[ संत कौन हैं? ]
जिन संतोंकी वाणीका इतना महत्त्व है, जिसका इतना विलक्षण मङ्गलमय परिणाम होता है, वे संत - कौन हैं ? उनका तात्त्विक स्वरूप क्या है ? और उनके पहचानके लक्षण क्या हैं ?' स्वाभाविक ही यह प्रश्न होता है । इसका उत्तर यह है कि संतोंकी यथार्थ पहिचान बाह्य लक्षणोंसे नहीं हो सकती। इतना समझ लेना चाहिये कि संत वे हैं, जो नित्यसिद्ध सत्य-तत्त्वका साक्षात्कार करके, उसकी अपरोक्ष उपलब्धि करके उस सच्चिदानन्द-स्वरूपमें प्रतिष्ठित हो चुके हैं। वह सत् ही चेतन है, वह चेतन ही आनन्द है। अर्थात् वह सत् चेतन और आनन्दरूप है, वह चेतन सत् और आनन्दरूप है और वह आनन्द सत् और चेतनरूप है। इस आदिमध्यान्तहीन सच्चिदानन्दमें जो सहज प्रतिष्ठित हैं, वही संत हैं। अथवा वे संत हैं, जो मोक्षका निरादर करके प्रेमसुधार्णव भगवान्के दिव्य प्रेमको प्राप्त कर चुके हैं। निर्गुणी और प्रेमी संतोंके भगवान् ही सच्चिदानन्द ब्रह्म हैं, वे ही परमात्मा हैं और वे ही प्रेमास्पद भगवान् हैं। यह तत्त्व स्वरूपतः अद्वैत है या दैत, इसकी मीमांसा नहीं हो सकती। भेद और अभेद, सविशेष और निर्विशेष अवस्था और अधिकारके अनुसार सभी सत्य हैं। अखण्ड और समग्र सत्यमें प्रतिष्ठित पुरुषकी अनुभूति या स्वरूपस्थितिका विषय है यहइसको लेकर विवाद करनेकी आवश्यकता नहीं । हाँ, शास्त्रोंने इस प्रकारके अनुभूति-प्राप्त संतोंका-संत, साधु, प्रेमी, भक्त, भागवत, योगी, ज्ञानी, स्थितप्रज्ञ, मुक्त आदि अनेक विभिन्न नामोंसे वर्णन किया है, जो साधनभेदसे सभी सार्थक और सत्य हैं। पर उन सभी संतोंमें कुछ ऐसे लक्षण होते हैं जो प्रायः समानभावसे सर्वत्र पाये जाते हैं। उनमेंसे कुछका दिग्दर्शन यहाँ श्रीमद्भागवत और श्रीरामचरितमानसके अनुसार कीजियेश्रीभगवान् भक्त उद्धवसे कहते हैं-
कृपालुरकृतद्रोहस्तितिक्षुः सर्वदेहिनाम् ।
सत्यसारोऽनवद्यात्मा समः सर्वोपकारकः ॥
कामैरहतधीर्दान्तो मृदुः शुचिरकिंचनः ।
अनीहो मितभुक शान्तः स्थिरो मच्छरणो मुनिः ॥
अप्रमत्तो गभीरात्मा धतिमाञ्जितषड्गुणः ।
अमानी मानदः कल्पो मैत्रः कारुणिकः कविः ॥
(श्रीमद्भा० ११ । ११ । २९-३१)
'उद्धव ! मेरा भक्त कृपाकी मूर्ति होता है, वह किसी भी प्राणीसे वैर नहीं करता, वह सब प्रकारके सुख-दुःखोंको प्रसन्नतापूर्वक सहन करता है, सत्यको जीवनका सार समझता है, उसके मनमें कभी किसी प्रकारकी पापवासना नहीं उठती, वह सर्वत्र समदर्शी और सबका अकारण उपकार करनेवाला होता है । उसकी बुद्धि कामनाओंसे कलुषित नहीं होती। वह इन्द्रियविजयी, कोमल-स्वभाव और पवित्र होता है, उसके पास अपनी कोई भी वस्तु नहीं होती। किसी भी वस्तुके लिये वह कभी चेष्टा नहीं करता, परिमित भोजन करता है, सदा शान्त रहता है। उसकी बुद्धि स्थिर होती है, वह केवल मेरे ही आश्रय रहता है, निरन्तर मननशील रहता है। वह कभी प्रमाद नहीं करता, गम्भीर-स्वभाव और धैर्यवान होता है । भूख-प्यास, शोक-मोह और जन्म-मृत्यु-इन छहों पर विजय प्राप्त कर चुका है । वह स्वयं कभी किसीसे किसी प्रकारका मान नहीं चाहता और दूसरोंको सम्मान देता रहता है। भगवत्सम्बन्धी बातें समझनेमें बड़ा निपुण होता है, उसके हृदयमें करुणा भरी रहती है और भगवत्तत्त्वका उसे यथार्थ ज्ञान होता है।भगवान् कपिलदेवने माता देवहूतिजीसे कहा है--
तितिक्षवः कारुणिकाः सुहृदः सर्वदेहिनाम् ।
अजातशत्रवः शान्ताः साधवः साधुभूषणाः ॥
मय्यनन्येन भावेन भक्तिं कुर्वन्ति ये दृढाम् ।
मत्कृते त्यक्तकर्माणस्त्यक्तस्वजनबान्धवाः ॥
मदाश्रयाः कथा मृष्टाः शृण्वन्ति कथयन्ति च ।
तपन्ति विविधास्तापा नैतान्मद्गतचेतसः ॥
त एते साधवः साध्वि सर्वसङ्गविवर्जिताः ।
सङ्गस्तेष्वथ ते प्रायः सङ्गदोषहरा हि ते॥
(श्रीमद्भा० ३ । २५ । २१-२४ )
जो सुख-दुःखमें सहनशील, करुणापूर्णहृदय, सबका अकारण हित करनेवाले, किसीके प्रति कभी भी शत्रुभाव न रखनेवाले, शान्तस्वभाव, साधु भाववाले, साधुओंका सम्मान करनेवाले हैं, मुझमें अनन्यभावसे सुदृढ़ भक्ति करते हैं, मेरे लिये समस्त कर्म तथा स्वजन-बन्धुओंको भी त्याग चुके हैं, मेरे परायण होकर मेरी पवित्र कथाओंको सुनते, कहते और मुझमें ही चित्त लगाये रखते हैं, उन भक्तोंको संसारके विविध प्रकारके ताप कोई कष्ट नहीं पहुँचाते । साध्वि ! ऐसे सर्वसङ्ग-परित्यागी महापुरुष ही संत होते हैं, तुम्हें उन्हींके सङ्गकी इच्छा करनी चाहिये, क्योंकि वे आसक्तिसे उत्पन्न सभी दोषोंको हरनेवाले होते हैं।'
सबसे महान संत कौन है,
Who is the greatest saint
योगीश्वर हरिजी राजा निमिसे कहते हैं--
गृहीत्वापीन्द्रियैरर्थान् यो न द्वेष्टि न हृष्यति ।
विष्णोर्मायामिदं पश्यन् स वै भागवतोत्तमः ॥
देहेन्द्रियप्राणमनोधियां यो जन्माप्ययक्षुद्भयतर्षकृच्छ्रः।
संसारधमैरविमुह्यमानः स्मृत्या हरेर्भागवतप्रधानः ॥
न कामकर्मबीजानां यस्य चेतसि सम्भवः ।
वासुदेवैकनिलयः स वै भागवतोत्तमः ॥
न यस्य जन्मकर्मभ्यां न वर्णाश्रम जातिभिः ।
सज्जतेऽस्मिन्नहंभावो देहे वै स हरेः प्रियः ॥
न यस्य स्वः पर इति वित्तेष्वात्मनि वा भिदा ।
सर्वभूतसमः शान्तः स वै भागवतोत्तमः ॥
त्रिभुवनविभवहेतवेऽप्यकुण्ठ
स्मृतिरजितात्मसुरादिभिर्विमृग्यात्
न चलति भगवत्पदारविन्दा
ल्लवनिमिषार्धमपि यः स वैष्णवायः ॥
भगवत उरुविक्रमाधिशाखानखमणिचन्द्रिकया निरस्ततापे।
हृदि कथमुपसीदतां पुनः स प्रभवति चन्द्र इवोदितेऽर्कतापः ॥
विसृजति हृदयं न यस्य साक्षाद्धरिरवशाभिहितोऽप्यघौघनाशः।
प्रणयशनया धृताघ्रिपद्मः स भवति भागवतप्रधान उक्तः ॥
(श्रीमद्भा० ११ । २। ४८-५५)
जो श्रोत्र-नेत्र आदि इन्द्रियोंके द्वारा शब्द-रूप आदि विषयोंका ग्रहण तो करता है, परंतु अपनी इच्छाके प्रतिकूल विषयोंसे द्वेष नहीं करता और अनुकूल विषयोंके मिलनेपर हर्षित नहीं होता--उसकी यह दृष्टि बनी रहती है कि यह सब हमारे भगवान्की माया–लीला है, वह उत्तम भागवत है। संसारके धर्म हैं-जन्म-मृत्यु, भूख-प्यास, श्रम-कष्ट और भय-तृष्णा । ये क्रमशः शरीर, प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धिको प्राप्त होते ही रहते हैं। जो पुरुष भगवान्की स्मृतिमें इतना तन्मय रहता है कि इनके बार-बार होते-जाते रहनेपर भी उनसे मोहित नहीं होता, पराभूत नहीं होता, वह उत्तम भागवत है। जिसके मनमें विषयभोगकी इच्छा, कर्मप्रवृत्ति और उनके बीज-वासनाओंका उदय नहीं होता और जो एकमात्र भगवान् वासुदेवमें ही निवास करता है, वह उत्तम भगवद्भक्त है। जिसका इस शरीरमें न तो सत्कुलमें जन्म; तपस्या आदि कर्मसे तथा न वर्ण, आश्रम एवं जातिसे ही अहंभाव होता है, वह निश्चय ही भगवान्का प्यारा है । जो धन-सम्पत्तिमें अथवा शरीर आदिमें यह अपना है और यह पराया'-इस प्रकारका भेदभाव नहीं रखता, समस्त प्राणिपदार्थों में समस्वरूप परमात्माको देखता रहता है, समभाव रखता है तथा प्रत्येक स्थितिमें शान्त रहता है, वह भगवान्का उत्तम भक्त है। बड़े-बड़े देवता और ऋषि-मुनि भी अपने अन्तःकरणको भगवन्मय बनाते हुए जिन्हें ढूँढ़ते रहते हैंभगवान्के ऐसे चरणकमलोंसे आधे क्षण, पलक पड़नेके आधे समयके लिये भी जो नहीं हटता, निरन्तर उन चरणोंकी सेवामें ही लगा रहता है, यहाँतक कि कोई स्वयं उसे त्रिभुवनकी राज्यलक्ष्मी दे तो भी वह भगवत्-स्मृतिका तार जरा भी नहीं तोड़ता, उस राज्यलक्ष्मीकी ओर ध्यान ही नहीं देताः वही पुरुष वास्तवमें भगवद्भक्त-वैष्णवोंमें अग्रगण्य है, सर्वश्रेष्ठ है । रासलीलाके अवसरपर नृत्य-गतिसे भाँति-भाँतिके पद-विन्यास करनेवाले निखिल-सौन्दर्य-माधुर्य-निधि भगवान्के श्रीचरणोंके अंगुलि-नखकी मणिचन्द्रिकासे जिन शरणागत भक्तजनोंके हृदयका विरहजनित संताप एक बार दूर हो चुका है, उनके हृदयमें वह फिर कैसे आ सकता है, जैसे चन्द्रमाके उदय होनेपर सूर्यका ताप नहीं लग सकता । विवशतासे नामोच्चारण करनेपर भी सम्पूर्ण अघराशिको नष्ट कर देनेवाले भगवन श्री हरी जिनको एक छड़ के लिए नहीं छोड़ते।
सबसे महान संत कौन है,
Who is the greatest saint