F सौभरि ऋषि की कथा,Story of Sobhari Rishi - bhagwat kathanak
सौभरि ऋषि की कथा,Story of Sobhari Rishi

bhagwat katha sikhe

सौभरि ऋषि की कथा,Story of Sobhari Rishi

सौभरि ऋषि की कथा,Story of Sobhari Rishi
सौभरि ऋषि की कथा
Story of Sobhari Rishi
सौभरि ऋषि की कथा saubhari rishi saubhari rishi hindi
दयाकी मूर्ति भगवान् सौभरि ऋग्वेदके ऋषि हैं। इनके चरित्र वेदों, पुराणों और उपनिषदोंमें सर्वत्र मिलते हैं। 'सौभरिसंहिता' नामसे एक संहिता भी है। ये वृन्दावनके निकट कालिन्दीके तटपर रमणक नामक द्वीपमें रहते थे, जो आजकल सुनरख नामसे प्रसिद्ध हैं। ये यमुनाजीके जलमें डूबकर हजारों वर्षोंतक तपस्या करते रहे। एक बार मल्लाहोंने मछली पकड़नेके लिये जाल डाला। मछलियोंके साथ जालमें ये स्वयं भी फँसकर चले आये। मल्लाहोंने समझा कोई बड़ा भारी मत्स्य फँस गया है। उन्होंने ऊपर खींचा तो मालूम हुआ ये तो महर्षि सौभरि हैं। मल्लाह बड़े घबड़ाये। ऋषिने कहा—'भाई! हम अब तुम्हारे जालमें फँस गये हैं, तुम हमें बेच दो।' मल्लाहोंकी हिम्मत कहाँ थी, ऋषिके आग्रह करनेपर वहाँके राजा आ गये। ऋषिको भला कौन मोल ले सकता है, उनका मूल्य कौन-सी वस्तुसे आँका जा सकता है ? अन्तमें ऋषिके सुझानेपर यह निश्चय हुआ कि गौके रोम-रोममें अनन्त देवताओंका निवास है, राजाने गौको बदले में देकर ऋषिको मुक्त कराया। मल्लाहोंको उन्होंने और भी बहुत-सा धन दिया।
सौभरि ऋषि की कथा
Story of Sobhari Rishi
एक बार ऋषिने देखा कि गरुड़देव उनके स्थानके समीप मछलियोंको खा रहे हैं। एक बड़ा मत्स्य था, उसे भी वे खाना चाहते थे। ऋषिने मना किया, किंतु गरुड़ इतने भूखे थे कि उन्होंने ऋषिकी बातपर ध्यान ही नहीं दिया। मत्स्यके बालक तड़पने लगे। महर्षिको बड़ी करुणा आयी और उन्होंने गरुड़को लक्ष्य करके शाप दिया कि 'आजसे यदि गरुड़ यहाँ आकर किसी भी जीवको खायेगा तो उसकी मृत्यु उसी क्षण हो जायगी, यह मैं सत्य-सत्य कहता हूँ।' उस दिनसे उनके समीपका समस्त स्थान हिंसाशून्य बन गया। वहाँ कोई भी जीव हिंसा नहीं कर सकता। एक बारकी बात है कि रमणक द्वीपके रहनेवाले सरपो ने  सलाह की कि गरुड़ हमारे समस्त परिवारका बड़ी निर्दयतासे संहार करते हैं, अत: उनके पास पारी-पारीसे सर्प जाया करें और उन्हें बलि दिया करें। ऐसा करनेसे शीघ्र ही कुलका नाश न होगा। यह बात समस्त सोने स्वीकार कर ली और वे बारी-बारा गरुड़के पास जाने लगे। एक दिन कालियनागकी बारी आयी। वह गया और गरुड़की बलिको स्वयं ही खा गया। इसपर गरुड़ बड़े क्रोधित हुए, वे नागपर झपटे। कालिय अपनी जान लेकर भागा और भगवान् सौभरिकी शरणमें गया। ऋषिने उसे आश्रय देते हुए कहा–'यहाँ तुम्हें किसी भी बातका भय नहीं, यहा गरुड़ तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकेगा।' उस दिनसे कालिय भगवान् सौभरिके ही आश्रमके समीप रहन लगा। इसीलिये उस स्थानका नाम अहिवास और उसके समीप रहनेवाले भगवान् सौभरि ऋषिके वश अहिवासी कहलाये।
सौभरि ऋषि की कथा
Story of Sobhari Rishi
ऋषिके विवाहकी भी एक बड़ी मनोरंजक कहानी है।
भातर समाधि लगाकर तपस्या करते थे। एक बार जलके भीतर-ही-भीतर उनकी पाधि भंग हुई। वहाँ उन्होंने देखा एक मत्स्य अपनी स्त्रीके सहित बड़े सुखसे विहार कर रहा ह । आखा जग-से कुसंगने अपना असर डाला, उसी समय ऋषिके मनमें संकल्प उठा कि 'देखो, ये जलचर जन्तु होकर कैसा सुखभोग कर रहे हैं, हम तो मनुष्यका शरीर पाकर भी इस सखसे वंचित हैं।' यह विचार आते ही ऋषि समाधि, प्राणायाम सब भूल गये। जलसे बाहर निकले। उन दिनों महाराजा मान्धाता अयोध्याम राज्य करते थे, ऋषि सीधे उन्हीं के पास पहुँचे। महाराजने ऋषिका बडा सत्कार किया, विधिवत् पूजा का, गौदान करनेके अनन्तर उनसे पधारनेका कारण पूछा। महर्षिने कहा-'राजन्! मैं गृहस्थसुखका उपभोग करना चाहता हूँ; तुम्हारे पचास कन्याएँ हैं, इनमेंसे एक मुझे दे दो।' ___ महाराज सुनकर सन्न रह गये। भला, हजारों वर्षके इन बूढ़े ऋषिको अब इस ढलती उम्रमें यह क्या सझी? इन्हें क्या कैसे दूँ? किंतु मना करनेकी भी हिम्मत नहीं हुई। ऋषिकी तनिक-सी भ्रकुटी टेढ़ी होते ही राज-पाटसे हाथ धोना पड़ेगा। यह सब सोच-समझकर उन्होंने एक चाल चली। बड़ी नम्रतासे हाथ जोड़कर उन्होंने कहा-'भगवन् ! मेरे अन्त:पुरमें आपके लिये कोई रुकावट तो है ही नहीं, आप भीतर पधारें। मेरे पचास कन्याएँ हैं, उनमेंसे मेरी जो कन्या आपको पसन्द करे, उसे ही आप प्रसन्नतापूर्वक ले जायँ।' महाराजने सोचा मेरी युवती कन्याएँ इन-जैसे अति बूढे ऋषिको क्यों पसन्द करने लगेंगी। जब वे पसन्द न करेंगी तो ये खुद ही लौट जायँगे। इस प्रकार साँप भी मर जायगा और लाठी भी न टूटेगी। मना भी न करनी पड़ेगी और ऋषि भी नाराज न होंगे।
सौभरि ऋषि की कथा
Story of Sobhari Rishi
महर्षि तो थे सर्वज्ञ। उनसे भला कोई क्या छिपा सकता है, वे महाराजके भावको ताड़ गये। तपस्याके बलसे वे नयी सृष्टि रच सकते थे, उन्होंने झटसे अपना रूप परम सुन्दर युवावस्थासम्पन्न बना लिया। रनवासमें जाते ही पचासों-की-पचासों कन्याएँ उनपर मुग्ध हो गयीं। राजाको अब क्या आपत्ति थी। पचासों कन्याएँ ऋषिके अर्पण कर दीं। उन सबको लेकर महर्षि अपने आश्रमपर आये। विश्वकर्माको आज्ञा दी, बहुत जल्दी पचास महल बने। फिर क्या था, बात-की-बातमें समस्त स्वर्गीय सुखोंसे युक्त पचास महल बन गये। उनमें सब प्रकारकी सुखोपभोगकी सामग्रियाँ थीं। योगबलसे पचास रूप बनाकर ऋषि उनके साथ गृहस्थसुखका उपभोग करने लगे। प्रत्येकके दस-दस पुत्र हुए। उन पुत्रोंके भी पुत्र हो गये। बड़ा परिवार होनेसे भाँतिभातिके झंझट, भाँति-भाँतिकी नित्य नयी उपाधियाँ होने लगीं। अब तो ऋषिको होश हुआ। अरे! यह मैंने क्या किया, तनिक देर विषयी मत्स्यका संसर्ग होनेसे मैं भी विषयी बन गया। विषयीजनोंके क्षणभरके संगका एसा दुष्परिणाम !! यह सोचते ही वे चिल्लाकर कहने लगे---
अहो इमं पश्यत मे विनाशं तपस्विनः सच्चरितव्रतस्य।
अन्तर्जले वारिचरप्रसङ्गात् प्रच्यावितं ब्रह्म चिरं धृतं यत्॥ 
निःसङ्गता मुक्तिपदं यतीनां सङ्गादशेषाः प्रभवन्ति दोषाः।
आरूढयोगोऽपि निपात्यतेऽधः सङ्गेन योगी किमुताल्पसिद्धिः॥
अरे ! यह मेरा पतन तो देखो, मैं व्रतमें तत्पर सच्चरित्र तपस्वी था। जलके भीतर मत्स्यके प्रसंगको
देखकर मैं इतने दिनके प्राप्त किये हुए अपने ब्रह्मतेजको विषयभोगोंके पीछे खो बैठा। मुमुक्षु पुरुषको मैथनमें लगे हुए प्राणियोंका साथ कभी न करना चाहिये। यदि सब प्रकारसे न छोड़ सके तो बाहरकी इन्द्रियोंसे ही छोड़ दे। बिलकुल एकान्तमें रहकर अनन्त प्रभुमें चित्त लगाकर उनके प्यारे भक्तोंका सत्संग करना चाहिये। निःसंग होना ही यतियोंके लिये मुक्तिका मार्ग है। संगसे सारे दोष उत्पन्न होते हैं। दुःसंगसे योगमें आरूढ हुए योगीतक गिर जाते हैं, फिर अल्पसिद्धिवाले जीवोंकी तो बात ही क्या है?'- ऐसा सोचकर वे वानप्रस्थधर्मका पालन करते हुए ब्रह्ममें लीन हो गये। सौभरिमुनिके जीवनमें भूतदया विशेषरूपसे देखी जाती है, वे प्राणियोंको दुखी नहीं देख सकते थे। प्राणिमात्रके प्रति दयाका भाव रखना यही तो सच्ची साधुता है।
सौभरि ऋषि की कथा
Story of Sobhari Rishi

Ads Atas Artikel

Ads Center 1

Ads Center 2

Ads Center 3