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(हीरे नहीं, कंकड़)
विजयनगर के एक राजा थे। नाम था उनका कृष्णदेव राय। कृष्णदेव राय के दरबार में एक राजगुरु थे। राजगुरु का नाम व्यासराय था।
उसी नगर में एक निर्धन ब्राह्मण सन्त दम्पति रहते थे। सन्त ब्राह्मण का नाम पुरन्दर दास था और उनकी पत्नी का नाम था-सरस्वती।
एक दिन प्रसंगवश राजगुरु व्यासराय ने सन्त पुरन्दरदास के सादा और लोभरहित जीवन का जिक्र कर दिया और उनकी बड़ी प्रशंसा की।
यह सनकर कृष्णदेव राय ने सन्त की परीक्षा लेने का विचार किया। फिर एक दिन सेवकों से कहा कि वे सन्त पुरन्दरदास को लिवा लायें।
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सेवक गये और सन्त पुरन्दरदास को लिवा लाये। कृष्णदेव राय ने उनको भिक्षा में चावल डाल दिये। सन्त बहुत प्रसन्न हुए और बोले-“महाराज! प्रतिदिन मेरे ऊपर ऐसी ही कृपा करते रहें।"
- भिक्षा लेकर घर पहुँचे तो पुरन्दरदास ने प्रतिदिन की तरह भिक्षा की झोली अपनी पत्नी को सौंप दी। सरस्वती जब चावल बीनने बैठी तो चावलों में छोटे-छोटे हीरे मिले हुए थे। पति से पूछा- “कहाँ से लाये हैं आज भिक्षा?"
पुरन्दरदास ने सहज स्वभाव से बता दिया-“राजमहल से।" सन्त पत्नी ने वे हीरे घर के पास के घूरे पर फेंक दिये।
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दूसरे दिन पुरन्दरदास भिक्षा लेने फिर राजमहल गये। वहाँ पहुँचे तो राजा को लगा कि सन्त के मुख पर हीरों की चमक है। उस दिन भी उन्होंने उनकी झोली में चावलों के साथ कुछ हीरे डाल दिये।
यह क्रम एक सप्ताह तक चलता रहा। सप्ताह समाप्त हुआ तो राजा ने व्यासराय से कहा-“राजगुरो! आप कहते थे कि पुरन्दरदास जैसा निर्लोभी अन्य कोई नहीं है।
पर मुझे तो उनका स्वभाव वैरागी-सा नहीं लगता। यदि मेरी बात का विश्वास न हो तो उनके घर चलकर सच्चाई को प्रत्यक्ष कर लीजिए।"
दोनों जने सन्त पुरन्दरदास की कुटिया के रास्ते पर चल पड़े। जब सन्त की कुटिया पर पहुँचे, उस समय लिपे-पुते आँगन में तुलसी के पौधे के पास बैठी सरस्वती देवी चावल बीन रही थी। राजा कृष्णदेव राय ने कहा-“बहन चावल बीन रही हो!"
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सरस्वती देवी ने कहा-“हाँ भाई, क्या करूँ, कोई भक्त भिक्षा में कंकड़ डाल देता है, इसलिए बीनना पड़ता है।
पतिदेव कहते हैं-मैं बिना देखे भिक्षा ले आता हूँ ताकि भिक्षा देने वाले का मन न दुखे। पर इन कंकड़ों को चुनने में मेरा बहुत समय व्यय होता है।"
राजा ने कहा-“बहन! धन्य है तुम्हारे भोलेपन को! अरी, ये कंकड़ नहीं हैं, ये तो मूल्यवान हीरे हैं।"
सरस्वती देवी बोली-“होंगे हीरे, हमारे लिए तो ये कंकड़ ही हैं। जब तक हमने धन को आधार मानकर जीवन जिया, तब तक हमारे लिए भी ये हीरे थे।
पर जब से हमने भगवान विठोवा को अपना आधार मानकर जीना शुरू किया है और धन से मोह तोड़ लिया है, ये हीरे हमारे लिए कंकड़ ही यह कहती हुई वह उन हीरों को घूरे पर डाल आई वहीं जहाँ पहले डाले हुए हीरे जगमगा रहे थे।
यह देख व्यासराय के मुख पर मन्द-मन्द मुस्कुराहट फैल गई और राजा कृष्णदेव राय ने सरस्वती देवी के चरणों में सिर झुका दिया।
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