F आध्यात्मिक प्रवचन,भक्ति ज्ञान समन्वय - bhagwat kathanak
आध्यात्मिक प्रवचन,भक्ति ज्ञान समन्वय

bhagwat katha sikhe

आध्यात्मिक प्रवचन,भक्ति ज्ञान समन्वय

आध्यात्मिक प्रवचन,भक्ति ज्ञान समन्वय
[ आध्यात्मिक प्रवचन ]
|| भक्ति ज्ञान समन्वय ।। 
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भक्तिः प्रसिद्धा भव मोक्षणाय, नान्यत् ततः साधनमस्ति किञ्चित
। संसार से मुक्त होने के लिए भगवद्भक्ति प्रसिद्ध है उसके अतिरिक्त मुक्ति का और कोई साधन नहीं है ।
हठ वश सठ साधन बहु करहीं । 
भक्ति हीन भव सिन्धु न तरहीं ।।
श्री तुलसीदास जी कहते हैं कि हठ के कारण लोग अनेक साधन करते हैं किन्तु भक्ति रहित होने के कारण संसार सागर से पार नहीं हो पाते । __ भजनं भक्तिः - भक्ति शब्द भज सेवायां धातु से बनता है भक्ति का अर्थ होता है सेवा ।
कायेन मनसा वाचा भजनीयस्य तुष्टिहेतुर्व्यापारः ।
शरीर से, मन से, वाणी से, अपने इष्टदेव को प्रसन्न करने की जो चेष्टा है, व्यापार है, उसको भक्ति कहते हैं । सेवा भी उसी का नाम है । भक्त कहा चाहे सेवक कहो एक ही बात है ।
आज्ञा सम न सुसाहिब सेवा ।
आज्ञा पालन करने के साधन के समान कोई दूसरी सेवा नहीं मानी जाती है आज्ञा का पालन करना ही सबसे बड़ी सेवा है | आज्ञा पालन भक्तिः इसी को भक्ति कहते हैं । पिता की आज्ञा का पालक पितृभक्त कहलाता है, माता का आज्ञा का पालक मातृभक्त कहलाता है, गुरू के आदेश का जो पालन करता है वह गुरू भक्त कहलाता है और भगवद् आज्ञा का जो पालन करता है वह भगवद्भक्त कहलाने का अधिकारी है भगवान् की आज्ञा क्या है इसको स्वयं भगवान कहते हैं .
श्रुतिस्मृती ममैवाज्ञे यस्त उल्लंध्य वर्तते । 
आज्ञोच्छेदी मम द्वेषी न मे भक्तः न मतप्रियः ।। 
श्रुति स्मृति ये मेरी आज्ञा है इनका उल्लंघन करने वाला मेरा द्वेषी
है. वह न मेरा भक्त है न प्रिय है, क्योंकि उसने मेरी आज्ञा का पालन नहीं किया ।
अपहाय निजं कर्म कृष्ण कृष्णेति वादिनः ।
ते हरेद्वेषिणः पापा धर्मार्थ जन्म यद्धरेः ।। 
___ जो अपने शास्त्र विहित कर्म को छोड़कर और कृष्ण कृष्ण ऐसा कहता है वह भगवान् का द्वेषी है, नामापराधी है, क्योंकि धर्म की रक्षा के लिए ही तो भगवान् का अवतार होता है ।
ज्ञानं बिना यथा मुक्तिः नास्त्युपायशतैरपि । 
भक्तिं बिना तथा ज्ञानं नास्त्युपायशतैरपि ।।
जैसे ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं हो सकती चाहे कितने ही उपाय करो उसी प्रकार भक्ति के बिना ज्ञान का उदय नहीं हो सकता चाहे कितने ही उपाय करो । श्रुति कहती है -
ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं ।
गीता में भगवान् श्री कृष्ण ने कहा है - 
भक्त्या मामभिजानाति यावान् यश्चास्मि तत्वतः । 
ततो मां तत्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ।।
भक्ति के द्वारा ही जीव हमको यथार्थ रूप में जान सकता है भक्तिर्ज्ञानाय कल्पते ज्ञान को ही भक्ति का फल माना गया है ।
मय्येव मन आधत्स्व मयिबुद्धिं निवेशय ।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्व न संशयः ।।
हे अर्जुन, तुम मेरे में ही मन लगाओ, बुद्धि से मुरा ही विचार करो तो तुम मुझको ही प्राप्त होंगे । इसमें कोई संशय नहीं है।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरू। 
मामेवैष्यसि सत्यन्ते प्रतिजाने प्रियो ऽसि मे ।। 
तू अपना मन मेरे में लगा, मेरा भक्त बन, मेरा यजन कर, मुझे ही नमस्कार कर । तू मुझे ही प्राप्त कर लेगा, तू मेरा प्रिय सखा है यह मेरा वचन सर्वथा सत्य है ।
एवं भगवति प्रतिज्ञा कृतवति सति कस्य ब्राह्मधस्य । 
प्रमाणिकस्य योनिबीज शुद्धिमतो विश्वासो न स्यात् ।।
अर्जुन के सामने भगवान् इस प्रकार की प्रतिज्ञा कर रहे हैं तो शुद्ध पवित्र माता-पिता से उत्पन्न ऐसा कौन व्यक्ति होगा जो इस बात में विश्वास न करे । नारद जी ने भगवान् को शीघ्र प्रसन्न करने के तीन साधन बताए हैंदयया सर्व भूतेषु संतुष्ट्या येन केन वा । 
सर्वेन्द्रियोपशान्त्या च तुष्यत्याशु जनार्दनः ।।
प्राणा मात्र पर दया करता है, अनुकूल अथवा प्रतिकूल प्रत्येक परिस्थिति में जो प्रसन्न रहता है, तथा अपनी इन्द्रिय और मन को जो वश में रखता है उस पर भगवान् शीघ्र प्रसन्न होते हैं ।
भगवान् शंकराचार्य जी कहते हैं -
के शत्रवः सन्ति निजेन्द्रियाणि ।। 
तान्येव मित्राणि जितानि यानि ।।
हमारे शत्रु कौन है ? ये असंयत मन और इन्द्रियाँ । मित्र कौन है ? अपने वश में की हुई इन्द्रियाँ और मन ही अपने मित्र है ।
आपदां कथितः पन्था इन्द्रियाणामसंयम: । 
तज्जयः सम्पदा मार्गः येनेष्टं तेन गम्यताम् ।।
इन्द्रियों का असंयम आपत्तियों का मार्ग है और इन्द्रियों पर जय सुख शान्ति का मार्ग है । अब ये आपकी इच्छा पर निर्भर है कि जो मार्ग अच्छा लगे उससे जाओ ।
वाक् श्रोत्रे च करौ चित्तं शिरच्श्रास्तथैव च । 
षडेते भगवत्कार्ये यदि सक्ताः कृतार्थता ।। 
जो वाणी से भगवान् का गुणगान करता है, कानों से भगवान की मधुर, मनोहर, मंगलमयी कथा श्रवण करता है, हाथों से भगवद्भक्तों की सेवा करता है, मन से भगवान् का ध्यान करता है, सिर से जो भगवान के चरणों में प्रणाम करता है और नेत्रों से भगवान् की मंगलमयी मूर्तियों के दर्शन करता है, इस प्रकार जो प्राणी अपनी सभी इन्द्रियों को भगवद् सेवा में समर्पित कर देता है वह अपने को कृतार्थ कर लेता है ।
यमराज जी भी अपने दूतों को यह आदेश देते हैं -
जिह्वा न वक्ति, भगवद्गुणनाम धेयम् । 
चेतश्च न स्मरति तच्चरणारविन्दम् ।
 कृष्णाय नो नमति यच्छिर एकदापि 
तानानयध्वमसतोऽकृतविष्णुकृत्यान् ।।
जिसकी जिह्वा भगवान् के गुणों और नामों का उच्चारण नहीं करती, जिसका चित्त उसके चरणों का चिन्तन नहीं करता और जिसका सिर एक बार भी भगवान् श्री कृष्ण के चरणों में नहीं झुकता उस भगवद्सेवा विमुख पापी को ही मेरे पास लाया करो ।
हृदि रूपं मुखे नाम नैवद्यमुदरे हरेः । 
पादोदकं च निर्माल्य मस्तके यस्य सोऽच्युतः ।।
हृदय में अपने इष्टदेव का रूप हो, मुख में भगवान् का मधुर मनोहर मंगलमय नाम हो और जो कुछ खाएं पियें वह भगवान् का निवेदित किया हुआ प्रसाद हो, भगवान् का चरणोदक और निर्माल्य जिसके मस्तक पर हो वह भगवत्स्वरूप माना जाता है । अम्बरीष महाराज की दिनचर्या भी इसी प्रकार की थी । 
स वै मनः कृष्णपदारविन्दयोर्वचासि बैकुण्ठगुणानुवर्णने । 
करौ हरेमन्दिर मार्जनादिषु श्रुतिं चकाराच्युतसत्कथोदये ।। 
अम्बरीष का मन सदा भगवान् के चरणों के चिन्तन में लगा रहता था, उनकी वाणी सदा भगवान् के गुणगानों का वर्णन करती रहती थी, वे अपने हाथों से भगवान् के मन्दिर की सेवा करते थे, बुहारी लगाते थे, धोते थे और अपने कानों से भगवान् की मंगलमयी कथा सुना करते थे।
प्राणं च तत्पादसरोजसौरभे  श्रीमत्तुलस्या रसना तदर्पिते 
वे अपने नेत्रों से भगवान की मंगलमयी मूर्तियों के दर्शन करते थे, सन्तों। का दर्शन करते थे, वे भगवद्भक्तों के शरीर का ही स्पर्श करते थे, भगवान् के चरणों की गन्ध से युक्त तुलसी को ही सूंघते थे, भगवान् को अर्पित की हुई वस्तु को ही प्रसाद रूप में ग्रहण करते थे ।
मुकुन्द लिङ्गालयदर्शने दृशौ, तभृत्यमात्र स्पर्शेङ्गसङ्गमम्। 
पादौ हरेः क्षेत्र पदानुसर्पणे, शिरो हृषीकेशपदाभिवन्दने, 
कामं च दास्ये न तु काम काम्यया यथोत्तमश्लोकजनाश्रयारतिः,
भगवान् के पवित्र तीर्थो में भ्रमण करते थे, भगवान् और भगवद् भक्तों के चरणों में ही सिर झुकाते थे, वे संसार की उत्तम से उत्तम वस्तुओं को भगवान् के चरणों में इसलिए अर्पण नहीं करते थे कि ये वस्तुएँ उनको फिर से प्राप्त हों, वे अपना सर्वस्व भगवान् के चरणों में इसलिए अर्पण करते थे जिससे उनको ध्रुव और प्रहलाद जैसी अनन्य भक्ति प्राप्त हो ।
अविस्मृतिः कृष्णपदारविन्दयोः क्षिणोत्यभद्राणि शमं तनोति च । 
सत्वस्य शुद्धि परमात्मभक्ति ज्ञानं च विज्ञान विराग युक्तम् ।।
भगवान् के चरणों की स्मृति हमारी दुर्वासनाओं को नष्ट करती है और शान्ति का विस्तार करती है अन्तःकरण को निर्मल बना देती है। तथा भगवान् की भक्ति का उदय करके अमंगलमय संसार से वैराग्य कराती है, अनुभवात्मक ज्ञान को प्रकाशित करती है । इस प्रकार भगवान् के चरणो की स्मृति जीवो को मुक्त कर देती है ।
यही वरदान नलकूवर और मणिग्रीव ने भगवान् श्री कृष्ण से मांगा था--
वाणी गुणानुकथने श्रवणौ कथायाम् 
हस्तौ च कर्मसु मनस्तव पादयोनः ।
स्मृत्यां शिरस्तव निवासजगत्प्रणामे
दृष्टिः सतां दर्शनेस्तु भवत्तनूनाम् ।। -
 भगवन् हमारी वाणी आपके गुणगान करती रहे, हमारे कान आपकी मंगलमयी कथा सुनने में लगे रहें, हमारे हाथ आपके भक्तों की सेवा में लग जाये, हमारा मन आपके चरणों का चिन्तन करता रहे, यह सम्पूर्ण जगत् आपका निवास स्थान है । अतः हमारा मस्तक सबके सामने झुका रहे, सन्त आपके प्रत्यक्ष शरीर है हमारी आँखें उनका दर्शन करती रहें ।

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