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राम कथा हिंदी में लिखी हुई-20 ram charit manas katha in hindi

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राम कथा हिंदी में लिखी हुई-20 ram charit manas katha in hindi

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-20 ram charit manas katha in hindi

 राम कथा हिंदी में लिखी हुई-20 ram charit manas katha in hindi

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-20 ram charit manas katha in hindi

गुरु वशिष्ट तो यात्रा में भी यज्ञ - कर्म सम्पन्न करते थे किन्तु यज्ञ करना ही महत्वपूर्ण नहीं है, जब राम दण्डकारण्य में पहुँचते हैं तो वहाँ नर कंकाल देखकर उनका हृदय द्रवित हो जाता है। ऋषि-मुनियों के उन नर कंकालों को देखकर वे सोचते हैं कि जिन ऋषियों के हुंकार मात्र से राक्षसों का नाश हो सकता है वे इसलिए हुंकार नहीं करते कि ऐसा करने से इससे उनकी तपस्या नष्ट हो जाएगी, उसमें विघ्न पड़ेगा, तो फिर राक्षसों के विनाश का संकल्प वे स्वयं लेते हैं—

निसिचर हीन करऊँ महि, भुज उठाइ पन कीन्ह ।
सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह । ।
(अरण्यकांड दोहा क्रमांक ९)

श्रीराम ने भुजा उठाकर प्रण किया कि मैं पृथ्वी को राक्षसों से रहित करूँगा। यहाँ तुलसी यह संदेश देना चाहते हैं कि यज्ञ - संस्कृति के विनाश को रोकना सद्गुणियों द्वारा संभव नहीं। इसके लिए तो किसी संकल्पित शक्ति का होना आवश्यक है। ऐसा व्यक्तित्व वाला व्यक्ति जब तक समाज में नहीं होगा, तब तक यज्ञ-संस्कृति का प्रचार- प्रसार भी राग-द्वेष मय ही रहेगा। अतः यज्ञ संस्कृति का प्रचार अपने भीतर असुर-भाव को नष्ट करने के लिए ही होना चाहिए। काम और क्रोध के जो वेग हैं, ये आसुर भाव ही हैं। इन्हें जो मारता है वही यज्ञ की रक्षा का संकल्प ले सकता है। तुलसी के मत में इस प्रकार यज्ञ केवल क्रिया मात्र न रहे, भाव की अनुभूति के लिए होना चाहिए। यह कार्य दैनिक कृत्यों में भी झलकना चाहिए।

हम यज्ञ में व्याप्त देवताओं की पूजा करते हैं क्योंकि उनसे हमें जीवनधर्म को पालन करने के लिए आवश्यक वस्तुएँ प्राप्त होती हैं; जैसे— धरती, जल, अग्नि, वायु और आकाश से प्राप्त प्रकाश में ये पाँचों जीवन के लिए अनिवार्य हैं। लेकिन उनके ग्रहण करने के स्थान पर हम उन्हें देते क्या हैं? आज के युग की भाषा में कहें, तो हम उनको प्रदूषित ही कर रहे हैं । यदि हमारे पास रहने के लिए धरती न हो, उससे प्राप्त अन्न न हो, पीने के लिए जल न हो, भोजन पकाने के लिए अग्नि न हो, शीतल वायु न हो तथा प्रकाश न हो, तो हम अपने दैनिक जीवन को भी ढंग से नहीं चला सकते। क्या हम इन का बदला उन्हें चुकाते हैं। इसीलिए इस प्रक्रिया को निरन्तर रखने के लिए हमें 'यज्ञ' करने का संकेत हमारी संस्कृति के निर्माताओं ने हमें दिया है। इसके लिए हम पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश को दैवीय शक्तियाँ मानकर पूजते हैं और उन्हें कृतज्ञता प्रदान करते हैं।

विश्वामित्र जी दशरथ के पास यज्ञ-ध्वंस करने वाले राक्षसों को मारने के लिए राम को माँगते हैं। राम ताड़का, सुबाहु को मारकर विश्वामित्र से निर्विघ्न रूप से यज्ञ करने के लिए कहते हैं किन्तु इसके बदले वे उन्हें ऐसी विद्या देते हैं, जिससे वे रावण को परास्त कर सकें। तुलसी कहते हैं-

तब रिषि निज नाथहि जियँ चीन्ही । विद्या निधि कहुँ विद्या दीन्हीं । ।

जाते लाग न छुधा पिपासा । अतुलित बल तनु तेज प्रकासा ।।

(बालकाण्ड दो. २०९)

श्रीराम को उन्होंने ऐसी विद्या दी, जिससे उन्हें भूख-प्यास न लगे और शरीर में अतुलित बल और तेज का प्रकाश हो । सब अस्त्र-शस्त्र समर्पण करके मुनि उन्हें अपने आश्रम पर लाए। अतः स्पष्ट है कि मानस में जिस यज्ञीय परंपरा की वे रक्षा करना चाहते थे, वह मात्र स्थूल अग्निहोत्र तक सीमित नहीं थी, उसमें जन-कल्याण की भावना प्रधान थी। राष्ट्र को हर तरह के प्रदूषण से मुक्त करने की भावना थी ।

इस दृष्टि से यज्ञकर्त्ता का हर शुभ कार्य एक यज्ञीय प्रक्रिया है। इसे एक उदाहरण से समझें। रामायण में दक्ष प्रजापति को यज्ञ-कर्म करते दिखाया गया है किन्तु वह यज्ञ राग-द्वेष से किया गया था। परिणामस्वरूप शिवजी के दूत वीरभद्र ने उनका यज्ञ - ध्वंस किया और सिर काट कर यज्ञ वेदी में होम दिया। इसलिए यज्ञीय-भावना में लोक कल्याण की भावना जुड़ी रहना चाहिए। व्यक्तिगत जीवन में लाभ की भावना से किया गया यज्ञ समाज के लिए दुःखदायी हो सकता है। लंका में राम रावण युद्ध के समय मेघनाद ऐसा ही यज्ञ करने लगा था। विभीषण ने इस यज्ञ की सूचना राम को दी-

मेघनाद मख करइ अपावन । खल मायावी देव सतावन ।।

इस प्रकार के यज्ञ के विध्वंस का आदेश स्वयं राम अपने भाई लक्ष्मण को देते हैं और कहते हैं—

लक्षिमन संग जाहु सब भाई । करहु विधंस जग्य कर जाई । ।

फलस्वरूप मेघनाद का मारा जाना संभव हुआ । स्वयं रावण भी लक्ष्मण के हाथों घायल होकर लंका में वैसा ही यज्ञ करने लगा था। वह चाहता था कि यज्ञ के प्रभाव से राम पर विजय प्राप्त कर ले। वह मूर्ख और अत्यन्त अज्ञानी' हठवश श्रीराम से विरोध करके विजय चाहता है, ऐसा होना संभव ही नहीं । राम ने उस यज्ञ को विध्वंस करने का भी आदेश दिया और यह कार्य वानर योद्धाओं ने किया। अस्तु स्पष्ट है कि मानस में यज्ञ - संस्कृति का समर्थन जन-कल्याण के लिए होना चाहिए । इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। ऐसा यज्ञ ही परम्परागत संस्कार का पक्षधर होता है ।

विश्वामित्र जी के यज्ञ की रक्षा हो गई। वह आगे को बढ़ने लगे प्रभु श्री राम जी ने निवेदन किया कि गुरुदेव यज्ञ की रक्षा तो हो गई अब हम और आगे कहां जा रहे हैं? तब विश्वामित्र जी कहने लगे की हे राघव इस यज्ञ को तो अपने पूर्ण कर दिया अभी एक और यज्ञ बाकी है जिसे आपको पूर्ण करना है हम वही चल रहे हैं। कौन सा यज्ञ?

धनुषजग्य मुनि रघुकुल नाथा। हरषि चले मुनिबर के साथा।।
आश्रम एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं।।
पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी। सकल कथा मुनि कहा बिसेषी।।

धनुष यज्ञ का दर्शन करने के लिए यहां से चले। गुरुदेव विश्वामित्र भगवान श्री राम और लक्ष्मण को साथ लेकर। गुरु की कृपा कैसे बरसती है दर्शन कीजिए। विश्वामित्र जी प्रभु श्री राम को किसी और मार्ग से भी ले जा सकते थे लेकिन ले गए किस मार्ग से- जहां पर एक सुनसान आश्रम कोई पशु पक्षी वहां पर वास नहीं कर रहा। सम्पूर्ण आश्रम उजड़ चुका है। वीरान हो चुका है। लेकिन उस आश्रम पर अभी भी कोई ऐसा है जो वर्षों से प्रभु राघव के चरणरज की प्रतीक्षारत है।

मार्ग में एक शिला थी। वह कोई साधारण पत्थर सी प्रतीत नहीं हो रही थी। वैसे तो प्रभु अंतर्यामी है सब कुछ जानते हैं फिर भी उन्होंने लीलावश विश्वामित्र जी से परम विचित्र उस शिला के विषय में पूछते हैं की गुरुदेव है क्या है? तब विश्वामित्र जी ने कहा-

गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर।
चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर।।

प्रभो यह गौतम ऋषि की नारी श्राप के वश होकर पत्थर का देह धारण किए हुए है। यह आपके चरणरज चाहती है। सो आप रघुवीर हैं इस पर कृपा करिए इस शिला को चरण स्पर्श करायिये यह सहस्त्रों वर्षों से धैर्य धारण किए हुए आपके चरणों की आशा लगाए परम तप में स्थित है।

सज्जनो अहिल्या ब्रह्मा जी की कन्या थी। इस कन्या को ब्रह्मा जी गौतम ऋषि के पास धरोहर रख आए थे क्योंकि उसके रूप से मोहित हुए इंद्रादि देव भी उसे पाने के लिए प्रयास करते थे। वह गौतम जी की अच्छी तरह सेवा करती थी। बहुत काल बीतने पर ब्रह्मा जी महर्षि के पास गए और देखा की कन्या की देखरेख निर्विकार मन वचन कर्म से गौतम जी ने की है। उनके परम वैराग्य और ब्रह्मचर्य से प्रसन्न होकर वह कन्या ब्रह्मा जी ने पत्नी रूप में उन्हें दे दी। फिर गौतम ऋषि ने अहिल्या को कैसे श्राप दिया यह कथा तो आप सबको विदित ही है।

अगर इस प्रसंग का मर्म हम लोग समझें तो यह जानना होगा अहिल्या कौन है? अहिल्या बुद्धि है। बुद्धि शतरूपा होती है। सौ प्रकार के रूप बनाती है। बुद्धि ही फसाती है और नचाती है। इसलिए बुद्धि पर भरोसा नहीं करना चाहिए। सज्जनो अहिल्या जी से पाप हो गया जाने अनजाने में और हम सब से भी पाप होता है। कोई ऐसा नहीं धरती पर जिससे पाप ना हो। जीवन में पाप हो जाए कोई बड़ी बात नहीं। आपको कभी छिपाना नहीं चाहिए। लेकिन हम लोग उल्टा करते हैं पाप को छुपाते हैं और पुण्य को गाते हैं। पुण्य बताने से छीण हो जाता है और पाप छुपाने से भारी हो जाता है। तो पाप छुपाइए मत पुण्य गाइये मत। लेकिन पाप को कहां प्रकट करिए इसकी समझ होनी चाहिए ! रिश्तेदारी में बताओगे फंस जाओगे। पड़ोसियों को बताओगे उलझ जाओगे। मित्रों को बताओगे परेशान किए जाओगे।

पाप उसके चरणों में बैठकर प्रकट करिए जिसके चरणों में आपकी दृढ़ श्रद्धा हो, भक्ति हो, विश्वास हो। जो आपके गुरु हों, मार्गदर्शक हों या फिर भगवान के सम्मुख उनके चरणों में बैठकर के हाथ जोड़कर के कहिए कि चाहता तो नहीं था लेकिन यह हो गया है मेरा उद्धार करिये। सज्जनो पाप प्रकट जब आप कर दोगे तो हो सकता है परमात्मा आपको बचाने के लिए स्वयं चले आएंगे। अहिल्या जी ने प्रकट कर दिया। भगवान आए और अहिल्या जी को स्पर्श किए। राघव जी के चरणरज का स्पर्श पाते ही अहिल्या दिव्य रूप में प्रकट हो जाती हैं और प्रभु के सुंदर स्वरूप का दर्शन करके अह्लादित हो जाती हैं। और उनकी स्तुति करने लगती हैं-

परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट भई तपपुंज सही।
देखत रघुनायक जन सुख दायक सनमुख होइ कर जोरि रही।।
अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही।
अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही।।

राघव जी ने अपने चरण से उस शिला को स्पर्श कर तपस्विनी अहिल्या को देखा।

रामः शिलां पदास्पृष्टवातां चापश्यन्तपो धनम्।।

अहिल्या पर पुरुषागमन रूपी पाप से अपावन हो गई थी। उसको पावन किया और पति के त्याग से श्रापजनित पति वियोग से शोक युक्त थी उसे शोक रहित किया। इसी से (पावन शोक नसावन) दोनों विशेषण दिए। माता अहिल्या अत्यंत प्रेम के कारण अधीर हो गई, उनका शरीर पुलकित हो उठा, मुख से वचन कहने में नहीं आते थे। वह प्रभु के चरणों से लिपट गई और दोनों नेत्रों से आंसुओं की धारा चलने लग गई। विचार करने लगती हैं कि मेरे स्वामी ने जो मुझे श्राप दिया वह मेरे लिए श्राप नहीं आज वरदान साबित हुआ है। वह बोलीं-

मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना।
देखेउँ भरि लोचन हरि भवमोचन इहइ लाभ संकर जाना।।
बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागउँ बर आना।
पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना।।
एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी।
जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पतिलोक अनंद भरी।।

माता अहिल्या सोचती हैं कि मुनि ने मुझे जो श्राप दिया वह मेरे लिए बहुत बड़ा अनुग्रह किया था। जो आज मैंने करुणा के सागर प्रभु का दर्शन प्राप्त किया। भगवान श्री राघवेंद्र सरकार ने गौतम नारी अहिल्या का उद्धार किया वह आनंद से भरी हुई प्रभु के चरणों में बार-बार प्रणति निवेदित करती हुई, पति लोक को चली गई। 

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