भक्ति किस प्रकार करनी चाहिए,भक्तिपथके सहायक,भगवान की भक्ति किस प्रकार की जाती है

भक्ति किस प्रकार करनी चाहिए
[ भक्तिपथके सहायक ]
भक्ति किस प्रकार करनी चाहिए भक्ति किस प्रकार करें भक्ति किस प्रकार होती है भक्ति किस प्रकार करना चाहिए भक्ति किस प्रकार की जाए तुलसी की भक्ति किस प्रकार की थी तुलसी की भक्ति किस प्रकार की है भगवान की भक्ति किस प्रकार की जाती है भगवान की भक्ति किस प्रकार करनी चाहिए भगवान की भक्ति किस प्रकार होती है भगवान की भक्ति किस प्रकार की किस प्रकार मिली बाणासुर को भक्ति हनुमान जी की भक्ति किस प्रकार से की जाए
आत्मचिन्तन भक्तिपथका प्रधान सहायक है। प्रत्येक दिन यदि हम विचार करें कि हम किस प्रकार जीवनयापन करते हैं, कितना सत्कर्म करते हैं, कितना असत्कर्म करते हैं, पापके साथ किस प्रकार संग्राम करते हैं तो हम अपनी यथार्थ अवस्था देखकर सिहर उठेंगे । इस प्रकार जो अपनी यथार्थ अवस्थाको समझते हैं, वे ही भगवान्के शरणापन्न होनेके लिये व्याकुल होते हैं। यही भक्तिका प्रथम सोपान है। जैसे कुसङ्ग भक्तिपथका कण्टक है, उसी प्रकार सत्सङ्ग भक्ति-पथका सहायक है। साधुजन अपने सदुपदेशरूपी किरण-मालाके द्वारा लोगोंके हृदयके पापरूपी अन्धकारको पूर्णतया नष्ट कर देते हैं। जो लोग प्राणोंसे भगवच्चर्चा करते हैं, उनकी चरणधूलि ग्रहण करना हमारा कर्तव्य है । इस प्रकारके व्यक्तिके पास उपस्थित होते ही फल प्राप्त होता है। सङ्ग निश्चय ही रंग लाता है। साधुसङ्गसे जो उपकार होता है उसका दृष्टान्त है—जगाई-मधाईका उद्धार ।
जो जिस देवताका उपासक है वह उसी देवताकी पूजा___ आराधना करके भक्तिलाभ कर सकता है। जिनका मूर्तिमें विश्वास नहीं होता, उनके लिये प्रकृतिमें भगवान्को उपलब्ध करके उनका चिन्तन और लीला-कीर्तन आदि करना ही श्रीकृष्ण-सेवा है । विश्वमय भगवान्के आश्चर्य रचना-कौशल और विविध क्रीड़ाको देखकर किसका प्राण उसमें डूब नहीं जाता ? धर्मग्रन्थोंका पठन और श्रवण विशेष उपकारी होता है। भगवान्के स्वरूपका वर्णन, लीला-कीर्तन, भक्ति-प्रचार और भक्तोंके चरित्र जिन ग्रन्थों में प्रचुर परिमाणमें पाये जायँ, उनका अध्ययन और श्रवण करनेपर मन भक्तिपथमें अग्रसर होता है।

नाम-कीर्तन, श्रवण और जप भक्तिपथके प्रधान सहायक हैं। 

जिन्होंने भगवान्के नाम और लीला कीर्तनरूपी व्रतका अवलम्बन किया है, उस प्रियतम भगवान्का नाम-कीर्तन करते-करते उनके हृदयमें अनुरागका उदय होता है और चित्त द्रवीभूत हो जाता है । बन्धु-बान्धवोंको साथ लेकर प्रतिदिन किसी समय नाम-संकीर्तन करनेके समान आनन्दका व्यापार और कुछ भी नहीं है। सचमुच ही उस समय आनन्द-सागर उमड़ उठता है, प्राणोंमें शान्ति प्राप्त होती है, विषयवासना अन्ततः उस समय तिरोहित हो जाती है। नाम-संकीर्तन करते-करते प्रेमका संचार और पापका नाश होता है।
नाम-जप करनेके लिये नामका अर्थ और शक्ति जान लेनी चाहिये । जो जिस नामका मन्त्रके रूपमें जप करते हैं उनको उसका अर्थ और शक्तिको जान लेना आवश्यक है। जो साधक मन्त्रका अर्थ और शक्ति नहीं जानता, वह सौ-सौ बार जप करनेपर भी मन्त्र सिद्ध नहीं कर पाता। क्रमशः नाम-जप करनेपर जो लाभ होता है, उसको भक्त कबीरने अपने जीवनमें समझ पाया था। कबीर अपने एक दोहेमें कहते हैं
( कबीर )
 तू तूं करता तूं भया मुझमें रही न हूँ । 
बलिहारी उस नाम की जित देखू तित तूं ॥
जप करते-करते साधक इस अवस्थाको प्राप्त होता है, भगवान्में डूब जाता है, चारों ओर भगवान्के सिवा और कुछ नहीं देख पाता, उसे समस्त ब्रह्माण्डमय भगवत्स्फूर्ति होने लगती है। तीर्थ-भ्रमण या तीर्थमें वास करनेसे हृदयमें भक्तिका भाव जागरित होता है।

तीर्थको पुण्यभूमि क्यों कहते हैं ? 

भूमिका कुछ अद्भुत प्रभाव, जलका कोई अद्भत तेज अथवा मुनियोका अधिष्ठान होनेके कारण तीर्थ पुण्यस्थान कहलाते हैं। ज्वालामुखी तीर्थमें पहाड़से निकलनेवाली अमिशिखा, सीताकण्डमें उष्ण जलका प्रस्रवण, केदारनाथमें तुषारमण्डित गिरिशृङ्ग, हरद्वारमें प्रसन्नसलिला भागीरथीका दर्शन करनेपर किसके प्राण भक्तिरससे आप्लुत नहीं हो जाते ? और वृन्दावनमें श्रीकृष्णका स्मरण करके, नवद्वीपमें श्रीगौराङ्गकी लीलाका ध्यान करके, अयोध्यामें श्रीरामचन्द्र के कीर्ति-चिह्नको देखकर किसके हृदयमें पवित्र भावका उदय नहीं होता ? और केवल साधु-स्मृतिकी बात ही क्यों कहें ? तीर्थस्थलोंमें महापुरुषोंका साक्षात्कार प्राप्त कर कितने लोग कतार्थ हो गये है।

यह याद करनेपर भी प्राणोंमें भक्ति का संचार होता है।

बिना बिचार किये कोई कार्य न करो, किसी गलत विचारको मनमे स्थान न दो, भगवानको निवेदन बिना किये  कोई वचन न बोलो, किसी विचारको यदि हम इस प्रकारके भावको एक बार पालन कर सकें तो अपने-आप प्राण भक्तिसे भर जायँगे।  भक्ति-रस जब ईश्वरमें निष्ठा होती है, जब संसारासक्ति जाती है, तभी मन शान्त होता है। शान्तरस प्रथम सोपान है । परमेश्वर परम ब्रह्म परमात्मा हैंज्ञान भक्त के चित्तमें शान्तरसमें उदय होता है। दास्यरतिमें भक्तके मनमें ममताका संचार होता है। वह भगवानकी सेवा करने में व्यस्त होता है । श्रीकृष्ण-सेवाके सिवा उसको और कुछ अच्छा नहीं लगता । वह भगवानसे कुछ भी कामना नहीं करता, केवल उनकी सेवा करना चाहता है। सख्यरतका प्रधान लक्षण यह है कि भक्त के सामने भगवान्की अपेक्षा और कोई प्रियतर नहीं होता।
गुहराज कहते हैं—पृथ्वीपर रामकी अपेक्षा कोई मेरा प्रियतर नहीं ।' जो भक्त प्राणोंके भीतर भगवान्के साथ क्रीड़ा करता है, वही सख्यरसकी माधुरीका उपभोग कर सकता है। सख्य-रतिमें भक्त भगवान्को अपना अलङ्कार बना लेता है । वृन्दावनके मार्गमें अन्ध बित्वमङ्गलके पथप्रदर्शक श्रीकृष्ण बलपूर्वक जब उनका हाथ छुड़ाकर चले जाते हैं, तब बिल्वमङ्गल कहते हैं--
हस्तमुरिक्षप्य यातोऽसि बलात् कृष्ण किमद्भुतम् । 
हृदयाद् यदि निर्यासि पौरुषं गणयामि ते ॥
श्रीकृष्ण ! तुम बलपूर्वक हाथ छुड़ाकर चले जाते हो इसमें आश्चर्य क्या है ? हृदयसे यदि तुम दूर हो सको। तब मैं जानूँ कि तुम्हारेमें बल है ।' भक्तने अपने सखाका सर्वथा हृदयका अलङ्कार बनाकर बाँध रक्खा है। अब भगवान्के लिये भागनेका रास्ता नहीं है!
वात्सल्य-रसमें भगवान् गोपाल हैं। भक्त उनको पुत्र के समान प्यार करता है, स्नेह करता है, गोदमें ले लेता है। माता यशोदाके सामने भगवान् गोपाल-वेशमें उपस्थित होकर प्रेमभिक्षा करते थे, वह उनको थोड़ा-सा प्रेम दिखला कर फिर विमुख कर देते थे। फिर यदि वही अन्तर्निहित  हो.जाते थे  तो गोपालके वियोगमें भक्त अनुतापसे छटपटाने लगते थे।
 प्राणोंमें मधुर रसका संचार होनेपर-सती जैसे पति के सिवा दूसरेको नहीं जानती' -भक्त भी उसी भगवान्के सिवा और किसीको नहीं जानता। इस अवस्था में भक्त और भगवान् सती और पति हैं।

महाप्रभु चैतन्य  इसी भावमें बेसुध हो गये थे। 

चैतन्य और भगवान राधा और श्रीकृष्ण हैं, जीवात्मा और परमात्मा जो इस मधुररसमें डूब गया है उसके फिर बाहरके कर्म नहीं रह जाते । वह वेदविधि छोड़ चुका ।'
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