[ संत की महिमा ]
संत मंसूर/HINDI STORY
भोगों से मुंह मोड़ कर, दल बंदियों और मूढ आग्रहों से निकलकर भगवान के मार्ग पर चलने वाले, मानव रत्नों पर भोग वादी और दल वादी लोगों का रोष हुआ ही करता है और उनके द्वारा ही दी हुई यंत्रणाओं को, उन्हें भगवान की भेजी हुई उपहार सामग्री मानकर सिर चढ़ाना ही पड़ता है |
भक्तराज प्रहलाद, महात्मा इसा, भक्त हरिदास आदि इसके ज्वलंत उदाहरण हैं |
मसूंर भी इसी श्रेणी के संत थे , मंसूर की दृष्टि में एक ब्रम्ह सत्ता के अतिरिक्त और कुछ रहा ही नहीं था , इससे वे सदा अनलहक, मैं ही ब्रह्म हूँ ऐसा कहा करते थे | दलवादी खलीफा को यह सहन नहीं हुआ , खलीफा ने हुक्म दिया कि जब तक यह अनलहक, बोलता रहे इसे लकड़ियों से पीटा जाए और फिर इसे मार डाला जाए | लकड़ी की प्रत्येक मार के साथ मंसूर के मुख से वही अनलहक, शब्द निकलता था उन्हें जल्लाद सूली के पास ले गया, पहले हाथ काट डाले और फिर पैर काटे गए ,
अपने ही खून से अपने हाथों को रंग कर मंसूर बोले---
यह एक प्रभु प्रेमी की वजू है | जल्लाद जब इनकी जीभ काटने को तैयार हो गया, तब यह बोले जरा ठहर जाओ, मुझे कुछ कह लेने दो-- हे मेरे परमेश्वर जिन्होंने मुझको इतनी पीड़ा पहुंचाई है, उन पर तू नाराज मत होना ,उन्हें सुख से वंचित मत करना उन्होंने तो मेरी मंजिल को कम कर दिया अभी यह मेरा सिर काट डालेंगे, तो मैं सूली पर से तेरा दर्शन कर सकूंगा| यही तो संत की महिमा है !!