F राम कथा हिंदी में लिखी हुई-29 ram katha in hindi written - bhagwat kathanak
राम कथा हिंदी में लिखी हुई-29 ram katha in hindi written

bhagwat katha sikhe

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-29 ram katha in hindi written

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-29 ram katha in hindi written

 राम कथा हिंदी में लिखी हुई-29 ram katha in hindi written

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-29 ram katha in hindi written

ऐसी स्थिति को देखकर बुद्धिमान महाराज जनक जी स्वयं आगे बढ़कर के गए और भगवान परशुराम जी के चरणों में प्रणाम किया और अपने पुत्री सीता जी को भी प्रणाम करवाया। तब परशुराम जी ने सीता जी को आशीर्वाद प्रदान किया।

कच्छप पर शेष जब लौ, शेष पर भूमि जब लौ,
भूमि पर सिंधु जब लौं वारि सो घनो रहै।
सिंधु पर वारि जब लौ, वारि पर वायु जब लौं,
स्वर्ग पर इन्द्र जब लौं नेम से तनो रहै।
व्योम पर सूर्य जब लौं, सूर्य पर स्वर्ग जौ लौं,
स्वर्ग पर इन्द्र जब लौं हर्ष सों सनो रहै।
एरी जनक किशोरीं तब लौं परशुराम कहै
तेरो सुहाग सिर में सिन्दूर बनो रहै।।

सीता जी को सौभाग्यवती भव का आशीर्वाद दिया। सखियां सीता जी को अपने समाज में लिवा ले गईं। तब विश्वामित्र जी जाकर परशुराम जी से मिले और चरण कमल में दोनों भाइयों को डाल दिया। परशुराम जी ने जब रघुनंदन श्री राम को देखा तब विश्वामित्र जी से पूछ रहे हैं।

"रूप को निधान चन्द्र सूर्य सों उदोत्तमान,
चंचल तिरीछे नयन भृकुटी चलावें हैं ।
लागि है समाधी जानौं ऐसो कुछ लागै मोहि,
साँवरो सलौनो मुखमोरि मुस्कावे हैं ॥
नहीं मन अनुराग वश थामे थमैं आजु,
मेरो चित्त यो गते वियोग में लगावे हैं ।
ऐहो 'हरेकृष्ण' धर्म धीरज न धारंयोजाहि,
कौन को कुमार बेगि कौशिक बतावै हैं ।

 विश्वामित्र बोले- ये राम-लक्ष्मण दशरथ के बेटे हैं, परशुराम जी राघव रामजी को देखते ही रह गये, आँखें थक गईं रूप का पारावार कामदेव के अभिमान को दूर करने वाला रूप था। परशुराम जी ने आशीर्वाद दिया।

"यह श्यामल गौर की जोड़ी जिये, जगतीतल में सुख पाती रहै ।
पिता-माता सदैव प्रसन्न रहै, भयचिंता न कोई सताती रहै ॥
चिरकाल अयोध्या में राजकरौ सब काल प्रजा हरषाती रहै ।
तब न्यायनिकेतन मंदिर पै नित धर्मध्वजा फहराती रहै ॥

फिर विदेह से पूछा कि इतनी भीड़ क्यों है ? जानकर भी अनजान की भाँति पूछते हैं, जिस कारण राजा लोग आए थे वह सब समाचार जनक ने कह सुनाया, बचन सुनते ही घूमकर देखा, धनुष के दोनों खंडों को पृथ्वी पर पड़े हुए पाया, यहीं पर ध्यान देने की बात यह है कि परशुराम से यह भूल हुई कि जब उन्होंने अखण्ड को देख लिया।

'रामअखण्ड एक रघुराई'

तो फिर खण्ड को देखने की आवश्यकता नहीं रह जाती, पर उन्होंने बाद में खण्ड को देखा । महाराज जनक ने कहा कि यह राजा स्वयंवर में आये हैं, यह नहीं कहा कि हमने प्रण किया है नहीं तो परशुरामजी धनुष तोड़ने वाले को न पूछते । जनक को ही मारते, सब बातें बताईं केवल दो बातें छिपाईं, एक धनुष का टूटना, दूसरे उसे तोड़ने वाले का नाम । अत्यंत क्रोध से परशुराम कठोर बचन बोले- रे जड़ जनक, बतला धनुष किसने तोड़ा ? उसे जल्दी दिखला नहीं तो जहाँ तक तेरा राज्य है वहाँ तक की सारी पृथ्वी उलट दूँगा । अत्यंत डर से राजा उत्तर नहीं देते, सब लोगों को भयभीत देखकर रघुवीर ने कहा- हे नाथ।

नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा।।
आयसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही।।

शिव जी के धनुष को तोड़ने वाला आपका कोई एक दास ही होगा। क्या आज्ञा है मुझसे क्यों नहीं कहते?

"भुगुवंश शिरोमनी ज्ञान निधे, नृप बालक एक विचारा हूँ मैं ।
मुख दर्शन के हित आया हुआ, शिव का धनु भंजन हारा हूँ मैं ॥
'हरेकृष्ण' नहीं छल कपट कोई, पला पावन प्रीति के द्वारा हूँ मैं ।
अनुसासन पालन हेतु खड़ा, मुनि नायक शिष्य तुम्हारा हूँ मैं ।।"

"नाथशंभु" अर्थात् शिवजी हमारे ही नाथ हैं अतएव, हम आपसे डर नहीं रहे धनुष तोड़कर क्योंकि, जिन्ह शम्भु का यह धनुष है उनके हम नाथ हैं। अतः आप व्यर्थ रुष्ट होते हैं। यह सुनकर क्रोधी मुनि चिढ़कर बोले- सेवक वही जो सेवा का काम करे, जिसने शिव धनुष तोड़ा है वह सहस्त्रबाहु की भाँति मेरा शत्रु है और बोले-

सो विलगाउ बिहाइ समाजा । नत मारे जैहहिं सब राजा ॥
सुनि मुनि बचन लखन मुस्काने । बोले परशु धरहिं अपमाने ॥

जनकजी के 'वीरविहीन मही' कहने से लक्ष्मण ने रामजी का अपमान माना था उसी लक्ष्मण ने 'नत मारे जै है ' सब राजा' इस बचन से रामजी का अपमान माना, अतः मुस्कराये, और परशुराम का अपमान करते हुए बोले-

बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं । कबहुँ न अस रिस कीन्ह गोसाईं ।
ऐहिधन पर ममता केहि हेतू । सुनि रिसाइ कह भृगुकुल केतू ॥

मानस पीयूष से - बाबू श्यामसुंदर दास लिखते हैं कि जब परशुराम ने पृथ्वी निःक्षत्रिय करके तमाम राजाओं के धनुष जाकर अपने स्थान में इकट्ठे किये, बहुत से देवताओं के धनुष भी लाये तो उनके बोझ से पृथ्वी और शेष मातापुत्र बनकर परशुराम जी के पास इसलिये पहुँचे कि कहीं ये धनुष राक्षसों को न मिल जाये जो प्रलय हो जाय, बोले हम माता-पुत्र बड़े दुःखी हैं भोजन भी नहीं मिलता, आज्ञा हो तो यहीं सेवा कर पड़े रहें आशा है कि आप इस लड़के के अपराध सहते हुए मुझे सेवा की आज्ञा देंगे।

इस पर परशुराम ने कहा मैं तेरे पुत्र के अपराध क्षमा करूँगा, बस दोनों रहने लगे, एक दिन परशुराम के बाहर जाने पर बालक ने सभी धनुष तोड़ डाले, तब आवाज सुनकर उन्होंने आकर देखा तब क्रोध न कर आशीर्वाद दे माता - पुत्र को विदा किया। तब शेषजी शिव धनुष का टूटना कहकर भविष्य में मिलनी कहकर, अन्तर्ध्यान हो गये। यहाँ वही लड़कपन में धनुषों को तोड़ना सूचित किया है, और इसी ओर इंगित करते हुए बोले-

"प्रभु शैशव कालकी याद नहीं, वह बात हुई न विशेष पुरानी ।
गये बाहर आप तपोवन से, धनुहिं हमने बहुतोरीं अजानी ॥ "
'हरेकृष्ण' न क्रोध कियातब तो, क्षमा सिंधु बने महामुनि ज्ञानी ।
इस चाप में कौन विशेषता जो, मुनि नायक ऐसी उतावली ठानी ॥ "

बचपन में हमने बहुत सी धनुहियाँ तोड़ी, तब आप क्रुद्ध होकर एक बार भी कभी अयोध्या में नहीं आये। आज ही ऐसा विशेष क्या हुआ कि आप क्रोध से आगबबूला होकर बिना बुलाए आ गये इससे स्पष्ट दीखता है कि इस धनुष पर आपकी विशेष ममता आसक्ति थी, जिस वस्तु पर ममता आसक्ति नहीं होती वह अपनी आँखों के सामने भी टूट-फूट जाय तो भी न दुःख होता है न क्रोध।

क्रोधादि विकारों का मूल तो अहंता और ममता ही है जिनकी जड़ मोह और उसको जड़ अज्ञान, अविद्या आपने जो मुनिवेष धारण किया है उसके अनुकूल आपको इन्द्रियाँ आपके वश में होंगी ही।

आप त्रिकालज्ञ भी दीखते हैं, इसी से तो आपने धनुर्भंग जान लिया और क्रुद्ध होकर वायु वेग से यहाँ आ गये, जब हमने बचपन में अनेकों धनुहियाँ तोड़ीं तो आपको हरेक समय आना ही था क्योंकि आप त्रिकालज्ञ हैं पर उस समय एक बार भी नहीं आये यह भाषण लक्ष्मण जी ने जानबूझकर अपमान करने के लिये ही वक्रोक्ति से किया है, आप सच्चे मुनि नहीं, मुनिवेष धारी ही हो क्योंकि ज्ञान-विज्ञान तो दूर रहा पर छुद्र, तुच्छ, जड़, अति पुरानी, निकम्मी वस्तुओं में ममत्व बुद्धि है यानी विषयासक्त है। यह तो खेल में ही विना परिश्रम टूट गया।

मानस पीयूष के अन्य उदाहरण- कोई दोहावली का प्रमाण देकर लिखते हैं-

दस हजार वे शिशु हते, गंधर्वन के पुत्र।
तिनकी धनु हीं छीनिकें, तोरी हतीं सुमित्र ॥ "

अर्थात् एक बार गंधर्वों ने मृगया खेल में दस हजार बालकों के प्राण ले लिये तब लक्ष्मण ने सबके धनुष छीन कर तोड़ डाले थे, यहाँ 'बहुधनुही तोड़ी' से उसकी ओर संकेत है।

ग्रंथकार लिखते हैं कि इस बचन का तात्पर्य यह है कि शिवजी ने जालन्धर के युद्ध में बहुत से धनुषों को जीतकर मनोरमा नदी के किनारे रख दिया था। उसके रखने वाले परशुराम ही थे, यहाँ लक्ष्मणजी प्रायः खेलने जाया करते थे और खेल ही के लिए उन्होंने सारे धनुषों को तोड़ डाला, वही स्मरण दिलाते हैं।

पं० रामचरण मिश्र लिखते हैं कि गूढार्थ प्रकाश में एक कथा यह लिखी है कि त्रिपुरासुर के बध के लिये वज्रवत अस्थियों के धनुष की आवश्यकता हुई, ब्रह्माजी की आज्ञानुसार देवताओं ने महर्षि दधीचि से उनके शरीर की हड्डियों की याचना की गई जो उन्होंने दे दीं परन्तु उनकी आयु शेष थी, इससे उन्होंने कहा कि अभी मृत्यु तो होगी नहीं प्राणें को कहाँ रखें, ब्रह्मा ने आज्ञा दी कि प्राण 'नाक' के अग्रभाग त्रिकुटी में रहेंगे, अर्थात् नाक की हड्डी में ही रहेंगे और त्रेता में जब यह धनुष टूटेगा तब तुम्हारी मुक्ति होगी ।

धनुष बनवाने के लिये शिवजी की सम्मति से विश्वकर्मा उन हड्डियों को शेषजी के पास ले गये, शेष जी के फण वज्रवत हैं, उनकी श्वाँसा से तप्त होकर फणों की चोट लगने से अस्थियाँ जुड़ जुड़कर धनुष रूप बन जाय पर ज्योंही फण तिरछा हो हिले जुड़ा हुआ धनुष टूट जाता है, ज्योंही अनेकों बार धनुष बना और टूटा, यह भेद शंकर ने जाना तो बड़ी सावधानी से उन्होंने धनुष जुड़ने पर फिर उसे चोट से बचाकर निकाल लिया, धनुष तो बना पर चाँम बाकी रही, शंकरजी ने त्रिशूल से नाक को काट बनी बनाई चाप मूठ लगाकर तपाकर जो फण बाकी था उसकी चोट लगवाकर शीघ्र खींच लिया, इसीसे इस धनुष का नाम ‘पिनाक’ पड़ा, इस नाक में दधीचि के प्राणरहने के कारण वह शिव धनुष सजीव था जब रामजीने तोड़ा, तब दधीचि मुनि के प्राण निकलकर मुक्ति हुई ।

अतः लक्ष्मणजी कहते हैं कि जब तक चाप की मूठ नहीं लगी थी, तब तक इसकी 'धनुही' संज्ञा रही क्योंकि जब धनुष बन रहा था उसी अवस्था में मैंने कइयों बार तोड़ डाला है। तब तो वहाँ आप कभी नहीं आये, धनुष को धनुही कहना, और रिस को ममता का कारण संकेत रूप में कहना, विनोद की बातें चुटकियों में अपमान करना ही है। परशुराम जी बोले –

रे नृप बालक कालवश बोलत तोहिन सँभार ।
धनुहीं सम त्रिपुरारि धनु विदित सकल संसार ॥”

अरे राजा के छोरे काल के बस होने से तुझे बोलने में कुछ भी होश नहीं है। सारे संसार में विख्यात शिव जी का यह धनुष क्या धनुही के समान तुझे दीख पड़ता है?

सैकड़ों वर्ष जिसने शोभितः कैलाश किया,
सैकड़ों वर्ष रहाश्रंग नदी बारिबंड ये ॥
सैकड़ों वर्ष माता पार्वती ने पोंछा जिसे,
सैकड़ों वर्ष रहा शम्भु करमें प्रचंड ये ॥
कामदेव त्रिपुरारी जैसे शत्रु मण्डल को,
देकरके दण्ड रहा करता खंड खंड ये॥
राजा के कुमार होके बात करै पागलों सी,
लक्ष्मण धनुहीं समान कहीं 'अजगव' अखंड ये'

लक्ष्मण जी - "पहले 'नत मारे जै हैं' सब राजा" सुनकर मुस्कराये अब नृप बालक कालवश बोलत तोहिन सँभार" इतना कहने पर तो लक्ष्मणजी हंस पड़े और बोले, यह तो आप अपनी समझ की बात कहते हैं, हमारी समझ जैसे वे धनुहियाँ थी वैसा ही यह धनुष था। 

 राम कथा हिंदी में लिखी हुई-29 ram katha in hindi written

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