[ संकीर्णानि ]
नीति के प्रेरक श्लोक अर्थ सहित
niti shlok sanskrit mein
लोभ है तो अन्य दोषोंकी क्या आवश्यकता है? पिशुनता है तो दूसरे पापोंसे क्या लेना है? सत्य है तो तपस्याकी क्या जरूरत? मन पवित्र है तो तीर्थोकी क्या आवश्यकता? सुशीलता है तो अन्य गुणोंसे क्या लाभ? सन्दर यश है तो गहनोंसे क्या? सुविद्या है तो धनसे क्या! और अपयश है तो मत्यसे क्या करना है?॥
आपद्गतं हससि किं द्रविणान्धमूढ
लक्ष्मीः स्थिरा न भवतीति किमत्र चित्रम्।
एतान्न पश्यसि घटाञ्जलयन्त्रचक्रे
रिक्ता भवन्ति भरिता भरिताश्च रिक्ताः ॥
हे धनान्ध मूढ ! किसी आपत्तिग्रस्तको देखकर क्यों हँसता है। इसमें आश्चर्य ही क्या है, लक्ष्मी कहीं स्थिर थोड़े ही रहती है। अरे! इस घटीयन्त्र (रहट) के घटोंको नहीं देखता? जो खाली हैं वे भरते जाते हैं, जो भरे हैं वे खाली होते जाते हैं।
मन्ये लक्ष्मि त्वया सार्धं समुद्राद्धूलिरुत्थिता।
पश्यन्तोऽपि न पश्यन्ति श्रीमन्तो धूलिलोचनाः॥
हे लक्ष्मि! मुझे ऐसा मालूम होता है कि समुद्रसे निकलते समय तुम्हारे साथ धलि भी आ गयी थी, जिसके आँखोंमें पड़ जानेसे धनवान् पुरुष देखते हुए भी नहीं देखते॥
हेयं दुःखमनागतं ध्येयं ब्रह्म सनातनम्।
आदेयं कायिकं सुखं विधेयं जनसेवनम्॥
दुःखके आनेसे पूर्व ही उसे रोकनेका उपाय करे, निरन्तर सनातन ब्रह्मका चिन्तन करे, शारीरिक सुखको स्वीकार करे और जनताकी सेवा करे॥
सानन्दं सदनं सुताश्च सुधियः कान्ता मनोहारिणी
सन्मित्रं सुधनं स्वयोषिति रतिः सेवारताः सेवकाः।
आतिथ्यं सुरपूजनं प्रतिदिनं मिष्टान्नपानं गृहे
साधोः सङ्ग उपासना च सततं धन्यो गृहस्थाश्रमः॥
वह गृहस्थाश्रम धन्य है, जिसमें आनन्दमय घर, विद्वान् पुत्र, सुन्दरी स्त्री, सच्चे मित्र, सात्त्विक धन, स्वपत्नीमें प्रीति, सेवापरायण सेवक, अतिथि-सत्कार, नित्य देवपूजा, मधुर भोजन, सत्संगति और उपासना-ये सर्वदा प्राप्त होते रहते हैं।
तद्वक्ता सदसि ब्रवीतु वचनं यच्छृण्वतां चेतसः
प्रोल्लासं रसपूरणं श्रवणयोरक्ष्णोर्विकासश्रियम्।
क्षुन्निद्राश्रमदुःखकालगतिहृत्कार्यान्तरापस्मृति
प्रोत्कण्ठामनिशं श्रुतौ वितनुते शोकं विरागादपि॥
सभामें वक्ता इस प्रकार वचन बोले जिससे श्रोताओंके चित्तमें आनन्द बढ़े, कानोंमें रस भर जाय,
आँखें खिलकर सुशोभित हो जायँ; भूख, नींद, थकावट, दु:ख, समय, चेष्टा तथा अन्य कार्योंकी याद न रहे, सुननेकी रात-दिन उत्कण्ठा बनी रहे और न सुननेसे दुःख मालूम हो॥