barha peedam natwar bapu lyrics बर्हापीडं नटवरवपुः-श्लोकः-अन्वयः-व्याख्या
श्लोकः
बर्हापीडं नटवरवपुः कर्णयोः कर्णिकारं
विभ्रद् वासः कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम्।
रन्ध्रान् वेणोरधरसुधया पूरयन् गोपवृन्दैः
वन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद् गीतकीर्तिः॥
अन्वयः
गीतकीर्तिः (श्रीकृष्णः) नटवरवपुः (नर्तकश्रेष्ठस्य शरीरं) बर्हापीडं (मयूरपिच्छमयशिरोभूषणं), कर्णयोः कर्णिकारं (कर्णयोः कर्णिकारपुष्पे), कनककपिशं वासः (सुवर्णमिश्रितं पीताम्बरं), वैजयन्तीं च मालां (वैजयन्तीनामिकां मालां) विभ्रत् (धारयन्), वेणोः रन्ध्रान् अधरसुधया (अधरामृतैः) पूरयन् (पूर्णीकुर्वन्), गोपवृन्दैः (गोपगणैः सह) स्वपदरमणं (स्वकीयपदाभ्यां रमणीयं) वन्दारण्यं (वृन्दावनम्) प्राविशत् (प्रविष्टवान्)॥पदार्थाः
-बर्हापीडम्: मयूरपिच्छनिर्मितं शिरोभूषणम्।-नटवरवपुः: नर्तकश्रेष्ठस्य (श्रीकृष्णस्य) शरीरम्।
-कर्णयोः: कर्णद्वये।
- कर्णिकारम्: कर्णिकारपुष्पम् (एकं सुगन्धिपुष्पम्)।
- विभ्रत्: धारयन्।
- वासः: वस्त्रम्।
- कनककपिशम्: सुवर्णमिश्रितं पीतवर्णीयम्।
- वैजयन्तीम्: दिव्यमालाम् (विष्णोः प्रियां मालाम्)।
- च: और।
- मालाम्: हारम्।
- रन्ध्रान्: छिद्राणि।
- वेणोः: वंशीस्य।
-अधरसुधया: ओष्ठामृतेन।
-पूरयन्: परिपूर्णं कुर्वन्।
- गोपवृन्दैः: गोपालसमूहैः।
- वन्दारण्यम्: वृन्दावनम्।
- स्वपदरमणम्: स्वकीयचरणाभ्यां मनोहरम्।
- प्राविशत्: प्रविष्टवान्।
- गीतकीर्तिः: कीर्तिगानयुक्तः (श्रीकृष्णः)॥
व्याख्या
यह श्लोक श्रीकृष्ण के दिव्य रूप और लीलाओं का सजीव चित्रण करता है। बिल्वमङ्गल ठाकुर द्वारा रचित इस पद में श्रीकृष्ण को "गीतकीर्तिः" कहकर सम्बोधित किया गया है, जो उनकी गायन-कीर्ति और दिव्य प्रतिष्ठा को दर्शाता है।नटवरवपुः (नटश्रेष्ठ का शरीर) से सूचित होता है कि कृष्ण स्वयं लीलापुरुषोत्तम हैं, जो संसाररूपी रंगमंच पर अद्भुत नृत्य करते हैं। बर्हापीड (मोरपंख का मुकुट) उनकी बाललीला और वनचर छवि का प्रतीक है, जो उनके प्राकृतिक सौन्दर्य और आकर्षण को बढ़ाता है।
कर्णयोः कर्णिकारम् से उनके कर्णों की शोभा और प्रकृति से अभिन्नता व्यक्त होती है, क्योंकि कर्णिकार पुष्प वन्य सौन्दर्य का प्रतीक है। कनककपिश वस्त्र (पीताम्बर) उनके राजसी तेज और दिव्य वैभव को प्रकट करता है, जबकि वैजयन्ती माला (विष्णु की प्रिय माला) उनकी विष्णुत्व-सत्ता का सूचक है।
वेणु के रन्ध्रों को अधरसुधा (ओष्ठामृत) से पूरित करने का अलंकार उनकी मधुर बंशीध्वनि की माधुर्य-सृष्टि को दर्शाता है, जो समस्त प्राणियों के हृदय को आनन्दित कर देती है। गोपवृन्दैः सह का भाव यह है कि गोपगण उनकी लीला के सहयोगी और भक्ति के प्रतीक हैं।
अन्ततः "स्वपदरमणं वन्दारण्यं" (अपने चरणों से रमणीय वृन्दावन) में प्रवेश करने का प्रसंग उनकी लीलाभूमि के प्रति अगाध प्रेम और वात्सल्यभाव को उजागर करता है।
यह श्लोक श्रृंगार, वात्सल्य और भक्ति रस का समन्वय है, जहाँ प्रत्येक पदार्थ द्वैत और अद्वैत के संगम को सूचित करता है। कवि ने अलंकारों का सहज प्रयोग करके श्रीकृष्ण की सहज-सुन्दर छवि को चित्रित किया है—जैसे "अधरसुधया" में रूपक, "बर्हापीडं" में उपमा, और "गीतकीर्तिः" में विशेषणालंकार।
इस प्रकार, यह श्लोक न केवल श्रीकृष्ण की बाह्य शोभा, अपितु उनकी अन्तःसाधना और भक्तजनों के हृदय में बसने की क्षमता का महाकाव्यात्मक वर्णन है॥