[ स्वामी विवेकानंद के विचार ]
thoughts of swami vivekananda in hindi

[ स्वामी विवेकानंद के विचार ]
thoughts of swami vivekananda in hindi
वेदोंने काल-शार्दूलके पंजेसे छूटनेका उपाय बताया है । भगवान् श्रीकृष्णने, जिन्हें हम हिंदू परमात्माका पूर्णावतार मानते हैं, भवसागरसे तरनेकी रीति बतायी है। सृष्टिके सब नियम जिसके अनुरोधसे चलते हैं, जो जड और चेतनमें भरा हुआ है, जिसकी आज्ञासे वायु बहता है, आग जलाती मेघ जल बरसाते हैं और मृत्यु हरण करती है, उस परमात्मा की पूजा करो। उसीकी ऋषिलोग प्रार्थना करते हैं वे सर्व व्यापी दयामय ! तू हमारा पिता, तू ही हमारी माता, तू ही बंधू तू ही मित्र और संसारकी सब शक्तियोंका अधिष्ठाता है ,तू सब विश्वका भार सहता है, हम तेरे पास इस जीवन का भार सहनेकी शक्तिके लिये याचना करते हैं । इस जन्म तथा अन्य जन्ममें उससे बढ़कर और किसीपर प्रेम न हो, यह भावना मनमें दृढ़ कर लेना ही उसकी पूजा करना है । मनुष्यको संसारमें कमल-पत्रके समान अलिप्त रहना चाहिये। कमल-पत्र जलमें रहकर भी नहीं भीगता; इसी तरह कर्म करते हुए भी उससे उत्पन्न होनेवाले सुख-दुःखसे यदि मनुष्य अलग रहे तो उसे निराशासे सामना नहीं करना होगा । सब काम निष्काम होकर करो, तुम्हें कभी दुःख न होगा।
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आत्मा पूर्ण ईश्वरस्वरूप है। जड शरीरसे उसके बद्ध होनेका आभास होता है सही, पर उस आभासको मिटा देनेसे वह मुक्त-अवस्थामें देख पड़ेगा। वेद कहते हैं कि जीवन: मरण, सुख-दुःख, अपूर्णता आदिके बन्धनोंसे छूटना ही मुक्ति है। उक्त बन्धन बिना ईश्वरकी कृपाके नहीं छूटते और ईश्वरकी कृपा अत्यन्त पवित्र-हृदय बिना हुए नहीं होती। जब अन्तःकरण सर्वथा शुद्ध और निर्मल अर्थात् पवित्र हो जाता है, तब जिस मृत्पिण्ड देहको जड या त्याज्य समझते हो, उसीमें परमात्माका प्रत्यक्षरूपसे उदय होता है और तभी मनुष्य जन्म-मरणके चक्रसे छूट जाता है । केवल कल्पनाचित्र देखकर या शब्दाडम्बरपर मुग्ध होकर हिंदू समाधानका अनुभव नहीं करते । दस इन्द्रियोंद्वारा जो न जानी जाती हो, ऐसी किसी वस्तुपर हिंदुओंका विश्वास बिना अनुभव किये न होगा । जड-सृष्टिसे अतीत जो चेतन तत्त्व है, हिंदू उससे बिना किसी बिचवईके (प्रत्यक्ष ) मिलेंगे । किसी हिंदू साधुसे पूछिये 'बाबाजी, क्या परमेश्वर सत्य है ?? वह आपको उत्तर देगा निःसंदेह सत्य है, क्योंकि उसे मैंने देखा है।' आत्मविश्वास ही पूर्णताका बोधक है। हिंदू-धर्म किसी मतको सत्य या किसी सिद्धान्तको मिथ्या कहकर अंधश्रद्ध बननेको नहीं कहता। हमारे ऋषियोंका कथन है कि जो कुछ हम कहते हैं, उसका अनुभव करो उसका साक्षात्कार करो । मनुष्यको परिश्रम करके पूर्ण पवित्र तथा ईश्वररूप बनना चाहिये । ईसाई-धर्ममें आसमानी पिताकी कल्पना की गयी है । हिंदू-धर्म कहता है-उसे अपने में प्राप्त करो, ईश्वर बहुत दूर नहीं है।इसमें संदेह नहीं कि धर्मका पागलपन उन्नतिमें बाधा डालता है; पर अंधश्रद्धा उससे भी भयानक है ।
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ईसाइयोंको प्रार्थनाके लिये मन्दिरकी क्या आवश्यकता है ? क्रॉसके चिह्नमें पवित्रता कैसे आ गयी ? प्रार्थना करते समय आँखें क्यों मूंद लेनी चाहिये ? परमेश्वरके गुणोंका वर्णन करते हुए प्रॉटेस्टेंट ईसाई मूर्तियोंकी कल्पना क्यों करते हैं ? कैथलिक' पन्थवालोंको मूर्तियोंकी क्यों आवश्यकता हुई ? भाइयो ! श्वासनिःश्वासके बिना जैसे जीना सम्भव नहीं, वैसे ही गुणोंकी किसी प्रकारकी मनोमय मूर्ति बनाये बिना उनका चिन्तन होना असम्भव है। हमें यह अनुभव कभी नहीं हो सकता कि हमारा चित्त निराकारमें लीन हो गया है। क्योंकि जड विषय और गुणोंकी मिश्र-अवस्थाके देखनेका हमें अभ्यास हो गया है । गुणोंके बिना जड विषय और जड विषयोंके बिना गुणोंका चिन्तन नहीं किया जा सकता, इसी तत्त्वके अनुसार हिंदुओंने गुणोंका मूर्तरूप-दृश्यस्वरूप बनाया है । मूर्तियाँ ईश्वरके गुणोंका स्मरण करानेवाले चिह्नमात्र हैं । चित्त चञ्चल न होकर सद्गुणोंकी मूर्ति-ईश्वर–में तल्लीन हो जायइसी हेतुसे मूर्तियाँ बनायी गयी हैं । हरेक हिंदू जानता है कि पत्थरकी मूर्ति ईश्वर नहीं है । इसीसे वे पेड़, पक्षी, अमि, जल, पत्थर आदि सभी दृश्य वस्तुओंकी पूजा करते हैं। इससे वे पाषाण-पूजक नहीं हैं।
(वह मूर्तिमें भगवान्को पूजता है)
आप मुखसे कहते हैं 'परमात्मन् ! तुम सर्वव्यापी हो ।' परंतु कभी इस बातका आपने अनुभव भी किया है ? प्रार्थना करते हुए आपके हृदयमें आकाशका अनन्त विस्तार या समुद्रकी विशालता क्या नहीं झलकती? सभी में वही सर्वव्यापी' शब्दका दृश्यस्वरूप है।
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