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निष्काम कर्मयोग की व्याख्या करें,निष्काम कर्मयोग क्या है,गीता का निष्काम कर्मयोग

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[ निष्काम कर्मयोग ]
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निष्काम कर्मयोग क्या है ?
यह संसार कर्मभूमि है। स्वयं भगवान् महाकर्मी हैं। वे इस ब्रह्माण्ड-गृहके महागृहस्थ हैं । स्थावर-जङ्गमात्मक विश्वव्यापी इस महापरिवारमें जिसको जिस वस्तुकी आवश्यकता है, उसको वह वस्तु ठीक तौरसे प्रदान करनेका प्रभु सदा प्रबन्ध करते रहते हैं। इस संसारमें कर्मके बिना कोई ठहर नहीं सकता । आत्म-रक्षा और जगत्-रक्षाके लिये सभी कर्मचक्रमें घूम रहे हैं । निष्काम कर्मयोगके सिवा हमारे उद्धारका और कोइ मार्ग नहीं है । जातीय उत्थान-पतन कभी कर्मनिरपेक्ष नहि हो सकता । भारतवर्ष जबसे निष्काम कर्मके उच्च आदर्श को भूल गया, तभीसे इस देशकी अधोगति प्रारम्भ हुई,  कर्मको अन्तर्मुख कर लेनेपर जैसे उसके द्वारा बाहरी मंगल -साधन होता है, उसी प्रकार भीतरका मङ्गल भी संसाधित होता है। कर्मकुण्ठ, अकाल संन्यासी, और कर्मासक्त घोर विषयी किसीके लिये भी यह धारणाका विषय नहीं रह गया। भगवान् सच्चिदानन्द हैं। हमारे जीवनमें भी इस सच्चिदानन्दकी लीला चलती है । हम जबतक अपने हृदयोंमें इस सच्चिदानन्दको प्रतिष्ठित नहीं करेंगे, तबतक कर्मयोग' कर्मभोग में ही पर्यवसित होगा। जगत्में व्याप्त होकर क्रमशः आंशिक भावमें जो सच्चिदानन्दकी प्रतिष्ठा हो रही है, इसको कोई अस्वीकार नहीं कर सकता।
महाभारतमें विदुरने कहा है- 'जो सब भूतोंका हितोत्पादक है, वही हमारे लिये सुखप्रद होगा । कर्ताके लिये यही सर्वार्थसिद्धिका मूल है ।'
दार्शनिकचूड़ामणि काण्टने भी यही बात कही है- इस प्रकार कर्म करो कि तुम्हारे कर्मका मूलसूत्र सार्वभौम विधिके रूपमें ग्रहण किया जा सके ।'
सुप्रसिद्ध जोसेफ मैजिनीने कार्यकर्ताओंको उपदेश दिया है- 'तुम परिवारके लिये या देशके लिये जो काम करने जा रहे हो, उस प्रत्येक कार्यके पहले अपनेसे पूछो, मैं जो करने जा रहा हूँ, वह यदि सभी लोग करते तथा सबके लिये किया जाता तो उसके द्वारा समस्त मानव-समाजका लाभ होता या हानि ? यदि तुम्हारा विवेक कहता है कि हानि होती तो उस कार्यको मत करो, यदि उसके द्वारा स्वदेश तथा स्वपरिवारका आपाततः कोई लाभ भी होता हो तथापि उस कार्यको मत करो।
अहङ्कारसे हानि-- 
ऋषियोंने, भक्तोंने इस देशकी अस्थि-मज्जामें सात्विक भाव इतनी दृढ़तासे प्रविष्ट करा दिया था कि आज भी साधारण किसान तीर्थ-भ्रमण करके लौटनेपर अपनी तीर्थयात्राके विषयों में  कुछ वर्णन करनेके लिये इच्छुक न होगा, क्योंकि ऐसा करनेसे उसके मनमें अहंकार उत्पन्न हो जायगा। आज भी ऐसे बहुत-से लोग हैं जो समाचारपत्रों में नाम न छपे, इस कारण बहुत गुप्त रीतिसे दान देते हैं।
कर्ताके श्रीचरणोंमें प्रार्थना करता हूँ, किसी जातिके प्रति हिंसा-द्वेषसे दग्धबुद्धि होकर हम कहीं निःसार बाह्य उन्नतिके मोहसे मुग्ध न हों। हम ऋषिनिर्दिष्ट सात्त्विक लक्ष्यको स्थिर करके शुभेच्छाके द्वारा समस्त भूखण्डको व्याप्त करें। हमारा सारा व्यक्तिगत, जातीय और राष्ट्रिय उद्यम, अनुष्ठान और प्रचेष्टा केवल विष्णुप्रीत्यर्थ हो ।'
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