[ धर्म प्रवचन ]
आध्यात्मिक शास्त्रीय प्रवचन हिंदी
|| धर्म ।। धर्म की जय क्यों बोलते हैं ? ___ धर्म हमारी सुख और शान्ति का मूल है, जब भी जीवन में हम सुख और शान्ति का अनुभव करते हैं वह हमारे धर्म का ही फल होता है ।धर्म जीव को इस लोक में और परलोक में सब प्रकार की सुख-सुविधा प्रदान करता है । इसलिए धर्म की जय मनाते हैं और अधर्म इसके विपरित है इसलिए उसका नाश मनाते हैं क्योंकि वह दुःख और अशान्ति का मूल है, जब भी जीवन में हम दुःख और अशान्ति का अनुभव करते हैं वह हमारे पाप का ही फल होता है ।
- धर्म शब्द धृञ धारणे धातु से मन् प्रत्यय करने पर बनता है । म, प्रत्यय कर्ता कम और करण में भी होता है । कर्ता में प्रत्यय करेंगे तो व्युतपत्ति इस प्रकार होगी धरति इति धर्म: जो कर्म मे करेगे तो व्युत्पत्ति होगी। धृयते यः स धर्मः । सतपुरूषों के द्वारा जो स्वयं धारण किया जाता है।
वह धर्म है और मन् प्रत्यय जब करण में करेंगे तो व्युत्पत्ति प्रकार होगी घृयते लोकः अनेन स धर्म: जिसके द्वारा लोक धारण किया जाता है उसको धर्म कहते हैं । धर्म वह है जिसको सब लोग चाहते हैं । प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि हमारी स्त्री हमसे सदा सत्य बोले हमारा पुत्र हमसे सत्य बोले, हमारा भाई हमको सच्ची बात बता दे हमारा मित्र हमसे सत्य बोले ।
प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि हमारी कोई निन्दा न करे, हमसे कटु वचन न बोले, हमको दुःख न पहुँचावे, बिना पूछे हमारी कोई वस्तु न ले, हमारी बहन-बेटी को कोई बुरी दृष्टि से न देखे, इन बातों को सभी चाहते हैं । यही धर्म है। इसी बात को भगवान् वेद व्यास जी ने कहा है -
धारणाद् धर्ममित्याहुः धर्मो धारयते प्रजा : ।
प्रजा को धारण करने से धर्म कहा जाता है ।
सत्यात जायते दयया दानेन च वर्धते ।
क्षमायां तिष्ठति क्रोधान्नश्यति ।।
धर्म सत्य से उत्पन्न होता है, दया दान से बढ़ता है, क्षमा में निवास करता है और क्रोध से नष्ट हो जाता है ।
सुखार्थाः सर्वभूतानां मताः सर्वाः प्रवृत्तयः ।
सुखञ्च न बिना धर्मात् तस्माद् धर्म परोभवेत् ।।
प्रातःकाल से सांयकाल तक जन्म से मरण तक प्रणी मात्र की जितनी प्रवृतियां है वे सब सुख तथा शान्ति के लिए होती है और सुख अन्त धर्म के बिना नहीं मिल सकती इसलिए धर्म का आचरण करना चाहिए । श्री तुलसीदास जी महाराज भी कहते हैं -सुख चाहहिं मूढ न धर्मरता ।।
वे प्राणी मूरख है जो सुख चाहते हैं और धर्म का आचरण नहीं करते ।
पुण्यस्य फलमिच्छन्ति पुण्यं नेच्छन्ति जन्तवः ।
फलं पापस्य नेच्छन्ति पापं कुर्वन्ति यत्नतः ।।
पुण्य का फल जो सुख है उसको प्राणी मात्र चाहता है, पुत्र पौत्र समन्वित होना, धन धान्य समन्वित होना, शरीर का निरोग होना, व्यापार में लाभ होना, परिवार का अनुकूल होना, ये जो सुख है इसको सभी चाहते हैं पर पुण्य करने में प्रवृति नहीं होती, पाप के फल दीनता, दरिद्रता, आधि, व्याधि शोक, सन्ताप ये जो दुःख हैं इनको कोई नहीं चाहते हैं पर पाप को प्रयत्न पूर्वक करते हैं ।
धर्म प्रसङ्गादपि नाचरन्ति, पापं प्रयत्नेन समाचरन्ति ।
आश्चर्यमेतद्धि मनुष्यलोके अमृतं परित्यज्य विषं पिबन्ति।।
धर्म का अवसर होने पर भी लोग धर्म का आचरण नहीं करते और पाप करने की कोई सुख-सुविधा नहीं है फिर भी पाप को छिप-छिप कर प्रयत्न पूर्वक करते हैं | कैसा आश्चर्य है कि मनुष्य अमत को छोड़कर विष का पान करता है ।इसलिए शास्त्रों में कहा गया है -
उत्थाय उत्थाय बोद्धव्यं, किमद्य सुकृतं कृतम् ।
आयुष: खण्डमादायं रविरस्तं गमिष्यति ।।
प्राणियों को बार-बार विचार करना चाहिए कि आज हमने क्या सुकृत किया, क्या पुण्य किया हमारी आयु का एक भाग लेकर सूर्य अस्त होने जा रहे हैं। श्रीमद्भागवत में भी यह बात कही गई है -अध्यात्म रामायण में भी कहा है -
प्रतिक्षणं क्षरत्येतत् आयु राम घटाम्बुवत् ।
सपत्ना इव रोगौघाः शरीरं प्रदहन्त्यहो ।।
मनुष्यों की आयु प्रत्येक क्षण कम होती चली जा रही है । कैसे? जैसे कच्चे घड़े में भरा हुआ जल धीरे-धीरे कम होता चला जाता है और शत्रुओ के समान ये जा रोग शरीर में लगे हुए है वह शरीर को जलाए दे रहे हैं, दग्ध किए दे रहे हैं ।श्री शुकदेव जी महाराज कहते हैं -
किं प्रमत्तस्य वहुभिः परोक्षैर्हायनैरिह ।
वरं मुहूर्त विदितं घटेत श्रेयसे यतः ।।
किसी को हजारों वर्षों की आयु भी मिल जाए और वह आय प्रमाद में व्यतीत हो तो उससे क्या लाभ, थोड़ी सी भी आयु विचार पर्वक सदाचार से बिताई जाए तो उससे जीवन सार्थक हो जाता है ।
खट्वाङ्गो नाम राजर्षित्वियत्तामिहायुषः ।
मुहूर्तात्सर्वमुत्सृज्य गतवानभयं हरिम् ।।
खटाङ्ग नाम के राजर्षि थे उन्होने जब देखा मेरी आयु बहुत कम । __रह गई तो उन्होने एक मुहूर्त में ही अपना सर्वस्व भगवान् के चरणों में अर्पण कर दिया और वह मुक्त हो गये । __जब शरीर से प्राण निकल जाते हैं तो कहते हैं, ये मर गया।मृड्. प्राण त्यागे प्राण जब शरीर को छोड़ देते हैं तो वह मृतक कहा जाता है जब तक शरीर को श्मशान में ले जाकर चिता में रख देते हैं और उसमें अग्नि लगाकर जब लौटते हैं तब चिता की ओर पीठ करके मिट्टी का ढेला फेंका जाता है और उस समय यह श्लोक बोला जाता है।
मृत शरीर मुत्सृज्य काष्ट लोष्ट समक्षितौ ।
विमुखाः बान्धवाः यान्ति धर्मस्त्वामनु गच्छति ।।
शास्त्रों में जहाँ परलोक की यात्रा का वर्णन है वहाँ कहा गया है--
अनाश्रमं अनालम्बं अपाथेयं अदेशिकम् ।
तमः कान्तारमध्वानं कथमेको गमिष्यसि ।।
एक बहुत प्रतापी राजा था उसकी सभा में बड़े-बड़े विद्वान ज्योतिषी, तान्त्रिक, उच्च कोटि के गायक, श्रेष्ठ पहलवान् उपस्थित रहते थे । उसने अपनी सभा में यह कहा कि हमारे यहाँ एक मूर्ख भी होना चाहिए, इसकी कमी है। मूर्ख का अन्वेषण करने के लिए राजा ने अपने अनुचरों को भेज दिया ।अनुचरों ने एक व्यक्ति को देखा कि वह एक वृक्ष की डाली पर बैठा हुआ उसी डाली को काट रहा है । उन्होने समझ लिया कि इससे अधिक मूर्ख और कौन मिलेगा । उसे राजा के पास ले आये, राजा ने उसको राजकीय पौशाक दे दी और उसके हाथ मे एक लाठी दे दी और उससे कह दिया तुमसे अधिक और कोई मूर्ख मिलेगा तों उसको रख लेंगे, तुम्हे हटा देंगे ।
राजा उसके साथ विनोद की बाते किया करता था । कुछ दिनों बाद राजा का स्वास्थ्य खराब हो गया, सभा में आना-जाना उसका बन्द हो गया । उस मूर्ख का सभा में अकेले मन नहीं लगता था । एक दिन वह स्वयं लाठी लेकर राजा के पास पहुँचा, प्रणाम करके उसने कहा महाराज कई दिन से आप सभा में नहीं पहुँचे ।
राजा ने कहा अरे मूर्ख अब तो हमको लम्बी यात्रा करनी है । मूर्ख ने कहा महाराज वह कितने दिन की यात्रा है, कितनी दूरी है, कितने सैनिक आपके साथ जायेंगे, कौन-कौन रानियाँ आपके साथ जायेंगी, कितना खजाना आपके साथ जायेगा, कितने हाथी-घोड़े साथ जायेंगे और कितने दिन में लौटेंगे ? राजा ने कहा वहाँ से लौटने की तो बात ही नहीं है ।
मूर्ख ने कहा राजन् ! हमसे ज्यादा मूर्ख आप ही है, यह लो अपनी लाठी । यह कहकर उसने लाठी राजा के आगे पटक़ दी और कहा राजन् जब आपको थोड़ी दूर की यात्रा होती थी तब हजारों सैनिक, घोड़े, हाथी, रानियाँ, खजाना आदि सब आपके साथ जाते थे और अब इतनी लम्बी यात्रा में जहाँ से लौटने की सम्भावना नहीं है वहाँ कुछ नहीं ले जा रहे हैं।
"सम्प्रस्थितोऽप्यपुनरागमनाय दूर
सार्ध नयस्यनुचरं न सुतं न नारीम्।
पाथेयमर्थमपि नो न हयं सहायं
तस्मात्त्वमेव धर सम्प्रति मूर्ख यष्टिम्।।
तब राजा ने धर्मशास्त्र जानने वाले पण्डितों को बुलाया और उनसे पूछा कि किस तरह से यह सम्पत्ति हमारे साथ जा सकती है। पण्डितों ने कहा महाराज जिस-जिस वस्तु का आप दान कर देंगे वह सब वस्तु आपको वहाँ मिलेगी। फिर तो राजा ने स्वर्ण चांदी, उत्तम हाथी, उत्तम घोड़े जो भी उसकी प्रिय वस्तुएँ थी, उन सब का ब्राह्मणों को दान कर दिया ।इसलिए कहा गया है -
तस्मात् धर्म सहायार्थ नित्यं संचिनुयात्शनैः ।
धर्मो रक्षति कान्तारे यत्र कोपि न रक्षिता ।।
धर्म हमारी वहाँ रक्षा करता है जहाँ कोई रक्षक नहीं होता। नेमिषारण्य में ऋषियों की सभा में श्री सूत जी महाराज सबका मूल धर्म को ही बताते हैं ।
धर्मस्य ह्यापवर्ग्यस्य नार्थोर्थायोपकल्पते।
नार्थस्य धर्मैकान्तस्य कामो लाभाय हि स्मृतः।।
कामस्य नेन्द्रियप्रातिर्लाभो जीवेत यावता ।
जीवस्य तत्वजिज्ञासा नार्थो यश्चेह कर्मभिः।।
धर्म का मुख्य फल मोक्ष है, अर्थ और काम उसके गौण फल हैं। मोक्ष को अपवर्ग क्यों कहते हैं, न विद्यते पवर्गो यत्रसो पवर्गः मोक्ष में पवर्ग नहीं है इसलिए मोक्ष को अपवर्ग कहते हैं ।पवर्ग है प, फ, ब, भ, म, मोक्ष में पाप पुण्य का सम्बन्ध नहीं होता, मोक्ष किसी क्रिया का फल नहीं है, वह ज्ञान का फल है, मोक्ष में किसी प्रकार का बन्धन नहीं होता, वहाँ किसी प्रकार का भय नहीं है और मोक्ष में मोह और ममता का अभाव रहता है इसलिए मोक्ष को अपवर्ग कहते हैं । भगवान् शंकर अपने भक्तों को अपवर्ग अर्थात् मोक्ष देते हैं और पवर्ग अपने पास रख लेते हैं -
नार्थस्य धर्मैकान्तस्य धर्म एव एकान्त नियतं फलं
यस्य तस्य अर्थस्य अर्थ का नियत फल है धर्म करना ।
दो बातन को भूल मत, जो चाहे कल्यान ।
नारायण एक मौत को, दूजे श्री भगवान् ।।
भेको धावति तञ्च धावति फणी सर्प शिखी धावति ।
व्याघ्रो धावति केकिनं विधिवशात् व्याधोपि तं धावति ।।
स्वस्वाहार विहार साधन विधौ सर्वे जनाः व्याकुलाः ।
कालस्तिष्ठति पृष्ठतः कचधरः केनापि नो दृश्यते ।।
मच्छर को खाने के लिए मेढक दौड़ रहा है, मेढक को पकड़ने के लिए उसके पीछे सर्प दौड़ रहा है, सर्प को पकड़ने के लिए उसके पीछे मयूर भाग रहा है, उस मयूर को मारने के लिए उसके पीछे व्याघ्र लगा हुआ है और व्याघ्र को मारने के लिए व्याध उसके पीछे लगा हुआ है । इस प्रकार अपनी-अपनी भोग्य वस्तु के लिए सब प्राणी दौड़ रहे हैं मृत्यु जो पीछे लगी है उसे कोई नहीं देखता है । अर्थ का नियत फल है धर्म करना, विषय भोग उसका फल नहीं । संसार के विषयों का उतना ही सेवन करना चाहिए जिससे जीवन चलता रहे | विषयभोग का फल इन्द्रिय तृप्ति नहीं है ।
श्री व्यास जी अपने भाष्य में लिखते हैं -
नचेन्द्रियाणां भोगाभ्यासेन वैतृष्ण्यं कर्तुं शक्यम् ।
भोगाभ्यासमनुविवर्धन्ते रागाः कौशलञ्चेन्द्रियाणाम् ।।
संसार के विषयों से हम इन्द्रियों को तृप्त नहीं कर सकते विषय भोग से विषयों में राग होता है और इन्द्रियों का कौशल बढ़ता है इन्द्रियां तृप्त नहीं होती, सारे विश्व का सौन्दर्य देखकर नेत्र तृप्त नहीं होते, अनेक प्रकार के रसास्वादन करने से जीभा तृप्त नहीं होती, सुन्दर-सुन्दर राग सुनने से श्रोत्रेन्द्रिय तृप्त नहीं होती, कोमल-कोमल त्वचा के स्पर्श से त्वगिन्द्रिय तृप्त होने की नहीं, बढ़िया-बढ़िया सुगन्ध सूंघने से नासिका तृप्त नहीं होती, इनसे इन्द्रियां तृप्त नहीं होती इन्द्रियों का कौशल बढ़ता है इसलिए विषयभोगों का फल इन्द्रिय तृप्ति नहीं, विषय भोग का फल है जीवन धारण करना और जीवन का फल है तत्व जिज्ञासा, तत्व को जानना । बड़े-बड़े यज्ञ यागादि करके स्वर्गादि को प्राप्त कर लेना जीवन का फल नहीं, जीवन का फल है तत्व जिज्ञासा, वह तत्व क्या है -
वदन्ति तत्तत्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम् ।
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते ।।
शुक्राचार्य जी राजा बलि से कहते हैं जो अर्थ के पाँच विभाग करता है वह इस लोक और परलोक में सुखी रहता है ।
धर्मायशसेर्थाय कामाय स्वजनाय च ।
पञ्चधा विभजन्नर्थ इहामुत्र च मोदते ।।
मनुष्य को अपनी आय के पाँच विभाग करने चाहिए जिसमें से प्रथम भाग का उपयोग धर्म में, द्वितीय भाग का यश वर्द्धक कार्यो में, तृतीय भाग का अर्थोपार्जन के लिए प्रयुक्त करना चाहिए, चतुर्थ भाग जीवन निर्वाह के लिए और पंचम भाग का उपयोग स्वजन सम्बन्धिया क हित म करना चाहिए । इस प्रकार अर्थ के जो पाँच विभाग करता है वह इस लोक में तथा परलोक में सुखी रहता है ।
श्री मनु जी महाराज कहते हैं -
| धर्म किसे कहते हैं - वेद प्रणहितो धर्मः वेद जिसका प्रतिपादन करता है उसके धर्म कहते हैं । अर्थ और संसार के विषयभोग को जो चाहते हैं उनके लिए भी व्यास जी कहते हैं -
ऊर्ध्वबाहुर्विरोम्येष न च कश्चित् श्रृणोति मे ।
धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थ न सेव्यते ।।
व्यास जी महाराज कहते हैं कि हम दोनों हाथ उठाकर उद्घोष करते हैं पर हमारी कोई सुनता ही नहीं । क्या कहते हो महराज? जो धन सम्पत्ति और विषय भोग चाहते हैं उनका मूल भी तो धर्म ही है, उस धर्म का आचरण क्यों नहीं करते हम इस बात को कहते हैं उसको कोई सुनता ही नहीं ।
भारत सावित्री में भी लिखा है -
न जातुकामान्नभयान्नलोभात्
धर्म त्यजेत् जीवितस्यापि हेतोः ।
धर्मोनित्यः सुख दुःखे त्वनित्ये
जीवो नित्यःहेतुरस्यत्वनित्यः ।।
किसी कामना से, किसी भय से, किसी लोभ से अथवा मृत्यु के भय से भी धर्म को नहीं छोड़ना चाहिए । धर्म नित्य है सुख दुःख अनित्य है जीव नित्य है जीव भाव का हेतु जो अविद्या है वह अनित्य है ।
हमारे यहाँ शास्त्रों में एक-एक श्लोक में ही मनुष्य जीवन के कर्त्तव्य का निर्देश किया गया है ।
अत्राहारार्थ कर्म कुर्यादनिन्द्य
कुर्यादाहारं प्राण संधारणार्थम् ।
प्राणाः संधार्यास्तत्वजिज्ञासनार्थ तत्त्व
जिज्ञास्य यस्माद् भूयो न जन्म ।।
पीना क्यों चाहिए ? प्राणों की रक्षा के लिए खाना-पीना चाहिए के धारण क्यों करना है ? तत्व जिज्ञासा के लिए, तत्त्व को जान लिए और तत्व जिज्ञासा क्यों करनी है ? जिससे पुनः जन्म न हो।
दूसरे श्लोक में भी कहते हैं -
कर्मणैव हि धीशुद्धिः शुद्धबुद्धेर्जिहासुता
जिहासेरेदसन्यासः सन्यास्येव विचारभाक।
विचारणैव विज्ञानं विज्ञस्यैव विमुक्तता
विमुक्तस्य पुनर्जन्म नेति शास्त्रार्थ संग्रहः ।।
शास्त्र विहित कर्म करने से बुद्धि शुद्ध होती है और शुद्ध बुद्धि ही वैराग्य उत्पन्न होता है | विरक्त पुरूष ही संन्यास का अधिकारी है और सन्यासी को ही आत्मा-अनात्मा के विचार का समय मिलता है, विचार से ही अनुभवात्मक ज्ञान की उत्पत्ति होती है, ज्ञानी ही जीवन मुक्ति को प्राप्त कर सकता है और जीवन्मुक्त पुरूष का पुनः जन्म नहीं होता। यही सभी शास्त्रों का सार है ।
अधार्मिकाणां प्रसमीक्ष्य वैमवं
धर्मो न हेयः सुधिभि: कदाचन ।
निरीक्ष्य वेश्यां समलंकृताड़ी
कुलाङ्गनाः किं कुलटा भवन्ति ।।
अधार्मिकों की उन्नति देखकर बुद्धिमान पुरूष को अपना धर्म नहीं छोड़ना चाहिए । किसी वेश्या को सजी धजी देखकर पतिव्रता स्त्री अपने पतिव्रत्य धर्म को नहीं छोड़ती ।
पुलाका इव धान्येषु पुत्तिका इव पक्षिषु ।
तद्विधास्ते मनुष्याणां येषां धर्मो न विद्यते ।।
धानों में जैसे थोथे पौधे की कोई गणना नहीं होती और पक्षियों में मक्खी-मच्छरों की कोई गणना नहीं होती उसी प्रकार जिन मनुष्यों के जीवन में धर्म का आचरण नहीं वह नगण्य माने जाते हैं ।
द्वाविमौ पुरूषौ लोके स्वर्गस्योपरि तिष्ठतः ।
प्रभुश्च क्षमया युक्तो दरिद्रश्च प्रदानवान् ।।
ये दो पुरूष स्वर्ग से भी ऊपर निवास करते हैं एक तो जो सामर्थ्यवान् होकर दूसरे का अपराध क्षमा कर देता है और दूसरा जो दरिद्र होकर दान करता है ।
द्वावम्भसि निवेष्टव्यौ गलेवध्वा दृढां शिलाम् ।
धनवन्तमदातारं दरिद्रञ्चातपस्विनम् ।।
इन दो पुरूषों के गले में शिला बांधकर जल में डूबो देना चाहिए जो धनवान होकर दान ना करे और दरिद्र होकर तप न करे ।
यमराज जी ने स्वर्ग में जाने के ये छ: साधन बताए है -
दानं दरिद्रस्य प्रभोः क्षमित्वं
यूना तपः ज्ञानवता च मौनम् ।
इच्छानिवृतिश्च सुखोचिताना
दया च भूतेषु दिव नयन्ति ।।
दरिद्र होकर दान करना, सामर्थ्यवान् होकर दूसरे के अपराध को क्षमा कर देना, युवावस्था में तप करना, ज्ञानी होकर मौन रहना, सम्पूर्ण सुख की सामग्री होने पर भी भोग की इच्छा नहीं करना और प्राणी मात्र पर दया करना ये छ: साधन स्वर्ग ले जाते हैं ।
पुण्यरज्वा ब्रजेदूर्ध्व पापरज्वा ब्रजेदधः ।
द्वयं ज्ञानासिना छित्वा विदेहः शान्तिमृच्छति ।।
पुण्यरूपी रस्सी को पकड़कर प्राणी ऊपर के लोकों में जाता है अर्थात् स्वर्गादि लोकों में जाता है एवं पाप रूपी रस्सी को पकड़ कर नरकादिक लोकों में जाता है । ज्ञान रूपी तलवार से पाप और पुण्य दोनों रस्सियों को काटकर प्राणी विदेह मुक्ति को प्राप्त कर लेता है |
वह ज्ञान कैसे प्राप्त हो इसके लिए भगवान् गीता में कहते हैं -
तद् विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः ।।
तत्वदर्शी गुरूओं के पास निरभिमान होकर उनके चरणों में समर्पित हा जाओ, अपनी जिज्ञासा उनके समक्ष रखो, वह महापुरूष तुमको ज्ञान का उपदेश कर देंगे।
श्रुति भी इस बात को कहती है ।
स गुरूमेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् ।
जो ज्ञान चाहता है वह श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ गुरू की शरण में जाये समित्पाणिः हाथ में कुछ उपयोगी वस्तु लेकर जाये, खाली हाथ न जाए।
श्री तुलसीदास जी कहते हैं -
गूढउ तत्व न साधु दुरावहि,
आरत अधिकारी जब पावहिं।
भगवतभक्ति से भी ज्ञान का उदय होता है, सूत जी भी पुष्टि करते हैं ।
वासुदेवे भगवति भक्तियोगः प्रयोजितः ।
जनयत्यासु वैराग्यं ज्ञानञ्च यदहैतुकम् ।।
ऋषियों - भगवान् के चरणों में की हुई भक्ति शीघ्र ही ज्ञान और वैराग्य को उत्पन्न करती है ।
श्री तुलसीदास जी कहते हैं -
सोइ जानै जेहि देहु जनाई,
जानत तुमहि तुमहि होइ जाई।
प्राणी भगवान् की कृपा से ही भगवान् को जान सकता है और जब भगवान् को जान लेता है तब भगवान् का ही स्वरूप हो जाता है ।