राम कथा हिंदी में लिखी हुई- 10 ram katha hindi pdf
भगवान नारायण नारद जी को बंदर का मुख
प्रदान कर दिया। अच्छा नारद जी ने हरि का रूप मांगा था तो भगवान नारायण ने हरी का
रूप दिया। सज्जनों बंदर का एक नाम हरि भी है। और नारद जी का कल्याण भी इसी बंदर के
मुख से होना था इसलिए प्रभु ने नारद जी पर तो कृपा ही किया। यहां देवर्षि नारद
अपने आप को सबसे सुंदर समझते हुए उस राजाशील निधि के सभा में प्रवेश किये।
मुनि
हित कारन कृपा निधाना। दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना।।
सो चरित्र लखि काहुँ न पावा। नारद जानि सबहिं सिर नावा।।
सज्जनो यहां पर भगवान की कृपालुता
देखिए यद्यपि भगवान श्री हरि ने नारद जी को बंदर का मुख दिया है लेकिन वह बंदर का
मुख किसी और को नहीं दीख रहा सबको नारद जी का वास्तविक रूप ही दिख रहा है और सब ने
नारद जी को प्रणाम किया। नारद जी जाकर सबसे आगे ही बैठ गए मन ही मन देवर्षि बड़े
प्रसन्न होने लगे कि अब तो वह राजकुमारी मेरा ही वरण करेगी और दूसरे तरफ देखेगी भी
नहीं।
रहे
तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ।
वहां दो शिव जी के गण भी थे वह सब
भेद जानते थे और ब्राह्मण का भेष बनाकर वहीं बैठे हुए थे। शिव जी के गण नारद जी को
देखकर व्यंग वचन कहते कि इनकी सुंदरता तो अपार है राजकुमारी निश्चित ही इन्ही को
ही वरेगी। इधर जब राजकुमारी हाथ में वरमाला लेकर के आई और जैसे ही पहले दृष्टि
नारद जी पर पड़ी तो नारद जी का बंदर सा भयानक मुख देखा वह क्रोध से भर गई। तब वह
राजकुमारी दूसरी तरफ चली गई। जहां पर नारद जी बैठे थे उस तरफ तो उसने देखा भी
नहीं।
इसी समय भगवान श्री हरि भी राजा का
शरीर धारण कर वहां पर पहुंच गए। राजकुमारी ने हर्षित होकर उनके गले में जयमाला डाल
दी। लक्ष्मी नारायण भगवान दुल्हिन को ले गए। सारी राज मंडली निराश हो गई। नारद जी मोहित
होने के कारण जब उन्होंने देखा की राजकुमारी चली गई तो वह बहुत ही विकल हो गए, दुखी
हो गए।
तब शिवजी के गणों ने मुस्कुराकर के
कहा कि अरे नारद जी जाकर दर्पण में अपना मुख तो देख लो कि आप कितने सुंदर हो? नारद
मुनि ने जल में जाकर अपना मुख देखा तो अपना रूप बंदर सा देखकर उनका क्रोध सातवें
आसमान पर चढ गया। उन्होंने शिव जी के उन दोनों गणों को अत्यंत कठोर श्राप दे दिया
कि तुम दोनों कपटी और पापी जाकर राक्षस हो जाओ। तुमने हमारी हंसी की उसका फल चखो। रुद्र
गणों को श्राप देकर के भी उनका क्रोध शांत नहीं हुआ तब वह सीधे भगवान नारायण के
पास जा पहुंचे-
फरकत
अधर कोप मन माहीं। सपदि चले कमलापति पाहीं।।
देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई। जगत मोरि उपहास कराई।।
नारद जी मन में सोचते जाते हैं जाकर
के या तो श्राप दे दूंगा या प्राण दे दूंगा जगत में मेरी हंसी कराई है नारायण ने।
थोड़ी ही दूर में श्री हरि नारद जी को मिल जाते हैं, उन्होंने बड़ी मीठी
वाणी से कहा कि अरे नारद जी ऐसे व्याकुल होकर कहां जा रहे हैं? नारद जी इस प्रकार के वचन सुनकर आग बबूला हो गए। कहने लगे हे हरि तुम्हें
मैं जान गया तुम बड़े कपटी हो। तुम दूसरों की संपदा नहीं देख सकते। तुम्हारे अंदर
ईर्ष्या कपट बहुत है। तुमने हमेशा ही छल कपट किया है इसी छल कपट से तुमने शिवजी को
विश पिलाकर बावला बना दिया।
देवताओं को अमृत पिलाकर असुरों को
मदिरा पिला दिया। और स्वयं लक्ष्मी, कौस्तुभमणि ले ली तुम बड़े
मतलबी हो। तुम परम स्वतंत्र हो, तुम्हारे सिर पर कोई नहीं है
इसलिए जो तुम्हारे मन में आता है वही करते हो। लेकिन आज मैं तुमको श्राप देता हूं
जिस शरीर को धारण कर तुमने मुझे ठगा है। तुम भी वही शरीर धारण करो। तुमने मेरा रूप
बंदर सा बना दिया था इसलिए वह बंदर ही तुम्हारी सहायता करेंगे। जैसे मैं स्त्री के
वियोग में दुखी हुआ हूं उसी प्रकार तुम भी स्त्री के वियोग में दुख भोगोगे।
इस प्रकार नारद जी क्रोध में आकर
भगवान नारायण को भयंकर श्राप दे डाला। जैसे ही नारद जी ने श्राप दिया भगवान श्री
हरि ने अपनी माया की प्रबलता को खींच लिया। जब नारद जी के ऊपर से भगवान की माया
हटी तब वहां ना लक्ष्मी रह गई, ना राजकुमारी। और नारद जी को पिछला किया
हुआ सब कुछ स्मरण हो गया तब नारद जी बड़े विकल हो गए और पश्चाताप करते हुए भगवान
के चरणों मे गिर कहने लगे हे नाथ मुझे क्षमा करें-
मृषा
होउ मम श्राप कृपाला। मम इच्छा कह दीन दयाला।।
मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे। कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे।।
हे प्रभु मेरा श्राप मिथ्या हो जाए, मुझसे
बहुत बड़ा अनर्थ हुआ, बहुत बड़ा पाप हुआ यह। मेरे पाप कैसे
मिटेंगे? इस प्रकार नारद जी पश्चाताप करने लग गए। तब भगवान
श्री हरि मुस्कुरा कर बोले- हे देव ऋषि तुम बिल्कुल भी शोक ना करो क्योंकि यह सब
मेरी ही इच्छा से हुआ है। इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। लेकिन देवर्षि नारद
कहने लगे प्रभु मेरे हृदय को विश्राम नहीं है, मेरे हृदय पर
बड़ा ग्लानि है, दुख है। आप मुझे इससे मुक्त कीजिए। नहीं
मेरे प्राण चले जाएंगे नाथ मेरा उद्धार कीजिए। तब भगवान श्री हरि प्रसन्न होकर
देवर्षि नारद से कहे हे नारद अगर तुम हृदय की शान्ति चाहते हो तो सुनो-
जपहु
जाइ संकर सत नामा। होइहि हृदय तुरत विश्रामा।।
जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी। सो न पाव मुनि भगति हमारी।।
अस उर धरि महि बिचरहु जाई। अब न तुम्हहि माया निअराई।।
भगवान ने कहा जाकर शिव जी के सतनाम
का जप करो इससे तुम्हारे हृदय की अप्रसन्नता दूर हो जाएगी। तुमको परम शांति की
प्राप्ति होगी। हे नारद शिव जी के समान मुझे अन्य कोई दूसरा प्रिय नहीं है। इस
विश्वास को भूलकर भी ना छोड़ना। जिस पर शिवजी कृपा नहीं करते वह मेरी भक्ति कभी
नहीं पा सकता। अब तुम यह मंत्र अपने हृदय पर धारण कर जाकर पृथ्वी पर भ्रमण करो अब
मेरी माया तुम्हारे निकट भी कभी नहीं आएगी।
इस प्रकार भगवान नारायण ने नारद जी
को समझा बूझाकर अंतर्ध्यान हो गए। नारद जी प्रभु के गुणो को गाते हुए ब्रह्मलोक को
चल दिए। मार्ग में रुद्रगणों ने उनको देखा तो वह उनके पास आकर चरण पड़कर दुखी हो
कहने लगे की हे मुनिराज हम ब्राह्मण नहीं हैं हम शिव जी के गण हैं। हमसे बड़ा
अपराध हुआ है जिसका फल आपने हमको दे दिया है। अब आप अपने श्राप से मुक्त होने का
उपाय कहिए?
तब उन गणों पर कृपा करते हुए नारद जी ने कहा कि तुम दोनों जाकर राक्षष कुल में जन्म लोगे, वहां पर तुम्हारा ऐश्वर्य, तेज, बल बढ़ता जाएगा। तुम अपने भुजाओं के बल से सारे विश्व को जीत लोगे। तब भगवान विष्णु मनुष्य का शरीर धारण करके तुम्हारा वध कर तुमको मुक्त करेंगे और तुम पुनः अपने रूप को प्राप्त कर लोगे। वे दोनों मुनि के चरणों में प्रणाम कर चले गये और समय पाकर राक्षस हुए।
भगवान
के अवतार के अनेक कारणों में से यह भी एक कारण है जिसके लिए भगवान अवतरित हुए।
भगवान के अनेकों सुंदर सुखदायक अलौकिक जन्म और कर्म हैं। प्रत्येक कल्प में जब-जब
भगवान अवतार लेते हैं तो नाना प्रकार की सुंदर लीलाएं करते हैं।
हरि
अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता।।
रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए।।
हरि अनंत हैं उनका कोई पार नहीं पा
सकता और उनकी कथा भी अनंत है। सब महापुरुष संत उन्हें बहुत प्रकार से कहते सुनते
हैं। श्री रघुनाथ जी के चरित्र करोड़ कल्पों में भी नहीं गाए जा सकते। भगवान शंकर
कहते हैं मैया पार्वती से की हे देवी मैंने यह बतलाने के लिए ही यह प्रसंग कहा कि
ज्ञानी मुनि भी भगवान की माया से मोहित हो जाते हैं। देवता, मनुष्य
और मुनियों में ऐसा कोई नहीं जिसे भगवान की महान माया मोहित ना कर दे इसीलिए सब
जीव को चाहिए की मायापति भगवान का भजन करें।
याज्ञवल्क ऋषि यह सुंदर कथा भारद्वाज
जी को सुना रहे हैं। महादेव जी ने कहा- कि हे गिरिराज कुमारी अब भगवान के अवतार का
दूसरा कारण सुनो मैं वह कथा विस्तार करके कहता हूं जिस कारण से अजन्मा, निर्गुण
और रूप रहित होते हुए भी वह ब्रह्म अयोध्यापुरी के राजा हुए।
स्वायंभू
मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नर सृष्टि अनूपा।।
दंपति धरम आचरन नीका। अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका।।
सज्जनो स्वयंभू मनु और शतरूपा जिससे
मनुष्यों की अनुपम सृष्टि हुई। इन दोनों पति-पत्नी के धर्म और आचरण बहुत अच्छे थे
आज भी वेद जिनके मर्यादा का सुयश गान करते हैं। इन्हीं महाराज मनु से मानवी सृष्टि
का शुभारंभ हुआ इसीलिए हम सभी मनुष्य कहलाए। हम सब महराज मनु की संताने हैं। स्वयंभू
मनु के दो पुत्र और तीन पुत्रियाँ हुई। पुत्रों का नाम है प्रियव्रत और उत्तानपाद।
पुत्री का नाम आकुति,
देवहूती और प्रशूति।
पुत्र के यहां भक्त का जन्म होता है, पुत्री
के यहां भगवान का जन्म होता है। महाराज उत्तानपाद के पुत्र हुए भक्तराज ध्रुव और
पुत्री देवहूती के यहां पर सांख्य शास्त्र के प्रवर्तक भगवान कपिल ने जन्म लिया।
भागवत पुराण में बहुत बढ़िया प्रसंग आता है कपिल देवहूती संवाद जिसमें माता
देवहूती ने कपिल भगवान से बहुत ही कल्याणमय उपदेश प्राप्त कि हैं।
बोलिए कपिल
भगवान की जय
भक्त ध्रुव की जय
स्वयंभू मनु जी ने बहुत समय तक राज्य
किया और सब प्रकार से भगवान की आज्ञा का पालन किया। एक बार वह एकांत पर बैठे हुए
थे और गहरे विचार में डूब गए सोचने लगे।
होइ
न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन।
हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरि भगति बिनु।।
घर में रहते हुए बहुत सा समय बीत गया
वृद्धावस्था ने घेर लिया परंतु विषयों से वैराग्य नहीं होता इस बात को सोचकर उनके
मन में बड़ा दुख हुआ कि श्री हरि की भक्ति बिना जन्म यूं ही चला गया।
सज्जनो यह केवल मनु महाराज का किस्सा
नहीं है हम सब का यही हाल है पूरा जीवन घर गृहस्थी पर गवां देते हैं लेकिन भगवान
की सुधि नहीं करते। भगवान का भजन नहीं करते किसी ने बहुत सुंदर कहा है-
पेट
में पौढ़ पुनि पौढ़ मही, पलना पौढ़ के बाल कहायो।
ज्वान भयो युवती संग पौढ्यो, पौढत पौढत ज्वानि
गवायी।
छीर समुद्र के पौढनहार को न तैने कबहूं ध्यान लगायो।
पौढत पौढत पौढत ही अब, चिता में पौढन के दिन आयो।।
पूरा जीवन हम घर गृहस्ती में बिता
देते हैं ,
सोने में बिता देते हैं लेकिन भगवान का भजन नहीं कर पाते। वह फिर
महान दुख को प्राप्त होते हैं।
मनु जी महाराज ने ऐसा विचार कर अपने पुत्र को जबरदस्ती राज्य देकर
स्वयं स्त्री सहित वन को चले गए और उस पावन क्षेत्र को गए हैं जो तीर्थों में परम
श्रेष्ठ कहा गया है।
तीरथ
परम नैमिष विख्याता। अति पुनीत साधक सिद्धिदाता।।
बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा। तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा।।
महाराज मनु नैमिषारण्य की पावन भूमि पर गए हैं जहां पर अनेकों सिद्ध मुनि वास करते हैं। रास्ते में ऐसे शोभित हुए जैसे ज्ञान और भक्ति शरीर धारण किए हो, गोमती के किनारे पहुंच निर्मल जल में हर्षित होकर स्नान किया। ज्ञानी मुनि और सिद्ध लोग राजा को धर्म धुरंधर और राजर्षि जानकर मिलने आए। ऐसे समाज में ऐश्वर्य का मान नहीं है, धर्म और ज्ञान का मान है।
जहां-जहां सुंदर तीर्थ थे राजा रानी को मुनियों ने सब की यात्रा करवाई। द्वादशक्षर मंत्र का जप करते-करते वासुदेव जी के चरणों में राजा रानी का मन अत्यंत लग गया। शाकफल, कंद का आहार करते हुए सच्चिदानंद ब्रह्म का स्मरण करके तप करने लगे। फूल फल को छोड़ जल आहार रह गया। यह अभिलाषा होती थी कि उस प्रभु को आंखों से देखें जो निर्गुण अखंड अनंत और अनादि है। परमार्थवादी जिनके दर्शन को लालायित रहते हैं।
जिसे वेद नेति नेति कहकर निरूपण करता है। जिसके अंश से ब्रह्मा विष्णु महेश उत्पन्न होते हैं ऐसे प्रभु भी सेवक के वश में है और भक्त के लिए लीला में शरीर धारण करते हैं। यह वचन वेद ने सत्य कहा है तो हमारी अभिलाषा की पूर्ति होगी। इस प्रकार जल का आहार करते हुए 6 हजार वर्ष बीत गए फिर 7 हजार वर्ष हवा के आधार पर रहे। 10 हजार वर्ष तक उसे भी छोड़ दिया दोनों एक ही पैर से खड़े रहे।
