सात द्वीप और वहां स्थित भगवत भक्त
श्री प्रियव्रत के रथ के पहिए से जो लीकें बनीं, वे ही सात समुद्र हुए हैं और उनसे एक ही भूमंडल सप्तद्वीपों में विभक्त हो गया |
प्लक्षद्वीप➡ इसका विस्तार दो लाख योजन है, यह खारे समुद्र को चारों ओर से परिवेष्टित किए हैं | इसमें ग्यारह सौ योजन ऊंचा और इतने ही विस्तार वाला सुवर्णमय प्लक्ष्य ( पाकर ) का वृक्ष है ! इसी कारण इसका नाम प्लक्षद्वीप हुआ | यह अपने ही समान परिमाण और विस्तार वाले इक्षुरस समुद्र से घिरा हुआ है | श्री प्रियव्रत जी के पुत्र इध्मजिह्व जी इसके अधिपति हैं |
शाल्मलिद्वीप➡ इसका विस्तार चार लाख योजन है, यह एक इक्षुरसके समुद्र को चारों ओर से परिवेष्टित किए है, इसमें प्लक्षद्वीप के पाकर के ही समान शाल्मलि ( सेमर ) का वृक्ष है | कहते हैं यही वृक्ष अपने वेदमय पंखों से भगवान की स्तुति करने वाले पक्षीराज गरुड़ जी का निवास स्थान है तथा यही इस द्वीप के नामकरण का भी हेतु है | यह अपने ही समान परिमाण और विस्तार वाले मदिरा के सागर से घिरा है | श्री प्रियव्रत पुत्र यज्ञ बाहु इसके अधिपति हैं |
कुशद्वीप➡ मदिरा के समुद्र से आगे, उसके चारों ओर से घेरे हुए आठ लाख योजन विस्तार वाला कुशद्वीप है, पूर्वोक्त दीपों के समान यह भी अपने ही समान विस्तार वाले घृत के समुद्र से घिरा हुआ है, इसमें भगवान का रचा हुआ एक कुशों का झाड़ू है | उसी से इस द्वीप का नाम कुशदीप हुआ | श्री प्रियव्रत पुत्र महाराज हिरण्यरेता इसके अधिपति हैं |
क्रौंचद्वीप➡ घृत समुद्र के आगे उसके चारों ओर उससे द्विगुण परिमाण वाला अर्थात सोलह लाख योजन विस्तार वाला क्रौंचद्वीप है | यह अपने समान परिमाण वाले दूध के समुद्र से घिरा हुआ है, यहाँ क्रौंच नाम का बहुत बड़ा पर्वत है उसी के कारण इसका नाम क्रौंच द्वीप हुआ है | श्रीप्रियव्रतपुत्र घृतपृष्ठ इसके अधिपति हैं |
शाकद्वीप➡ क्षीरसमुद्र के आगे उसके चारों ओर बत्तीस लाख योजन विस्तार वाला शाकदीप है, जो अपने ही समान परिमाण वाले मट्ठे के समुद्र से घिरा है | इसमें शाक नाम का एक बहुत बड़ा वृक्ष है , उसकी मनोहर सुगंध उसे पूरा शाकद्वीप महकता रहता है | इसी से इस द्वीप को शाकद्वीप कहते हैं, श्री प्रियव्रतपुत्र मेधातिथि जी इसके अधिपति हैं |
पुष्करद्वीप➡ मट्ठे के समुद्र से आगे उसके चारों ओर उससे दुगने विस्तार वाला पुष्कर द्वीप है, जो अपने ही समान विस्तार वाले मीठे जल के समुद्र से घिरा है | वहां अग्नि की शिखा के समान देदीप्यमान लाखों स्वर्णमय पंखुड़ियों वाला एक बहुत बड़ा पुष्कर ( कमल ) है , जो ब्रह्मा जी का आसन माना जाता है | इसीसे इस द्वीप का नाम पुष्कर द्वीप पड़ा | श्री प्रियव्रत पुत्र वीतिहोत्र इसके अधिपति है |
लोकालोक पर्वत➡ मीठे जल के समुद्र से आगे नौ करोड़ छियानबे लाख पचास हजार योजन के बाद, लोकालोक पर्वत है | यह सूर्य आदि से प्रकाशित एवं अप्रकाशित भूभागों के बीच में है | इससे इसका नाम लोकालोकपर्वत पर्वत पड़ा, इसे परमात्मा ने त्रिलोकी के बाहर उसके चारों और सीमा के रूप में स्थापित किया है |यह इतना ऊंचा और लंबा है कि इसके एक ओर से तीनों लोकों को प्रकाशित करने वाली सूर्य से लेकर ध्रुवपर्यन्त समस्त ज्योति मंडल की किरने दूसरी ओर नहीं जा सकती | यह साढ़े बारह करोड़ योजन विस्तार वाला है |
कंचनधर टापू➡ मीठे जल के समुद्र से आगे एक करोड़ सत्तावन लाख , पचास हजार योजन भूमि के उपरांत कांचनी भूमि है, जो दर्पण के समान स्वक्ष है | यहां देव कोटि के लोग रहते हैं | इसका विस्तार आठ करोड़ उनतालीस लाख योजन है |