[ स्वामी विवेकानंद के विचार लिखित में ]
स्वामी विवेकानंद के विचार लिखित में
कुटुम्बी-मित्र, धर्म-कर्म, बुद्धि और बाहरी विषयों के प्रति लोगोंकी जो आसक्ति देखी जाती है, वह केवल सुख . प्राप्ति के लिये है। परंतु जिस आसक्तिको लोग सुखका साधन समझ बैठे हैं, उससे सुखके बदले दुःख ही मिलता है। बिना अनासक्त हुए हमें आनन्द नहीं मिलेगा । इच्छाओंका अंकुर हृदयमें उत्पन्न होते ही उसे उखाड़कर फेंक देनेकी जिनमें शक्ति है, उनके समीप दुःखोंकी छायातक नहीं पहुँच सकती। अत्यन्त आसक्त मनुष्य उत्साहके साथ जिस प्रकार कर्म करता है, उसी प्रकार कर्म करते हुए भी उससे एकदम नाता तोड़ देनेकी जिसमें सामर्थ्य है, वही प्रकृतिद्वारा अनन्त सुखोंका उपभोग कर सकता है। परंतु यह दशा तब प्राप्त हो सकती है, जब कि उत्साहसे कार्य करनेकी आसक्ति और उससे पृथक होनेकी अनासक्तिका बल समान हो। कुछ लोग बिल्कुल अनासक्त देख पड़ते हैं। न उनका किसीपर प्रेम होता है और न वे संसारमें ही लीन रहते हैं। मानो उनका हृदय पत्थरका बना होता है । वे कभी दुखी नहीं दीख पड़ते । परंतु संसारमें उनकी योग्यता कुछ भी नहीं है, क्योंकि उनका मनुष्यत्व नष्ट हो चुका है। इस दीवारने जन्म पाकर कभी दुःखका. अनुभव न किया होगा और न इसका किसीपर प्रेम ही होगा। यह आरम्भसे अनासक्त है। परंतु ऐसी अनासक्ति से तो आसक्त होकर दुःख भोगना ही अच्छा । पत्थर बनकर बैठने से दुःखोंसे सामना नहीं करना पड़ता—यह बात सत्य है परंतु फिर सुखोंसे भी तो वञ्चित रहना पड़ता है। यह केवल चित्तकी दुर्बलतामात्र है । यह एक प्रकारका मरण है । जड बनना हमारा साध्य नहीं है । आसक्ति होनेपर उसका त्याग करनेमें पुरुषार्थ है । मनकी दुर्बलता सब प्रकारके बन्धनोंकी जड़ है । दुर्बल मनुष्य संसारमें तुच्छ गिना जाता है, उसे यशः-प्राप्तिकी आशा ही न रखनी चाहिये । शारीरिक और मानसिक दुःख दुर्बलतासे ही उत्पन्न होते हैं। हमारे आस-पास लाखों रोगोंके कीटाणु हैं; परंतु जबतक हमारा शरीर - सुदृढ़ है तबतक उसमें प्रवेश करनेका उन्हें साहस नहीं होता । जबतक हमारा मन अशक्त नहीं हुआ है, तबतक दुखो की क्या मजाल है जो वे हमारी ओर आँख उठाकर भी देंखे । शक्ति ही हमारा जीवन और दुर्बलता ही मरण है । मनोबल ही सुखसर्वस्व, चिरन्तन जीवन और अमरत्व तथा दुरबलता ही रोगसमूह, दुःख और मृत्यु है।
स्वामी विवेकानंद के विचार लिखित में
किसी वस्तु से प्रेम करना-अपना सारा ध्यान उसीमें लगा देना - दूसरोंके हित-साधनमें अपने-आपको भूल जाना - यहां तक कि कोई तलवार लेकर मारने आये, तो भी उस ओर से मन चलायमान न हो—इतनी शक्ति हो जाना भी एक प्रकारका दैवी गुण है । वह एक प्रबल शक्ति है, परंत उसीके साथ मनको एकदम अनासक्त बनानेका गुण भी मनुष्यके लिये आवश्यक है। क्योंकि केवल एक ही गुणके बलपर कोई पूर्ण नहीं हो सकता । भिखारी कभी सुखी नहीं रहते; क्योंकि उन्हें अपने निर्वाहकी सामग्री जुटानेमें लोगोंकी दया और तिरस्कारका अनुभव करना पड़ता है। यदि हम अपने कर्मका प्रतिफल चाहेंगे तो हमारी गिनती भी भिखारियोंमें होकर हमें सुख नहीं मिलेगा। देन-लेनकी वणिकवृत्ति अवलम्बन करनेसे हमारी हाय-हाय कैसे छूट सकती है । धार्मिक लोग भी कीर्तिकी अपेक्षा रखते हैं, प्रेमी प्रेमका बदला चाहते हैं। इस प्रकारकी अपेक्षा या स्पृहा ही सब दुःखोकी जड़ है। कभी-कभी व्यापारमें हानि उठानी पड़ती है प्रेमके बदले दुःख भोगने पड़ते हैं। इसका कारण क्या है ? हमारे कार्य अनासक्त होकर किये हुए नहीं होते-आशा हमें फसाती है और संसार हमारा तमाशा देखता है । प्रतिफल की आशा न रखनेवालेको ही सच्ची यश:-प्राप्ति होती है।
स्वामी विवेकानंद के विचार लिखित में
साधारण तौरसे विचार करनेपर यह बात व्यवहारसे विरुद्ध दीख पड़ेगी; परंतु वास्तवमें इसमें कोई विरोध नहीं, किंतु विरोधाभासमात्र है । जिन्हें किसी प्रकारके प्रतिफलकी इच्छा नहीं, ऐसे लोगोंको अनेक कष्ट भोगते हुए हम देखते हैं। परंतु उनके वे कष्ट उन्हें प्राप्त होनेवाले सुखोंके सामने पासंगेके बराबर भी नहीं होते। महात्मा ईसाने जीवनभर निःस्वार्थभावसे परोपकार किया और अन्तमें उन्हें फाँसीकी सजा मिली। यह बात असत्य नहीं है। परंतु सोचना चाहिये कि अनासक्तिके बलपर उन्होंने साधारण विजय-सम्पादन नहीं किया था। करोड़ों लोगोंको मुक्तिका रास्ता बतानेका पवित्र यश उन्हें प्राप्त हुआ। अनासक्त होकर कर्म करनेसे आत्माको प्राप्त हुए अनन्त सुखके आगे उनका शरीर-कष्ट सर्वथा नगण्य था । कर्मके प्रतिफलकी इच्छा करना ही दुःखोंको निमन्त्रण देना है। यदि आपको सुखी होना हो तो कर्मके प्रतिफलकी इच्छा न कीजिये ।
स्वामी विवेकानंद के विचार लिखित में