ऋषि कर्दमजी की कहानी,Story of sage kardamji

ऋषि कर्दमजी की कहानी
Story of sage kardamji
ऋषि कर्दम कर्दम ऋषि की कथा कर्दम ऋषि की कर्दम ऋषि की कहानी कर्दम ऋषि की पुत्री कर्दम ऋषि का विवाह कर्दम ऋषि की संतान कर्दम ऋषि कथा कर्दम ऋषि के पिता कर्दम ऋषि कौन थे कर्दम ऋषि इतिहास
श्रीकर्दमजी-'छायायाः कर्दमो जज्ञे' अर्थात् ब्रह्माजीकी छायासे श्रीकर्दमजी उत्पन्न हुए। जब ब्रह्माजीने प्रजापति कर्दमको सष्टि-विस्तारकी आज्ञा दी तो उन्होंने सर्वप्रथम स्वरूपानुरूप धर्मपत्नीकी प्राप्तिके लिये सरस्वती नदीके तटपर बिन्दसरोवर तीर्थमें दस हजार वर्षांतक तपस्याके द्वारा शरणागत-वरदायक श्रीहरिकी आराधना की। भगवान्ने प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिया। प्रभुकी परम मनोहर मूर्तिका दर्शनकर कर्दमजीको बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने सानन्द साष्टांग दण्डवत् प्रणामकर प्रेम-प्रवण चित्तसे हाथ जोड़कर अत्यन्त सुमधुर वाणीसे भगवान्की स्तुति की। भगवान्ने कहा-जिसके लिये तुमने आत्मसंयमादिके द्वारा मेरी आराधना की है, तुम्हारे हृदयके उस भावको जानकर मैंने पहलेसे ही उसकी व्यवस्था कर दी है। परम यशस्वी सार्वभौम सम्राट महामानव मनु परसों अपनी धर्मशीला भार्या शतरूपाके साथ अपनी रूप-यौवनशीला और सद्गुणसम्पन कमललोचना कन्याको लेकर आयेंगे। प्रजापते! वह सर्वथा आपके स्वरूपानुरूप है। मनुजा वह कन्या आप अर्पण करेंगे। उससे सृष्टिका विस्तार करनेवाली नौ कन्याएँ होंगी तथा सांख्यशास्त्रका प्रचार करनेके लि मैं भी अपने अंश-कलासे आपके वीर्यका आश्रय लेकर आपकी पत्नी देवहूतिके गर्भसे अवतीर्ण होऊँगा यह कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये।
ऋषि कर्दमजी की कहानी
Story of sage kardamji
इधर मनुजी भी महारानी शतरूपाके साथ सुवर्णजटित रथपर सवार होकर तथा परम साध्वी, मनि वृत्तिशीला कन्या देवहूतिको भी बिठाकर भगवान्के बताये संकेतानुसार निश्चित समयपर शान्तिपरायण महर्षि कदमके आश्रमपर पहुँचे। अग्निहोत्रसे निवृत्त परम तेजस्वी मुनिश्रेष्ठ कर्दमको मनुजीने प्रणाम किया। आकदमजान आशीर्वाद देते हुए यथोचित आतिथ्य-सत्कार किया और आगमनका कारण पूछा। मनजीने अत्यन्त विनम्रतापूर्वक निवेदन किया-यह मेरी कन्या है जो प्रियव्रत और उत्तानपादकी बहन है, स्वभावसे ही राजसुख भोगोंसे विरक्त है; अवस्था, शील और गुण आदिमें अपने योग्य पति पानेकी इच्छा रखती है। जबसे इसने नारदजीके मुखसे आपके शील, विद्या, रूप और गुणोंका वर्णन सुना है, तभीसे आपको अपना पति बनानेका निश्चय कर चुकी है। द्विजवर! मैं बड़ी श्रद्धासे आपको यह कन्या समर्पित करता हूँ, आप इसे स्वीकार कीजिये।
_श्रीकर्दमजीने स्वीकृति तो दे दी परंतु शर्तपर। वह यह कि जबतक इसके संतान नहीं हो जायगी, तबतक मैं गृहस्थधर्मानुसार इसके साथ रहूँगा, इसके पश्चात् भगवान्के बताये हुए परमधर्म भगवदाराधनको ही मैं अधिक महत्त्व दूंगा। महाराज मनुजीने ब्राह्म विधिसे देवहूतिका विवाह कर्दमजीसे कर दिया और दहेजमें भूरि-भूरि बहुमूल्य वस्त्राभूषण एवं अन्य आवश्यक वस्तुएँ प्रदान की तथा मुनिकी आज्ञा लेकर वहाँसे अपने स्थानको चले आये। __मनुपुत्री देवहूतिने काम-वासना, दम्भ, द्वेष, लोभ, मदादिका त्यागकर बड़ी सावधानी और लगनके साथ सेवामें तत्पर रहकर विश्वास, पवित्रता, गौरव, संयम, शुश्रूषा, प्रेम और मधुर भाषणादि गुणोंसे अपने परम तेजस्वी पतिदेवको सन्तुष्ट कर लिया।
ऋषि कर्दमजी की कहानी
Story of sage kardamji
बहुत काल व्यतीत होनेपर सेवापरायणा देवहूतिके मनमें संतानकी अभिलाषा जाग्रत् होनेपर परम तपोधन श्रीकर्दमजीने अपने तपोबलसे स्वयं दिव्य स्वरूप धारणकर तथा देवहूतिको भी दिव्यरूप प्रदानकर, सहस्रों दास-दासियोंसे सेवित एवं समावृत होकर योग-प्रभाव-विनिर्मित दिव्य विमानपर विराजमान होकर देवहूतिके साथ बहुत वर्षोंतक विहार किया। तत्पश्चात् देवहूतिको संतानप्राप्तिके लिये समुत्सुक देखकर श्रीकर्दमजीने अपने स्वरूपके नौ विभाग किये और नवों स्वरूपोंसे उनके गर्भमें अपना तेज स्थापित किया। इससे देवहूतिके नौ कन्याएँ पैदा हुईं। श्रीकर्दमजी अपनी पूर्वप्रतिज्ञाके अनुसार संन्यास ग्रहण करनेको समुद्यत हुए। पतिदेवके हार्दिक अभिप्रायको जानकर देवहूतिने बड़ी विनम्रतापूर्वक कन्याओंको योग्य वरोंके हाथोंमें सौंपने तथा वन चले जानेपर अपने आधारके लिये एक पुत्रकी प्रार्थना की। तब कृपालु मुनि कर्दमको भगवान् विष्णुका वह कथन याद हो आया, जिसमें कि उन्होंने स्वयंका मुनि-पुत्र होनेका संकेत किया था। श्रीकर्दमजीने देवहूतिको आश्वासन दिया-प्रिये! अधीर न हो, तुम्हारे गर्भमें अविनाशी भगवान् विष्णु शांघ्र ही पधारेंगे। अब तुम संयम, नियम, दान और तपादिके द्वारा श्रद्धापूर्वक भगवान्का आराधन करो; पतिवचनविश्वासिनी देवहूति प्राणपणसे भगवदाराधनमें लग गयीं।
ऋषि कर्दमजी की कहानी
Story of sage kardamji
इधर कर्दमजीने श्रीब्रह्माजीके आदेशानुसार अपना कला नामकी कन्या मरीचिको, अनसूया अत्रिको, श्रद्धा अंगिराको, हविर्भू पुलस्त्यको, गति पुलहको, क्रिया क्रतुको, ख्याति भृगुको, अरुन्धती वसिष्ठको और शान्ति अथर्वाको समर्पित की। ये ऋषि लोग श्रीकर्दम जी की आज्ञा लेकर अति आनन्दपूर्वक अपनी-अपनी पत्नियोंके साथ अपने-अपने आश्रमको चले गये। इधर परम मंगल मुहूर्त आनेपर साक्षात् देवाधिदेव भगवान् विष्णु श्रीकर्दमजीके वीर्यका आश्रय लेकर वहतिके गर्भसे श्रीकपिलरूपमें प्रकट हुए। देवताओंने दुन्दुभियाँ बजायीं, पुष्पवृष्टि की। ब्रह्मादिकने ऋषिप्रतीके सौभाग्यकी सराहना करते हुए श्रीकपिलभगवान्की स्तुति की। श्रीकर्दमजीने पुनः पूर्वप्रतिज्ञाका मरणकर श्रीकपिलभगवान्की आज्ञा लेकर उनकी परिक्रमा की और प्रसन्नतापूर्वक वनको चले गये। वहाँ म भक्तिभावके द्वारा सर्वान्तर्यामी सर्वज्ञ श्रीवासुदेवमें चित्त लगाकर उन्होंने परम पद प्राप्त कर लिया। भगवान् श्रीकपिलदेव भी माता देवहूतिको तत्त्वज्ञानका उपदेश देकर गंगा-सागर-संगमपर जाकर भजनमें प्रवत्त हो गये। देवहूतिजी भी भगवान्के श्रीचरणकमलोंका अनुचिन्तन करती हुई भगवद्धामको प्राप्त हुईं।
ऋषि कर्दमजी की कहानी
Story of sage kardamji

0/Post a Comment/Comments

आपको यह जानकारी कैसी लगी हमें जरूर बताएं ? आपकी टिप्पणियों से हमें प्रोत्साहन मिलता है |

Stay Conneted

(1) Facebook Page          (2) YouTube Channel        (3) Twitter Account   (4) Instagram Account

 

 



Hot Widget

 

( श्री राम देशिक प्रशिक्षण केंद्र )

भागवत कथा सीखने के लिए अभी आवेदन करें-


close