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राम कथा हिंदी में लिखी हुई Ram Kathanak Hindi

bhagwat katha sikhe

राम कथा हिंदी में लिखी हुई Ram Kathanak Hindi

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राम कथा हिंदी में लिखी हुई Ram Kathanak Hindi

हनुमानजी ब्राह्मण वेश में श्री भरत लाल जी तक रघुवर के आने का समाचार कहने के लिए चल पड़े पड़े। तब प्रभु भरद्वाज जी के पास गये, मुनि ने नाना प्रकार से स्तुति करके आशीर्वाद दिया। सीताजी ने गंगाजी की पूजा की। 

बंधु माताओं यहां भगवान के तट पर उतरने की बात सुनते ही निषादराज प्रेम से आकुल होकर निकट आया, प्रभु को जानकी के साथ देखकर वह पृथ्वी पर गिर पड़ा उसे शरीर की सुधि न रही उसकी परम प्रीति देख राम ने उसे हृदय से लगा लिया और अत्यंत निकट बैठाकर उसका कुशल मंगल पूछा। तब निषाद राज ने प्रभु के चरणों में यही भाव रखा-

अब कुशल पद पंकज बिलोकि विरंचि शंकर सेव्यजे ।

सुखधाम पूरन काम राम नमामि राम नमामि ते ॥

मैं आपके चरणों में बारम्बार नमस्कार करता हूँ । 

यह कलिकाल मलायतन मन करि देखु बिचार।
श्रीरघुनाथ नाम तजि नाहिन आन अधार।।

सज्जनों इस कलिकाल में एकमात्र आधार, एकमात्र भरोसा राम-नाम का ही है। अत: रघुवीर चरित्र का श्रवण, उनके नाम का भजन श्रद्धा विश्वास पूर्वक करते रहना चाहिए ।

सियावर रामचन्द्रजी की जय

लंका काण्ड समाप्त

उत्तर काण्ड प्रारम्भ

* मंगलाचरण *

केकी कंठाभनीलं सुरवर विलसद्विप्र पादाब्ज चिन्हं,

शोभाठ्यं पीत वस्त्रं सरसिज नयनं सर्वदा सुप्रसन्नं ॥

पाणौ नाराच चापं कपि निकर युतं बन्धुना सेव्यमानं,

नोमीढ्यं जानकीशं रघुवर मनिशं पुष्पकारूढ़ रामं ॥

मोर की कंठ की दीप्ति सा जिनका वर्ण नील है। श्रेष्ठ वक्षस्थल पर जिनके ब्राह्मण के चरण की छाप विराजमान है जो शोभा के धनी हैं, पीताम्बर धारण किये हुए हैं कमल से नेत्र वाले हैं सदा सुप्रसन्न हैं, हाथ में धनुष धारण किये हैं और जो बानरों के समूह से युक्त भाई से सेवित पुष्पक विमान पर सवार हैं ऐसे जानकी के पति पूज्य रघुवर राम को मैं निरंतर नमस्कार करता हूँ। 

बंधु माताओं इधर अयोध्या में प्रभु श्री रामचंद्र आने वाले हैं तो अनेक प्रकार के सुंदर शुभ शगुन हो रहे हैं। सबका मन प्रसन्न है, नगर चारों ओर रमणीय हो गया है मानो सब शुभ शकुन प्रभु के आगमन को जना रहे हैं। मगर भरतजी ने जब पाँवरी लीं थीं उसी समय भरतजी ने श्रीरामजी के चरणों में निवेदन किया था –

बीते अवधि प्रथम दिनहिं, जौ रघुवीर न अइहौं ।

तौ प्रभु चरण सपथ कहौं, रघुपति जीवति मोहि न पहिहौं ।

आज अवधि का एक दिन बाकी है, राघवेन्द्र का कोई समाचार नहीं मिला है, इस पर श्रीरामभरत लाल चिंतित होते हैं।

राम विरह सागर महुँ, भरत मगन मन होत ।

विप्र रूप धरि पवन सुत, आइ गयेउ जन पोत ॥

हनुमानजी ने आकर देखा कि भरत जी कुशा के आसन पर बैठे हुए हैं, शरीर दुर्बल हो रहा है, सिर पर जटा जूटों का ही मुकुट है, राम-राम, रघुवीर ऐसा जप कर रहे हैं उनकी आँखों से आँसू बह रहे हैं। भरत को देखते ही हनुमानजी को बड़ा आनंद हुआ और वे अमृत वाणी से बोले-

जासु विरह सोचहु दिन राती । रटहु निरंतर गुन गन पाती ॥

रघुकुल तिलक सुजन सुखदाता । आयेहु कुशल देव मुनि त्राता ॥

यह बात सुनते ही भरत सब दुःख भूल गये जेसे प्यासे को अमृत मिलने से दुःख नहीं रहता । विरह व्यथा हानि ग्लानि जितने भरतजी को दु:ख थे, ये इन बचनों को सुनते ही भूल गये। वह पूछते हैं-

को तुम्ह तात कहाँ से आये। मोहि परम प्रिय बचन सुनाये ॥

मारुत सुत मैं कपि हनुमाना। नाम मोर सनु कृपानिधाना ॥

हे तात तुम कौन हो? और कहां से आए हो? यह परम आनंद देने वाला समाचार मुझे प्रदान किया अब अपना परिचय भी दो? तब हनुमान जी ने कहा कि मैं पवन पुत्र हनुमान हूं। यह सुनते ही भरत जी उठकर आनंद से हनुमान जी को गले लगा करके मिलते हैं। अधिक प्रसन्नता के कारण दोनों के नेत्र सजल हो गए। बहुत प्रकार से श्री हनुमान जी ने प्रभु श्री राम की कुशल क्षेम भरत जी से कहा उसके बाद भरतजी के चरणों में सिर नवाकर तुरंत हनुमानजी रामजी के पास गये और जाकर सब कुशल कहा । 

प्रभु हर्षित होकर पुष्पक विमान पर चढ़ कर चले । इधर भरतजी ने अयोध्यापुरी में आकर पहले सब समाचार गुरूजी को सुनाया फिर घर जाकर खबर दी कि प्रभु सकुशल नगर में आ रहे हैं, सुनते ही सब माताएँ उठकर दौड़ पड़ीं। इतने में ही तमाम नगर में बात फैल गई, सब स्त्री पुरुष हर्षित होकर प्रभु के दर्शन के लिये दौड़ पड़े। 

बहुत सी स्त्रियाँ अटरिया पर चढ़ीं हुई आकाश में विमान देखती थीं और देखकर हर्षित हो सुमंगल गान करती थीं, और रामजी बंदरों को सुंदर नगर ऊपर से दिखला रहे हैं, हे सुग्रीव, अंगद और विभीषण सुनो, यह पवित्र और देश सुंदर है। 

जद्यपि सब बैकुंठ बखाना। बेद पुरान बिदित जगु जाना।।
अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ। यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ।।

यद्यपि बैकुण्ठ की प्रशंसा की है यह वेद पुराणें में विदित है पर अवधपुरी के समान मुझे वह भी प्रिय नहीं है, इस बात को विरले ही जानते हैं। यह सुहावनी पुरी मेरी जन्मभूमि है इसके उत्तर पुनीत सरयू नदी बहती है जिसमें स्नान करने से बिना परिश्रम ही मनुष्य मेरे समीप निवास पाता है।

आवत देखि लोग सब कृपा सिंधु भगवान।

नगर निकट प्रभु प्रेरेड, उतरेउ भूमि विमान।।

कृपा सागर भगवान राघव सब लोगों को आते देखा तो प्रभु ने विमान को नगर के समीप उतरने की प्रेरणा दी। तब वह पृथ्वी पर उतरा। विमान से उतरकर प्रभु ने पुष्पक विमान से कहा कि तुम अब कुबेर के पास जाओ।

प्रेरित राम चलेउ सो हरषु बिरहु अति ताहु।।

तब पुष्पक विमान अपने स्वामी कुबेर के पास चला गया। उसको अपने स्वामी के पास जाने का हर्ष भी है लेकिन प्रभु श्री राम जी से दूर जाने का शोक भी। भरतजी के साथ सभी लोग थे, बामदेव, वशिष्ठ मुनि नायक का दर्शन प्रभु ने पृथ्वी पर धनुष बाण रखकर किया, भाई के साथ दौड़कर गुरूजी के चरण पकड़ लिये, शरीर पुलकित हो गया मुनिराज ने गले लगाकर कुशल पूछा, राम जी बोले- आपकी दया से ही सब कुशल है। सभी ब्राह्मणों से मिलकर प्रणाम किया ।

तब भरतजी ने प्रभु के चरण पकड़े जिनको शिव, ब्रह्मा, देवताओं और मुनि नमस्कार किया करते हैं । भरतजी पृथ्वी पर लेटे हुए हैं उठाने से उठते नहीं तब कृपासिंधु ने बल लगाकर उन्हें उठाकर हृदय से लगा लिया । पुलकित हो नयनों में जल भर आया। कृपानिधान रामजी भरत से कुशल पूछते हैं-

बूझत कृपानिधि कुसल भरतहि बचन बेगि न आवई।
सुनु सिवा सो सुख बचन मन ते भिन्न जान जो पावई।।
अब कुसल कौसलनाथ आरत जानि जन दरसन दियो।
बूड़त बिरह बारीस कृपानिधान मोहि कर गहि लियो।।

भरत जी के मुख से शीघ्र बात नहीं निकलती है, हे कौशलनाथ अब कुशल है जो आपने आर्त जानकर अपने भक्त को दर्शन दिया। फिर प्रभु ने हर्षित होकर शत्रुघन को हृदय से लगा लिया । तब लक्ष्मण भरत दोनों भाई अत्यंत प्रेम पूर्वक मिले। फिर लख्मणजी शत्रुघ्न से मिले तो सीताजी के चरणों में भरत ने भाई शत्रुघ्न के साथ सिर नवाया और परम सुख पाया। पुरवासियों को देखकर खरारी कृपालु ने एक कौतुक किया, असंख्य रूप प्रकट करके सबसे यथायोग्य मिले, रघुवीर ने कृपादृष्टि से विलोक कर सब नर-नारियों को विशोक कर दिया।

छन महिं सबहि मिले भगवाना। उमा मरम यह काहुँ न जाना।।

क्षण मात्र में सबसे मिल लिये पर यह मर्म किसी ने नहीं जाना। भगवान से मिलने के लिये सारी अयोध्या उमड़ पड़ी पर प्रभु श्रीराम की माँ कैकई दिखाई नहीं पड़ रहीं हैं, रोते हुए राम भैया भरत जी से पूछते हैं। हे भैया भरत मेरी केकैयी माँ कहां है? सज्जनों माता कैकेयी अभी भी हृदय से बहुत दुखी हैं कि मेरे कारण ही राम 14 वर्ष वनवास के कष्ट को सहे हैं। प्रभु अंतर्यामी हैं वह सबसे पहले माता कैकेयी से मिलकर के उनको प्रणाम करते हैं, इसके बाद सभी माताओं से मिले हैं प्रेम पूर्वक।

बंधु माताओं माता कैकेई का चरित्र बड़ा गूढ है। माता कैकेयी जैसा त्याग और समर्पण प्रभु के लिए और किसी का हो ही नहीं सकता। रामायण के अयोध्याकाण्ड में वर्णित वह प्रसंग, जहाँ माता कैकेयी ने प्रभु श्रीराम को वनवास का वरदान माँगा, सदियों से चर्चा और विवाद का विषय रहा है। परंतु गहराई से विवेचना करें तो यह घटना माता कैकेयी की "सर्वोच्च मातृत्व-साधना" और "राम के प्रति अटूट प्रेम" का उदाहरण है, न कि स्वार्थ या द्वेष का।

सज्जनों जब अयोध्या के राजकुमार राम, जो बाल्यावस्था में ही अपने दिव्य स्वभाव से सभी को मोहित करते थे, एक दिन माता कैकेयी की गोद में बैठे हुए उनसे विनम्रतापूर्वक कहते हैं—"माता! मुझे वन की सैर करनी है, वहाँ के पशु-पक्षी, फूल-पत्ते देखने हैं। क्या आप मुझे वन भेजेंगी?" यह सुनकर कैकेयी हँसते हुए बालराम को गले लगा लेती हैं और प्रेमवश कह देती हैं—"तथास्तु! जब भी तुम्हारी इच्छा हो, मैं तुम्हें वन भेज दूँगी।" किंतु राम इस बालसुलभ वचन को गंभीरता से लेते हुए माता से वचनबद्ध करा लेते हैं "माता, आपने मुझे वन भेजने का वचन दिया है। भविष्य में जब भी अवसर आए, आपको इसे पूरा करना होगा।"

यहाँ यह समझना आवश्यक है कि राम अपने अवतारी स्वरूप से पूर्णतः सजग थे। उन्होंने जानबूझकर कैकेयी से यह वचन लिया, क्योंकि वे जानते थे कि भविष्य में उनके चौदह वर्ष के वनवास की पृष्ठभूमि इसी वचन से निर्मित होगी। वही क्षण था जब कैकेयी के हृदय में यह संकल्प अंकित हो गया कि "राम की इच्छा पूर्ण करना ही उनका परम धर्म है।

वर्षों बाद जब महाराज दशरथ राम का राज्याभिषेक करने का निर्णय लेते हैं, तब देवयोग से मंथरा नामक दासी कैकेयी को उस वचन की याद दिलाती है। मंथरा का यह कृत्य दैवीय लीला का अंग था, क्योंकि राम के वनवास के बिना रावण-वध और धर्म की स्थापना असंभव थी। कैकेयी जानती थीं कि राम का राजसिंहासन पर बैठना उनके लौकिक जीवन की समाप्ति होगी, जबकि वनवास उनके दिव्य मिशन का प्रारंभ।

अतः उन्होंने राजमहल के कोलाहल के बीच, अपनी मातृत्व की पीड़ा को दबाकर, दशरथ से दो वर माँगे—(१) भरत का राज्याभिषेक और (२) राम का चौदह वर्ष का वनवास। यह निर्णय लेते समय कैकेयी का हृदय रक्त के आँसू रो रहा था, परंतु उन्होंने स्वयं को "राम की इच्छा का पालनकर्ता" मानकर यह कठोर भूमिका निभाई। उनकी दृष्टि में, यह वर माँगना राम को अयोध्या के सीमित राज्य से मुक्त कर उनके असीमित विश्वमंगल के मार्ग पर अग्रसर करना था।

 राम कथा हिंदी में लिखी हुई Ram Kathanak Hindi


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