|| अपवित्र शरीर ।।
शरीर नश्वर है शरीर के असारता का वर्णन
मनुष्य शरीर की शास्त्रों में जितनी प्रंशसा की गई है उतनी प्रशसा अन्य किसी शरीर की शास्त्रों में नहीं की गई । मनुष्य शरीर की जितनी निन्दा की गई है । किसी दूसरे शरीर की शास्त्रों में नहीं की गई । भगवान् शंकराचार्य जी कहते हैं -कोवाऽस्ति घोरो नरक: स्वदेहः ।
घोर नरक क्या है ? ये अपना शरीर ही घोर नरक है ।
स्थानात् बीजात् उपष्टभात् निष्यन्दान्निध्नादपि ।
कायमाधेयशौचत्वात् पण्डिताः हृशुचिं विदुः ।।
यह शरीर माता के गर्भ में निवास करता है इसलिए इसके रहने का जो स्थान है वह गन्दा है । यह माता-पिता के रजवीर्य से उत्पन्न होता है इसका जो उपष्टभक है अर्थात इसकी स्थिति का जो हेतु है वह भी अपवित्र है, क्योंकि मलायत्तं हि जीवनम् ये जो मनुष्य का जीवन है वह तल के अधीन है | शरीर के छिद्रों से जो वस्तुएँ निकलती है वह सभी अपवित्र होती है, दुर्गन्ध पूर्ण होती हैं, प्राणों के निकल जाने पर इसमें अत्यन्त दुर्गन्ध आने लग जाती है । इस शरीर की शुद्धि का शास्त्रों में विधान किया गया है इसलिए पण्डित लोग इसे अपवित्र मानते हैं ।___एक व्यक्ति शौच होकर के आया और कुआँ से जल लेकर उसने प्थ माँजे, पैर धोये और दो-चार कुल्ला करके चल दिया | वहाँ एक धर्मशास्त्र के जानने वाले पण्डित बैठे थे उन्होंने कहा अभी तुम्हारा मुख अशुद्ध है शौच जाने के बाद १६ कुल्ला करने पर मुख शुद्ध होता है । उसने फिर जल लिया १६ कुल्ला करके कहा महाराज अब मुख शुद्ध हो गया । पण्डित जी ने कहा हाँ अब शुद्ध हो गया । उसने १७वीं बार मुख में जल लेकर पण्डित जी के ऊपर कुल्ला कर दिया तब पण्डित जी बड़े बिगड़े और कहा तूने हमे अशुद्ध कर दिया, मेरे ऊपर कुल्ला कर दिया, न बड़ा दुष्ट है । उसने कहा महाराज अबतो मुख शुद्ध था फिर आप - खीझते हैं, पण्डित जी लगता है अभी आपने सन्तों का संग नहीं किया है केवल धर्मशास्त्र ही पढ़े हैं। ये मुख तो १०० कुल्ला करने परभी अशुद्ध ही रहेगा । ये उत्तर सुनकर पण्डित जी शान्त हो गये ।
शरीरमिदं मैथुनादेवोदभूतं संवित् व्यपेतं निरय इव मूत्रद्वारेण निष्कान्तमस्थिभिश्चितम् मांसेनानुलिप्तं चर्मावनद्धं विण्मूत्रकफपित्तमज्जादिमिश्चितम् आमयैः परिपूर्णम् ।
यह शरीर स्त्री परूष के संयोग से उत्पन्न होता है और यह चेतना रहित है, यह मूत्रद्वार से निकल कर बाहर आता है तथा हड्डियों से व्याप्त है, यह रक्त मांस से लिपा हुआ है और चमड़ी से मढ़ा हुआ है मल, मूत्र, कफ, पित्त आदि इसमें भरे हुए हैं और यह रोगों का घर है ।
पथि पतितमस्थिदृष्ट्वा स्पर्शभयात् अन्यमार्ग तो याति ।
नो पश्यति निजदेह चास्थि सहस्त्रावतं परितः ।।
रास्ते में हड्डी पड़ी देखकर स्पर्श भय से मनुष्य अन्य मार्ग से जाता है परन्तु अपने इस शरीर को नहीं देखता जो सहस्त्रों हड्डियों से आवृत हैं ।
शिर आक्रम्य पादेन भर्स्यत्यपरान्शुनः ।।
जब शरीर में से प्राण निकल जाते हैं तब कुत्ता उसके सिर पर पैर रखकर दूसरें कुत्ते को पास नहीं आने देता, वह उसे अपनी सम्पत्ति समझ लेता है ।
परिव्राट्कामुकशुनामेकस्यां प्रमदातनौ ।
कणपः कामिनी भक्ष्यमिति तिस्रो विकल्पनाः ।।
एक स्त्री के शरीर को सन्यासी मुर्दा समझता है, उसकी उपेक्षा कर देता है। कोई कामुन जब उसे देखता है तो उसे प्राप्त करने की इच्छा करता है, तथा उसी शरीर को जब कुत्ता देखता है तो वह उसको अपना भोजन समझता है।
सर्वमेव जगत्पूतं यत्र देहो न विद्यते ।
ये सारा जगत् पवित्र है पर जहाँ यह शरीर रहता है वहीं अपवित्रता होती है। यह गन्दे नालों का उद्रम स्थान है। इस शरीर से ही सारे गन्दे नाले निकलते हैं।
हस्तौ दान विवर्जितौ श्रुति पुटौ सारस्वत द्रौहिणौ
नेत्रे साधु विलोकनेन रहिते पादौ न तीर्थ गतौ ।
अन्यार्जित वित्तपुर्णमुदरं गर्वेण तुंग. शिरः
रे रे जम्बुक मुञ्च- मुञ्च सहसा नीचं सुनिन्द्यम् वपुः ।।
श्रगाल जब मृतक शरीर को खाने के लिए उद्यत हुआ तो गाली कहती है, कि ये शरीर खाने के योग्य नहीं है क्योंकि यह अपवित्र है। हाथ इसलिए अपवित्र हैं क्योंकि इसने इन हाथों से कभी दान नहीं दिया और कान इसलिए अपवित्र है क्योंकि कानों से कभी भगवान् की कथा नहीं सुनी नेत्र इसलिए अपवित्र हैं क्योंकि इन नेत्रों से कभी साधु-सन्तों का दर्शन नहीं किया । पैरों से कभी इसने तीर्थ यात्रा नहीं की इसलिए पैर अपवित्र हैं । अन्याय की कमाई से इसने पेट भरा है इसलिए इसका पेट अपवित्र है । अहंकार के कारण इसने अपने से बड़ों को कभी सिर नहीं झुकाया इसलिए सिर अपवित्र है । अतः हे जम्बुक इसको शीघ्र ही छोड़ दो ये शरीर बड़ा निन्दनीय और अपवित्र है।
त्वङ्मात्रसारं निसारं कदलीसार सन्निभम् ।।
विचार करने पर शरीर में त्वचा ही सार है । केले के वृक्ष में जैसे कोई सार भाग नहीं होता, केवल छिलका ही छिलका होता है इसी प्रकार शरीर में त्वचा ही सार है, इसी में आकर्षण है, इसी में सुन्दरता प्रतीत होती है । त्वचा को हटाकर देखो तो यह शरीर कैसा भयंकर रक्षा होती है। मालूम होगा, चील कौआ खाने को दौड़ेंगे । इस शरीर की त्वचा से ही--
शरीरं व्रणवत् पश्येत् अन्नन्तु व्रण लेपनम् ।
व्रण सेचनवत् वारि वस्त्रन्तु व्रण पट्टवत् ।।
विचार करें तो शरीर एक फोड़े के समान है । फोड़ा जैसे दुखता रहता है उसी प्रकार ये शरीर भी दुखता रहता है । कभी पेट में दर्द है, कभी सिर में दर्द है तो कभी घुटने में । जैसे फोड़े पर लेप लगाया जाता है उसी प्रकार हलुआ, पूड़ी, दाल भात जो खाया जाता है वहा इसका लेप है । जैसे फोड़े को धोया जाता है वैसे ही इसको भी कई बार स्नान करके धोते हैं । फोड़े को यदि नहीं धोया जाए तो उसमें दुर्गन्ध आने लगती है । इसी प्रकार शरीर को न धोया जाए तो उसमें, से भी दुर्गन्ध आने लगती है । फोड़े को कपड़े से बाँधा जाता है इस शरीर को भी कपड़े से लपेटते हैं इसलिए ये शरीर फोड़े के समान है।
प्रागनात्मैव जग्धं सत आत्मतामेत्यविद्यया ।।
जो अन्न खाया जाता है वही शरीर के रूप में परिणत होकर भगवान् की माया से खाने वाला बन जाता है ।
यत् प्रातः संस्कृतं चान्नं सायं तच्च विनश्यति ।
तदीय रससम्पुष्टे काये का नाम नित्यता ।।
प्रातः काल का बना दाल भात सायंकाल तक दुर्गन्धित हो जाता है, तो उस अन्न से बना हुआ यह शरीर कैसे नित्य हो सकता है ।
क्षतमुत्पन्नं देहे यदि न प्रक्षाल्यते त्रिदिनम् ।
तत्रोत्पतन्ति बहवः कृमयो दुर्गन्धसंकीर्णाः ।।
शरीर में यदि कोई फोड़ा हो जाय और दो तीन दिन ते उसको साफ न किया जाय तो उसमें दुर्गन्ध आने लगती है, कीड़े पड़ जाते हैं। ऐसा यह शरीर है ।
अस्थिस्तम्भं स्त्रायुबद्ध मांस शोणित लेपितम् ।
चर्मावनद्धं दुर्गन्धं पात्रं मूत्रपुरीषयोः ।।
इस शरीर में हड्डी के खम्बे लगे हुए हैं । पतली-पतली नसों से यह बँधा हुआ है, रक्तमांस का इसपर लेपन किया हुआ है, चर्म से मढ़ा हुआ है । मलमूत्र का ये पात्र है, दुर्गन्ध निकलती रहती है।
कलेवरे मूत्रपुरीषभाविते रमन्ति मूढाः विरमन्ति पण्डिताः ।।
ऐसे शरीर को अज्ञानी लोग मैं और मेरा कहते हैं। बुद्धिमान उससे उदासीन रहते हैं।