुद्धयादिभिर्द्रष्टा लक्षणैरनुमापकैः॥१२६॥*

बुद्धि आदि दृश्यरूप अनुमान करनेवाले लक्षणोंके द्वारा, द्रष्टा भगवान् समस्त प्राणियोंमें आत्मरूपसे लक्षित होते हैं ॥ १२६॥ 


तस्मात्सर्वात्मना राजन्हरिः सर्वत्र सर्वदा।

श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च स्मर्तव्यो भगवान्नृणाम्॥१२७॥*

अत: हे राजन् ! भगवान् हरि मनुष्योंके द्वारा सर्वथा सर्वत्र सर्वदा श्रवणीय, कीर्तनीय और स्मरणीय हैं ॥ १२७॥


यत्कीर्तनं यत्स्मरणं यदीक्षणं यद्वन्दनं यच्छ्रवणं यदहणम्।

लोकस्य सद्यो विधुनोति कल्मषं तस्मै सुभद्रश्रवसे नमो नमः॥१२८॥*

 उन कल्याणकीर्ति भगवान्को नमस्कार है, जिनका कीर्तन, स्मरण, दर्शन, वन्दन, श्रवण और पूजन लोकके उत्कट पापोंका भी शीघ्र ध्वंस कर देता है ॥ १२८ ॥ 


तपस्विनो दानपरा यशस्विनो मनस्विनो मन्त्रविदः सुमङ्गलाः।

क्षेमं न विन्दन्ति विना यदर्पणं तस्मै सुभद्रश्रवसे नमो नमः॥१२९॥*

जिनको अर्पण किये बिना मङ्गलमय तपस्वी, दानी, यशस्वी, मनस्वी और मन्त्रवेत्ता किसी सुखको नहीं प्राप्त कर सकते, उन कल्याणकीर्ति भगवान्को नमस्कार है। १२९॥ 


किरातहूणान्ध्रपुलिन्दपुल्कसा आभीरकङ्का यवनाः खशादयः।

येऽन्ये च पापा यदपाश्रयाश्रयाः शुध्यन्ति तस्मै प्रभविष्णवे नमः॥१३०॥*

किरात, हूण, आन्ध्र, पुलिन्द, पुल्कस, आभीर, कङ्क, यवन और खश तथा अन्य पापीजन भी जिनके आश्रयसे शुद्ध हो जाते हैं, उन भगवान् विष्णुको नमस्कार है ॥ १३० ॥ 


ग्राहग्रस्ते गजेन्द्रे रुदति सरभसं ता_मारुह्य धावन्

व्याघूर्णन् माल्यभूषावसनपरिकरो मेघगम्भीरघोषः।

आबिभ्राणो रथाङ्गं शरमसिमभयं शङ्खचापौ सखेटौ

हस्तैः कौमोदकीमप्यवतु हरिरसावंहसां संहतेनः॥१३१॥

ग्राहसे ग्रस्त होकर गजेन्द्रके रोनेपर हाथों में चक्र, शर, तलवार, अभय, शङ्ख, चाप, भाला और कौमोदकी गदा धारण करके मेघकी- सी गम्भीर गर्जना करते हुए जो गरुड़पर चढ़कर शीघ्रतासे दौड़ पड़े और उस समय उतावालीके कारण जिनके हार, भूषण, कमरबन्द आदि तितर-बितर हो गये थे, वे भगवान् विष्णु हमारी पापसमूहसे रक्षा करें॥ १३१॥

* श्रीमद्भा० २।२। ३५-३६; २।४।१५, १७-१८।२।४।


नक्रानान्ते करीन्द्रे मुकुलितनयने मूलमूलेति खिन्ने

नाहं नाहं न चाहं न च भवति पुनर्मादृशस्त्वादृशेषु।

इत्येवं त्यक्तहस्ते सपदि सुरगणे भावशून्ये समस्ते

मूलं यत्प्रादुरासीत्स दिशतु भगवान् मङ्गलं सन्ततं नः॥१३२॥

जब गजेन्द्र ग्राहके द्वारा आक्रान्त हो आँखें मीचकर दुखी हो हे विश्वके मूलाधार! [मेरी रक्षा करो] ' इस प्रकार पुकारने लगा, उस समय 'तुम्हारे-जैसे महाविपन्नोंकी रक्षा करनेको मैं नहीं! मैं भी नहीं!! और मैं भी नहीं समर्थ हूँ, ऐसा कहकर सहसा सब देवता हाथ छुड़ाकर भावशून्य हो गये, तब जो सर्वमूलाधार प्रकट हुआ वह हरि हमारा निरन्तर मङ्गल करे ॥ १३२॥ 


यं शैवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदान्तिनो

बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटवः कर्तेति नैयायिकाः।

अर्हन्नित्यथ जैनशासनरताः कर्मेति मीमांसकाः

सोऽयं नो विदधातु वाञ्छितफलं त्रैलोक्यनाथो हरिः॥१३३॥*

शैव जिसकी शिवरूपसे उपासना करते हैं, वेदान्ती ब्रह्मरूपसे, बौद्ध बुद्धरूपसे और प्रमाणकुशल नैयायिक जिसको कर्ता मानकर पूजते हैं, जैन जिन्हें अर्हत और मीमांसक कर्म बतलाते हैं, वह त्रैलोक्याधिपति भगवान् हमको वाञ्छित फल प्रदान करें॥ १३३ ॥ 


यत्र निर्लिप्तभावेन संसारे वर्तते गृही।

धर्म चरति निष्कामं तत्रैव रमते हरिः॥१३४॥

जहाँ गृहस्थ पुरुष संसारमें निर्लिप्तभावसे रहता हुआ धर्माचरण करता है, वहीं श्रीहरि विहार करते हैं ॥ १३४॥ 


लोकं शोकहतं वीक्ष्य हाहाकारसमाकुलम्।

अशोकं रे चेतस्तद्विष्णोः परमं पदम्॥१३५॥

हे चित्त! इस लोकको शोकसन्तप्त और हाहाकारसे व्याकुल देखकर, भगवान् विष्णुके उस शोकहीन परमपदको भज॥ १३५ ॥ 


जपो जल्पः शिल्पं सकलमपि मुद्राविरचना

गतिः प्रादक्षिण्यक्रमणमदनान्याहुतविधिः।

प्रणामः संवेश: सकलमिदमात्मार्पणविधौ

सपर्यापर्यायस्तव भवतु यन्मे विलसितम्॥१३६॥

हे भगवन् ! मेरा बोलना आपका जप हो, सब प्रकारकी शिल्प (हाथकी कारीगरी) मुद्रा रचना हो, चलना-फिरना प्रदक्षिणा हो; भोजन करना हवनक्रिया हो और शयन करना प्रणाम हो; इस प्रकार मेरी सभी चेष्टाएँ आत्मार्पणविधिमें आपकी पूजारूप ही हों॥ १३६ ॥

श्रीहनुमन्नाटकात्। + श्रीताराकुमारस्य। श्रीशङ्कराचार्यस्य।


श्रीविष्णुसूक्ति- विष्णु स्तुति मंत्र श्लोक/lord vishnu slokas


Ads Atas Artikel

Ads Center 1

Ads Center 2

Ads Center 3