Story of Amar Katha
शंकर जी की अमर कथा हिंदी में
जब श्रीराधा जी पृथ्वी लोक पर चलने लगी तो गोलोक के श्रीराधाजी का लीलापक्षी श्रीशुकदेवजी ने भी साथ चलने को कहा तो वहीं राधाजी की आज्ञा से भगवान् की अमरकथा रूपी भागवत कथा के प्रचार करने के लिए गोलोक के लीलापक्षी श्रीशुकदेवजी एक सुग्गी के गर्भ के अण्डे के रूप में प्रकट होकर अमरनाथ में प्रकट हुए थे। वह अण्डा हवा के झकोरों के कारण फूट गया था तथा अमरनाथ में फूटा हुआ पड़ा था। इधर एक बार श्री नारद जी घूमते-घूमते कैलास पर्वत पर पहुँचे तो श्री पार्वती जी ने नारद को सत्कार करने के बाद पूछा की नारद जी आप कहाँ से आ रहे हैं तो नारद जी ने कहा कि मैं हर जगह घूमते हुए आ रहा हूँ परन्तु अब घुमना कम कर दिया हूँ क्योकि लोगों पर विश्वास नहीं है इसका कारण लोगों में प्रेम एक दूसरे के प्रति नहीं है केवल दिखावा का प्रेम है वस्तुतः नही। तब पार्वती जी ने कहा कि हे नारद जी ! इस जगत् के लोगों में आपस में प्रेम है या नहीं, मैं नहीं जानती,
लेकिन हमारे पति भूतभावन शंकर जी में तो बहुत प्रेम है। यानी श्री शंकरजी हमसे बहुत प्रेम करते हैं। तब श्रीनारद जी ने कहा कि हे पार्वतीजी ! जब आपके पतिदेव श्री शंकरजी आपसे प्रेम करते हैं तो यह जरूर बतलाये होंगे कि श्री शंकर जी जो अपने गले में माला पहनते हैं वह कैसी और किसकी माला है, तब पार्वती ने कहा कि हे नारदजी! यह माला पहनने का रहस्य तो वे अभी तक नही बतलायें है। तब नारद जी ने कहा कि फिर आपके प्रति आपसे झूठा या दिखावे का प्रेम करते हैं। वस्तुतः प्रेम नहीं करते है। इतना कहकर श्रीनारदजी वहाँ से चल दिये।
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शंकर जी की अमर कथा हिंदी में
इधर वही एक बार पार्वतीजी ने भोलेनाथ से अनुरोध किया कि कृपया यह बतलायें कि आपकी गले में किसकी माला है तथा यह वर दें कि हे स्वामी मुझे आपसे वियाग नहीं हो और हमेशा आत्मज्ञान बना रहे, इसका कोई उपाय बतायें। आगे श्री शंकरजी ने कहा कि इस आत्मज्ञान को मैं समय से बतलाऊँगा। परंतु श्रीनारद द्वारा जो भेद वचन है उन भेद वचनों के समाधान को करते हुये श्रीशंकरजी ने कहा कि हे पार्वती यह हमारे गले में जो मुण्डों की माला है वह मुण्डमाला तुम्हारे ही मुण्डों की है जिनको मैंने तुम्हारे बार-बार मरने पर तुम्हारी यादगारी में माला के रूप में धारण किया है क्योकि मैं तुमसे अति प्रेम करता हूं। तब पार्वती जी ने कहा कि मै बार-बार मर जाती हूँ और आपकी मृत्यु नही होती इसका कारण क्या है? तब श्री शंकर जी ने कहा कि हे पार्वती! मैने अमर कथा सुना है जिससे मैं अमर हूँ।
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शंकर जी की अमर कथा हिंदी में
यह घटना सुनकर श्री पार्वती जी ने अमर कथा सुनने के लिये श्री शंकर जी से प्रार्थना की तब शंकर जी ने कहा कि हे पार्वती इस समय मैं तुझमे अमरकथा सुनने का पुर्ण लक्षण नही देख रहा हूँ फिर भी तुम्हारे आग्रह करने के कारण मैं अवश्य कथा सुनाउगाँ यानी आज आपको अति गोपनीय कथा सुना रहा हूँ जिसको सुनकर तुम भी अमर हो सकती हो। इसलिए आप जरा बाहर देख आइये कि कहीं कोई है तो नहीं। श्री पार्वतीजी ने बाहर आकर चारों तरफ अच्छी तरह देखा तो वहाँ एक शुक शावक के विगलित अंडे के सिवा कुछ नहीं था। उन्होंने श्री शंकरजी से कहा कि बाहर कोई नहीं नहीं है। तब-- श्री शंकरजी ने ध्यानस्थ मुद्रा में 'अमरकथा का अमृत प्रवाह शुरू किया।
बीच-बीच में पार्वती जी हुँकारी भरती थीं। दशम स्कन्ध की समाप्ति पर वे निद्राग्रस्त हो गई एवं बारहवें स्कन्ध की समाप्ति पर पार्वतीजी ने शंकर जी से कहा कि हे प्रभो क्षमा करेंगे, मुझे दशम स्कन्ध के बाद नींद आ गयी थी। मैं आगे की कथा नहीं सुन सकी हूँ। अर्थात् श्री कृष्ण उद्धव संवाद जो ग्यारहवे स्कन्ध में है उसको मैंने नहीं सुना तथा बारहवें स्कन्ध की कथा भी नहीं सुनी। इधर यह जानने हेतु कि फिर कथा के बीच में हुंकारी कौन भर रहा था? यह जानने के लिए शिवजी बाहर निकले। उन्होंने एक सुन्दर शुक शावक को देखा। श्री शंकरजी ने पार्वती जी से पूछा- आखिर यह शुक शावक कहाँ से आ गया ? पार्वतीजी ने विनीत वाणी में कहा कि यह तो विगलित अंडे के रूप मे पडा था श्री भागवत कथा रूपी अमृत पान से जीवित हो गया। इस प्रकार अमर कथा की गोपनीयता भंग होने से शंकर जी शुक-शावक को पकड़ने के लिए झपटे। शुक शावक उड़ गया और उड़ते-उड़ते भय से श्री बद्रिकाश्रम के निकट स्थित व्यास आश्रम पर श्रीव्यास जी की पत्नी पिंगला के मुख में प्रवेश कर गया।
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फिर शंकर जी ने श्रीव्यासजी द्वारा सान्तवना प्राप्त कर वापस अपने आश्रम पर लौट गये। इधर श्री शुकदेवजी १६वर्षों तक पिंगला के गर्भ में रहे। अन्ततोगत्वा श्री व्यास जी के अनुरोध करने पर शुकदेवजी ने अपना भय बताया। उन्होंने गर्भ के भीतर से कहा कि उन्हें बाहर आनेपर माया से ग्रसित होने का भय है। यदि भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा माया से ग्रसित नहीं होने का आश्वासन मिले तभी व बाहर आयेंगे। व्यासजी के अनुरोध से भगवान् श्रीकृष्ण ने शुकदेवजी को माया से ग्रसित नहीं होने का आश्वासन दिया, तब शुकदेवजी गर्भ से बाहर आये और जन्म लेते ही जंगल में तपस्या करने चल पड तथा पुनः शुकदेवजी जो अपने पिता व्यास जी के बुलाने पर भी नही आये। लेकिन व्यास जी के ब्रह्मचारी शिष्यों द्वारा गाये जाते हुए श्रीभागवतजी के मंत्रों से अपनी समाधी को तोड़ दीया अर्थात "बर्डीपीडं नटवरपु."-इस