ऋषि वशिष्ठ की कहानी
Story of sage vashistha
महर्षि वसिष्ठकी उत्पत्तिका वर्णन पुराणोंमें विभिन्नरूपसे आता है। ये कहीं ब्रह्माके मानसपुत्र, कहीं आग्नेय पुत्र और कहीं मित्रावरुणके पुत्र कहे गये हैं। कल्पभेदसे ये सभी बातें ठीक हैं। ब्रह्मशक्तिके मूर्तिमान् स्वरूप तपोनिधि महर्षि वसिष्ठके चरित्रसे हमारे धर्मशास्त्र, इतिहास और पुराण भरे पड़े हैं। इनकी सहधर्मिणी अरुन्धतीजी हैं, जो सप्तर्षिमण्डलके पास ही अपने पतिदेवकी सेवामें लगी रहती हैं। जब इनके पिता ब्रह्माजीने इन्हें सृष्टि करनेकी और भूमण्डलमें आकर सूर्यवंशी राजाओंका पौरोहित्य करनेकी आज्ञा की, तब इन्होंने उस कार्यसे बड़ी हिचकिचाहट प्रकट की। फिर ब्रह्माजीने समझाया कि इसी वंशमें आगे चलकर पुरुषोत्तम भगवान् श्रीरामका पूर्ण अवतार होनेवाला है, अतः इस निन्दित कर्मके द्वारा भी तुम्हें बड़ी ऊँची गति प्राप्त होगी। तब कहीं उन्होंने आना स्वीकार किया। यहाँ आकर इन्होंने सर्वदा अपनेको सर्वभूतहितमें लगाये रखा। जब कभी अनावृष्टि हुई, दुर्भिक्ष पड़ा, तब उन्होंने अपने तपोबलसे वर्षा करायी और जीवोंकी अकालमृत्युसे रक्षा की।
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इक्ष्वाकु, निमि आदिसे अनेकों यज्ञ कराये और विभिन्न महापुरुषोंके यज्ञोंमें सम्मिलित होकर उनके अनुष्ठानको पूर्ण किया। जब अपने पूर्वजोंके असफल हो जानेके कारण गंगाको लानेसे भगीरथको निराशा हुई तब इन्होंने उन्हें प्रोत्साहन देकर मन्त्र बतलाया और इन्हींके उपदेशके बलपर भगीरथने महान् प्रयत्न करके गंगा-जैसी लोककल्याणकारिणी महानदीको हमलोगोंके लिये सुलभ कर दिया। जब दिलीप संतानहीन होनेके कारण अत्यन्त दुखी हो रहे थे तब उन्हें अपनी गौ नन्दिनीकी सेवाविधि बताकर रघु-जैसे पुत्ररत्नका दान किया। दशरथकी निराशामें आशाका संचार करनेवाले यही महर्षि वसिष्ठ थे। इन्हींकी सम्मतिसे पुत्रेष्टि-यज्ञ हुआ और फलस्वरूप भगवान् श्रीरामने अवतार ग्रहण किया। भगवान् श्रीरामको शिष्यरूपमें पाकर वसिष्ठने अपना पुरोहितजीवन सफल किया और न केवल वेद-वेदांग ही बल्कि योगवाशिष्ठ-जैसे अपूर्व ज्ञानमय ग्रन्थका उपदेश करके अपने ज्ञानको सफल किया। भगवान् श्रीरामके वनगमनसे लौटनेपर उन्हें राज्यकार्यमें सर्वदा परामर्श देते रहे और उनसे अनेकों यज्ञ-यागादि करवाये।
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महर्षि वसिष्ठसे काम-क्रोधादि शत्रु पराजित होकर उनकी चरणसेवा किया करते थे, इसके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है। एक बार विश्वामित्र उनके अतिथि हुए, इन्होंने बड़े प्रेमसे अपनी कामधेनुकी सहायतास अनेकों प्रकारकी भोजन-सामग्री आदि उपस्थित कर दी और विश्वामित्रने अपनी सेनाके साथ पूर्णतः तृप्तिलाभ किया। उस गौकी ऐसी अलौकिक क्षमता देखकर विश्वामित्रको बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने उसे लेनेका इच्छा प्रकट की। वह गौ वसिष्ठके अग्निहोत्रके लिये आवश्यक थी, अत: जब उन्होंने देनेमें असमर्थता प्रकट का तब विश्वामित्रने बलात् छीन ले जानेकी चेष्टा की। उस समय वसिष्ठने उस गौकी सहायतासे अपार सेनाका सृष्टि कर दी और विश्वामित्रकी सेनाको मार भगाया। क्षत्रियबलके सामने इस प्रकार ब्रह्मबलका उत्कर्ष देखकर उन्हेंहार माननी पड़ी; परंतु इससे उनकी द्वेषभावना कम न हुई, बल्कि उन्होंने वसिष्ठको हराने के लिये वाटेवजीकी शरण ग्रहण की। शंकरजीकी कृपासे दिव्यास्त्र प्राप्त करके उन्होंने फिर वसिष्ठपर आक्रमण परंतु वसिष्ठ के ब्रह्मदण्डके सामने उनकी एक न चली और उनके मुँहसे बरबस निकल पड़ा
धिगबलं क्षत्रियबलं ब्रह्मतेजो बलं बलम।
एकेन ब्रह्मदण्डेन सर्वास्त्राणि हतानि में ॥
अन्ततः पराजय स्वीकार करके उन्हें ब्राह्मणत्व लाभके लिये तपस्या करने जाना पड़ा।महर्षि वसिष्ठ क्षमाकी तो मूर्ति ही थे। जब विश्वामित्रने इनके सौ पुत्रोंका संहार कर दिया, उस समय यद्यपि इन्होंने बड़ा शोक प्रकट किया, परंतु सामर्थ्य होनेपर भी विश्वामित्रके किसी प्रकारके अनिष्टका चिन्तनतक नहीं किया; बल्कि अन्त:करणके क्षणिक शोकाकुल होनेपर भी ये अपनी निर्लेपता और असंगताको नहीं भूले। - एक बार बात-ही-बातमें विश्वामित्रसे इनका विवाद छिड़ गया कि तपस्या बड़ी है या सत्संग? वसिष्ठजीका कहना था कि सत्संग बड़ा है और विश्वामित्रजीका कहना था कि तपस्या बड़ी है। अन्तम दोनों ही महर्षि अपने विवादका निर्णय करानेके लिये शेषभगवानके पास उपस्थित हुए। सब बातें सुनकर शेषभगवान्ने कहा कि भाई ! अभी तो मेरे सिरपर पृथ्वीका भार है, दोनोंमेंसे कोई एक थोड़ी देरके लिये इसे ले ले तो मैं निर्णय कर सकता हूँ। विश्वामित्र अपनी तपस्याके घमण्डमें फूले हुए थे, उन्होंने दस हजार वर्षकी तपस्याके फलका संकल्प किया और पृथ्वीको अपने सिरपर धारण करनेकी चेष्टा की।
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पृथ्वी काँपने लगी, सारे संसारमें तहलका मच गया। तब वसिष्ठजीने अपने सत्संगके आधे क्षणके फलका संकल्प करके पृथ्वीको धारण कर लिया और बहुत देरतक धारण किये रहे। अन्तमें जब शेषभगवान् फिर पृथ्वीको लेने लगे तब विश्वामित्रने कहा कि अभीतक आपने निर्णय तो सुनाया ही नहीं। शेषभगवान् हँस पड़े। उन्होंने कहा, निर्णय तो अपने-आप हो गया, आधे क्षणके सत्संगकी बराबरी हजारों वर्षकी तपस्या नहीं कर सकती। फिर क्या था, दोनों महर्षि तो थे ही, यह तो सत्संगकी महिमा प्रकट करनेका एक अभिनयमात्र था। दोनों ही बड़ी प्रसन्नताके साथ अपने-अपने आश्रमपर लौट आये। महर्षि वसिष्ठ योगवासिष्ठके उपदेशकके रूपमें ज्ञानकी साक्षात् मूर्ति हैं और अनेक यज्ञ-यागों तथा वसिष्ठसंहिताके प्रणयनद्वारा उन्होंने कर्मके महत्त्व और आचरणका आदर्श स्थापित किया है। उनका जीवन तो भगवान् श्रीरामके प्रेमसे सराबोर है ही। हमारे इतिहास-पुराणोंमें इनके चरित्रका बहुत बड़ा विस्तार है। उन सब बातोंका अध्ययन तो उन्हीं में हो सकता है। यहाँ तो केवल उनके जीवनकी दो-चार घटनाएँ ही उदधत की गयी हैं। महर्षि वसिष्ठ आज भी सप्तर्षियोंमें रहकर सारे जगतके कल्याणमें लगे हए हैं।
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