F bhagwat katha hindi mai भागवत कथा-12 (श्रीमद्भागवत महापुराण का संक्षिप्त हिंदी अनुवाद) - bhagwat kathanak
bhagwat katha hindi mai भागवत कथा-12 (श्रीमद्भागवत महापुराण का संक्षिप्त हिंदी अनुवाद)

bhagwat katha sikhe

bhagwat katha hindi mai भागवत कथा-12 (श्रीमद्भागवत महापुराण का संक्षिप्त हिंदी अनुवाद)

bhagwat katha hindi mai भागवत कथा-12 (श्रीमद्भागवत महापुराण का संक्षिप्त हिंदी अनुवाद)

 bhagwat katha hindi mai भागवत कथा-12 (श्रीमद्भागवत महापुराण का संक्षिप्त हिंदी अनुवाद)

bhagwat katha hindi mai भागवत कथा-12 (श्रीमद्भागवत महापुराण का संक्षिप्त हिंदी अनुवाद)

गोकर्णजी तीर्थयात्रा से लौटकर घर आये तो कुछ दिनों के बाद धुंधुकारी की मृत्यु की बात उन्हें भी मालूम हो गयी। गोकर्ण ने धुंधुकारी को अपना भाई समझ घर पर श्राद्ध किया । गया में पिण्डदान एवं तर्पण किया। प्रेतशिला गया में प्रेत योनि का श्राद्ध होता है। धर्मारण्य में भी पिण्डदान किया जाता है। अतः पितरों को सद्गति के लिए सही कर्मकांडी से पिण्डदान कराना चाहिए । गोकर्ण द्वारा श्राद्धकर्म करने के बाद भी धुंधुकारी की प्रेतयोनि नहीं बदली । 

एक दिन गोकर्णजी अपने आंगन में सोये थे। धुंधुकारी बवंडर के रूप में आया । वह कभी हाथी, कभी घोड़ा और कभी भेंड़ का रूप बनाकर गोकर्ण के पास खड़ा हो जाता। गोकर्ण ने धैर्य से पूछा- "तुम कौन हो ? प्रेत हो, पिशाच हो, क्या हो

वह संकेत से बताया कि इसी स्थान पर मारकर उसे गाड़ा गया है। अन्यत्र ग्रन्थों में ऋषियों द्वारा कहा गया है कि गीता के ११वें अध्याय के ३६वें श्लोक का मंत्र सिद्ध कर एक हाथ से जल लेकर मंत्र पढ़कर प्रेतरोगी पर छींटा जाय तो अवरूद्ध पाणीवाला प्रेतरोगी बोलने लगता है। गोकर्ण ने भी मंत्र पढ़कर जल छिड़क दिया। जल का छींटा पड़ने से प्रेत धुंधुकारी बोलने लगा। उसने कहा- "

अहं भ्राता तवदीयोऽस्मि धुंधुकारीतिनामतः स्वकीयेनैव दोषेण ब्रह्मत्वं नाषितं मया'

मैं आपका भाई धुंधुकारी हू, अपने ही पाप-कर्म के कारण आज इस योनी को प्राप्त किया हू। वह धुंधकारी की व्यथा को सुनकर गोकर्ण रो पड़े। उन्होंने पूछा कि श्राद्ध करने के बाद भी तुम्हारी मुक्ति क्यों नहीं हुई तो धुंधकारी ने बताया कि मैंने इतने पाप किए हैं कि सैंकड़ों श्राद्ध से भी मेरा उद्धार नहीं हो सकता। उसने कोई दूसरा उपाय करने की बात कही। 

गोकर्ण ने कहा- 'दूसरा उपाय तो दुःसाध्य है। अभी तुम जहाँ से आये हो वहाँ लौट जाओ। मैं विचार करके दूसरा उपाय करूँगा।' विचार करने पर भी गोकर्ण को कोई भी उपाय नहीं सूझा । पंडितों ने भी कोई राह नहीं बतायी। फिर कोई उपाय न देख गोकर्ण जी ने सूर्यदेव की आराधना करते हुए सूर्य का स्तवन कर सूर्य से ही धुंधुकारी की मुक्ति हेतु प्रार्थना की।

तुभ्यं नमो जगत्साक्षिन् ब्रूहि मे मुक्तिहेतुकम्

सूर्य ने कहा कि भागवत सप्ताह के पारायण से ही मुक्ति होगी और दूसरा कोई उपाय नहीं है। इस प्रकार श्रीगोकर्ण ने स्वयं भागवत कथा का सप्ताह पाठ शुरू किया। शास्त्र वचन है कि स्वयं से कोई धार्मिक अनुष्ठान करने या करवाने पर फल अच्छा होता है। गोकर्ण द्वारा भागवत सप्ताह पारायण का आयोजन सुनकर बहुत लोग आने लगे । 

धुंधुकारी भी प्रेत योनि में रहकर भी कथा श्रवण के लिए स्थान खोजने लगा । वहीं एक बांस गाड़ा हुआ था । वह उसी बांस में बैठकर ( वायु रूप में) भागवत कथा श्रवण करने लगा। पहले दिन की कथा में ही बांस को एक पोर फट गया ।

एवं सप्तदिनैश्चैव सप्तगृन्थिविभेदनम्

इसप्रकार प्रतिदिन बांस का एक-एक पोर फटने लगा और सातवां दिन बांस का सातवां पोर फटते ही वह प्रेत धुंधुकारी ने प्रेतयोनि से मुक्ति पाकर और देवता के जैसे दिव्य स्वरूप में प्रकट होकर गोकर्ण को प्रणाम किया। इसप्रकार धुंधुकारी भागवत कथा श्रवण कर भगवान् के पार्षदों द्वारा लाये गये विमान में बैठकर दिव्य लोक में प्रस्थान कर गया ।

अत्रैव बहवः सन्ति श्रोतारो मम निर्मलाः आनीतानि विमानानि न तेषां युग यत्कुतः ।।

गोकर्णजी ने भगवान् के पार्षदों से पूछा कि अन्य श्रोताओं को धुंधुकारी जैसा फल क्यों नहीं प्राप्त हुआ, तो पार्षदों ने कहा कि हे महाराज  धुंधुकारी ने उपवास रखकर स्थिर चित्त से सप्ताह कथा को श्रवण किया है। ऐसा अन्य श्रोताओं ने नहीं किया है। इसीलिए फल में भेद हुआ है। भगवान् के पार्षद धुंधुकारी को विमान में बैठाकर गोलोक लेकर चले गये । 

वह गोकर्णजी ने श्रावण मास में पुरे नगरवासियों के कल्याण हेतु पुनः भागवत सप्ताह का प्रारम्भ की। इस बार सभी श्रोताओं ने उपवास व्रत एवं स्थिर चित्त से भागवत सप्ताह कथा का श्रवण किया। भगवान् विष्णु स्वयं प्रकट हो गये। सैंकड़ों विमान उनके साथ आ गये । 

भगवान् ने गोकर्ण को हृदय से लगाकर उन्हें अपना स्वरूप दे दिया। चारों तरफ जय-जयकार एवं शंख ध्वनि होने लगी। सभी श्रोता दिव्य स्वरूप पाकर विमानों पर सवार होकर गोलोक चले गये । भगवान् विष्णु गोकर्ण को अपने साथ विमान में लेकर गोलोक चले गये। विमान का मतलब-

"विगतं मानं यस्य इति विमानः"

यानी मान का नष्ट होना विमान है। यह सारा प्रकरण सुनाकर सनत्कुमार ने नारदजी से कहा कि हे नारदजी ! सप्ताह कथा के श्रवण के फल अनन्त हैं, उनका वर्णन संभव नहीं। जिन्होंने गोकर्ण द्वारा कही गयी सप्ताह कथा का श्रवण किया, उसे पुनः मातृ गर्भ की पीड़ा सहने का योग नहीं मिला । वायु - जल पीकर, पत्ते खाकर, कठोर तपस्या से, योग से जो गति नहीं मिलती, वह सब भागवत सप्ताह कथा श्रवण से प्राप्त हो जाती है। इस कथा से यह उपदेश मिलता है कि धुंधुकारी रूपी अहंकार को गोकर्णरूपी विवेक से भागवत कथा रूपी ज्ञान द्वारा शान्त या मुक्त किया जा सकता है।

 

वह मुनीश्वर शाण्डिल्य चित्रकुट पर इस पुण्य इतिहास को पढ़ते हुए परमानन्द में मग्न रहते हैं। पार्वण श्राद्ध में इसके पाठ से पितरों को अनन्त तृप्ति होती है। प्रतिदिन इसका श्रद्धापूर्वक पाठ करने से मनुष्य पुनः जन्म नहीं लेता। यह श्रीमद्भागवत कथा वेद-उपनिषद् का सार या रस ही है जैसे वृक्षों का सार या रस ही फल होता है । अतः ऐसी श्री भागवतकथा को सुनने से गंगास्नान, जीवनपर्यन्त तीर्थ यात्रा आदि करने का जो फल प्राप्त होता है वह फल केवल श्रीमद्भागवत सप्ताह सुनने से ही प्राप्त होता है।

भागवतकार श्रीव्यासजी ने भागवत पारायण को स्वान्तः सुखाय बताते हुए पारायण के कुछ नियम बताये हैं। भागवत की उसी विधि को एक बार श्रीसनत्कुमार ने भी श्री नारद जी को सप्ताह कथा की विधि का नियम बताया था । यदि किसी व्यक्ति को स्वतंत्र रूप से भागवत की कथा को सप्ताह रूप में श्रवण की क्षमता नहीं हो तो आठ सहायकों के साथ सप्ताह कथा श्रवण का समारोह आयोजित करना चाहिए और यदि संभव हो तो भागवत कथा अकेले करायें।

भागवत कथानक के सभी भागों कि लिस्ट देखें- 

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