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स्वामी विवेकानंद के विचार इन हिंदी,स्वामी विवेकानंद प्रेरणादायक विचार

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स्वामी विवेकानंद प्रेरणादायक विचार
मैं एक बार काशी गया था। वहाँके एक मन्दिरमें बहुतसे हष्ट-पुष्ट और उपद्रवी बंदर थे । मैं दर्शन कर मन्दिरसे बाहर निकला और ऐसे तंग रास्तेसे चला कि जहाँ एक ओर बड़ा भारी तालाब और दूसरी ओर बहुत ऊँची दीवार थी। बंदरोंने बीच रास्तेमें मुझे घेर लिया। अब मैं वहाँसे भागा। मुझे भागते देख बंदर और भी मेरे पीछे पड़ गये और काटने भी लगे। यह तमाशा देख दूर खड़े हुए एक आदमीने कहा- आप डरकर भागते क्यों हैं ? उनसे निर्भय हो सामना कीजिये, वे आपसे खुद डरकर भाग जायेंगे ।' मैंने ऐसा ही किया और सब बंदर धीरे-धीरे भाग गये। यही बात संसारकी है । अनेक विघ्न-बाधाओंसे-ईश्वरके भयानक रूपसे हम डरकर भाग जायँगे तो मुक्तिसे हाथ धो बैठेंगे । हम विपत्तियोंसे जितना डरेंगे, उतना ही वे हमें चक्करमें डाल देंगी। भय, दुःख और अज्ञानका डटकर सामना कीजिये । किसी कविने कहा है--

'नहीं जो खारसे डरते वही उस गुलको पाते हैं।"

परमात्मा सुख और शान्तिमें निवास करता है, यह बात सत्य है, तो फिर दुःख तथा विपत्तियोंमें उसका अस्तित्व क्यों न माना जाय । दुःखोंसे डरना रस्सीको साँप समझकर डरनेके बराबर है । आनन्ददायक और दुःखकारक, नयनमनोहर और भयानक सभी तरहकी वस्तुओंमें ईश्वरका वास है। जब सबमें आपको परमात्मा दीख पड़ेगा, तब किस दुःख या संकटकी मजाल है जो आपके सामने भी खड़ा रहे। भेदबुद्धि नष्ट होकर जब नरक और स्वर्ग एक-से ही सुखदायक हो जायँगे, तब सब विघ्न-बाधाएँ अपने-आप मुक्तिके दरवाजेसे हटकर आपका रास्ता साफ बना देंगी और तभी आपकी सत्य स्वरूपसे सेंट होगी। भिन्नता दूरकर समता बढ़ाइये। भयके अन्धकारसे निर्भयताके प्रकाशमें चले आइये ।
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हम मुँहसे लंबी-चौड़ी बातें करते और तत्त्वज्ञानकी सरिता बहा देते हैं । परंतु सामान्य कारणोंसे क्रोधसे लाल हो अहंकारके अधीन हो जाते हैं । उस समय क्षुद्र देहका अहंकार ही सृष्टिका चेतन बन जाता है । चेतनको इतना क्षुद्र बना लेना मानवजातिकी उन्नतिमें बड़ी भारी बाधा है। ऐसी अवस्थामें हमें सोचना चाहिये कि मैं निस्सीम चेतन हूँ, मुक्त हूँ। क्रोध और क्रोधका कारण भी मैं ही हूँ, फिर व्यर्थ अहंकारके वशीभूत होना क्या मेरे लिये उचित है ? -
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परमेश्वरकी प्रार्थना करते समय हम अपना सारा भार उनको सौंपते हैं और दूसरे ही क्षण क्रोध और अभिमानके वशीभूत होकर उसे छीन लेते हैं। इस प्रकार कहीं उनकी उपासना होती है ? सच्ची पूजा तलवारकी धारपर चलने अथवा खड़े पहाड़पर सीधे चढ़नेके समान कठिन है । इस कठिनताको तुच्छ जान जो अपना रास्ता तय करता है,
वही स्वानंदसाम्राज्य  तक पहँचता है । विघ्न-बाधाओंसे डरना त्रैलोक्य विजयी  सच्चे वीरका काम नहीं, वह तो ऐसी आपत्तिको ढूढ़ा ही करता है। सच्चे हृदयसे यत्न कीजिये, आपको अमृत के बदले विषकी घूंट पीनी नहीं पड़ेगी। हम देव और दैत्य दोनों स्वामी होनेके योग्य हैं। हमें परमात्मासे यही प्रार्थना करनी चाहिये— सर्वव्यापिन् ! हम तुम्हें सर्वस्व अर्पण कर चुके हैं। हमारे अच्छे-बुरे कर्म पाप-पुण्य, सुख-दुःख-सभी तुम्हें समर्पित हैं।
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हमारे यत्न हजारों चित्तोंपर प्रभुत्व प्राप्त करनेके लिये हो रहे हैं। परंतु दुःखकी बात है कि हजारों चित्त हमपर ही प्रभुत्व दिखा रहे हैं। सुखदायी वस्तुओंका रसास्वाद लेनेकी हमारी इच्छा है, परंतु वे ही वस्तुएँ हमारा कलेजा खा रहे हैं । सृष्टिकी सारी सम्पत्ति हजम कर जानेके हमारे विचार हैं । परंतु सृष्टि ही हमारा सर्वस्व छीन रही है। ऐसी विपरीत बातें क्यों होती हैं ? हम कर्ममें आसक्ति रखते हैं-सृष्टिके जाल में  अपने-आप जा फँसते हैं यही इस विपत्तिका कारण है।
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