[ मनुष्य की अज्ञानता ]
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geeta gyan ki baatein |
तुमने अद्वितीय अविनाशी आत्मा को तत्व रूप से जान लिया है ! तुम आत्मग्य हो ,धीर हो फिर धन कमाने में तुम्हारी प्रीति क्यों है ?
जैसे सीप को ना जानने से उसे चांदी समझकर चांदी का लाभ होता है, वैसे ही अपने स्वरुप को ना जानने से ही , विषयों में उन्हें सच समझने के कारण प्रीति होती है |
जिस परम शक्ति से यह संपूर्ण ब्रह्मांड चलायमान हो रहा है, वह परमात्मा सब के अंदर है ऐसा जान कर भी तुम दीन हीन के समान क्यों दौड़-धूप कर रहे हो ?
मैं अत्यंत सुंदर शुद्ध चेतन हूं, ऐसा गुरु एवं शास्त्र से श्रवण करके भी जो काम भोग में अत्यंत आसक्त है , उसे मालीनता की प्राप्ति होती है |
यह बड़ा आश्चर्य है कि संपूर्ण दृश्य पदार्थों में अपने को और अपने में समस्त दृश्य पदार्थों को जानने वाले विवेकशील पुरुष के चित्त में भी ममता बनी रह जाती है |
परम अद्वैत वस्तु मे निष्ठा होने पर, एवं आत्मा का दृढ़ निश्चय हो जाने पर भी बड़े आश्चर्य की बात है कि पूर्वाभ्यास के कारण तुम काम के अधीन होकर विकल हो जाते हो |
बड़े आश्चर्य की बात है कि ज्ञान के शत्रु काम से ग्रस्त होकर तुम कमजोर हो जाते हो और समय पर कर नष्ट हो जाने वाले भोग की आकांक्षा करते हो |
नित्यानित्य वस्तु विवेकी, लौकिक- पारलौकिक भोगों से विरक्त एवं मुमुक्षु पुरुष भी मोक्ष( संसार की छूट जाने से) से डरता है यह बड़े आश्चर्य की बात है |
धीर पुरुष भोग अथवा पीडा पाकर भी सर्वदा केवल आत्म दृष्टि रखता है, वह ना तुष्ट होता है, ना रुष्ट होता है |
महापुरुष तो कर्म में लगे हुए अपने शरीर को दूसरे शरीर के समान समझता है , स्तुति या निंदा उसे छोभ क्यों होगा ?
स्थितप्रज्ञ एवं आश्चर्य रहित पुरुष इस विश्व को जादू का खेल समझता है, मौत को सामने देखकर भी भला मैं क्यों डरेगा ?
जिस महात्मा पुरुष का चित्त मोक्ष पद के लिए भी विचलित नहीं होता , उस आत्मज्ञान तृप्त की समता भला किसके साथ की जा सकती है ?
जो सहज ही यह जानता है कि यह संपूर्ण दृश्य वस्तुतः कुछ नहीं है, वह स्थितप्रज्ञ भला यह क्यों देखने लगा कि यह ग्राह्य है और यह त्याज्य है ?
जिसने अपने अन्तः करण से वासनाओं का रंग धो दिया है, सुख-दुखादि द्वन्दों को भगा दिया है और आशा तृष्णा को नष्ट कर दिया है, उसके सामने प्रारब्ध वश जो भोग आते हैं, उससे उसे ना सुख होता है ना दुख होता है |