मकरवाहिनी गंगा की कथा

मकरवाहिनी गंगा की कथा
मकरवाहिनी पौराणिक भावना के अनुसार दैवी गंगा मकरवाहिनी हैं। गंगा के साथ 'मकर' वाहन की उपयुक्तता हैं। उसी समय बोध होता है, भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा था- “झपानाम् मकरश्चास्मि स्त्रोतसामस्मि जाह्नवी।" अर्थात् जलचर जीवों के मध्य मैं मकर और स्त्रौतस्विनियों के बीच मै जाह्नवी या गंगा हुँ। गंगा दुर्वार गति लेकर पृथ्वी पर अवतीर्ण हुई तथा मकर की गति भी उल्लेखनीय भाव से द्रुत है। मक + अर (क) = मकर-मक् का अर्थ हुआ गमन करना। महावेगवती, महाशक्तिमयी, विपुला, विशाला गंगा के वाहन के रुप में, मीन रुपी में शक्तिशाली, वीर्यवान मकर ही समर्थ हो सकता है। पुनश्च, मकर मानों मुमुक्षु जीव का प्रतीक है। गहरे जल के तलप्रदेश से मकर बीच-बीच में ऊपर स्थल की ओर आता है, मानो उसे प्रकाश और हवा की कामना हो, मुक्ति की कामना हो। तभी तो यह मीनवर मुक्तिविधायिनी, पापनाशिनी माँ गंगा का नित्य आश्रित है। सरिता से सागर की ओर जाना ही उसके प्राणों की कामना है। मुक्तिकामी साधक के विचार से मकर केवलमात्र एक जलचर प्राणी नही, मकर एक तत्त्व है। गंगा भी मात्र नदी नहीं, एक तत्व है। मकर का आदि अक्षर 'म' है। कामधेनु तत्र में मकार का परिचय दिया गया है-स्वयं परम कुण्डली, तरुणादित्य-सकाश, चतुर्वर्ग-प्रदायक, पंचदेवमय और पंचप्राणमय-
म-कारम् श्रृणु चार्वगी परमकुण्डली। 
तरुणादित्यसंकाशम् चतुर्वर्गप्रदायकम्॥
पंचदेवमयं वर्ण पंचप्राणमयं सदा।।
अर्थात् मकार' एक महाशक्ति हैं। पंचप्राणमय जीवभाव के आश्रय से यह असल में कामशक्ति है। कामदेव स्वयं मकरध्वज हैं : अथति काम को इन्होने मस्तक पर रखा है। जीवदेह में भी एक जलाशय है। लिग-भंग
लांछित इस भूमि पर ही जीव को संताप देनेवाला है दरन्त काम। इस चित्त-चंचलकारी रिपु के वश में होने के कारण ही जीव तत्त्वज्ञान से पराड् मख रहता है। इससे मुक्ति का उपाय क्या है? कामशक्ति का परिशोघन एवं उदात्तीकरण ही देवतत्त्व का विकाश है। प्रवृत्ति का मार्ग नहीं। चाहिये परानिवृत्ति। जो ऊर्ध्वरेता हैं, वे मनुष्य नही देवता हैं
ऊर्ध्वरेता भवेत् यस्य देवो न तु मानुषः। 
परन्तु कामजयी होना क्या सहज है? बिना किसी विवाद के ही कहूँगा--प्रकृति के बन्धन से अगर मुक्ति पानि है ; तो इस दुष्पराजेय काम पर जय पानि ही होगी। माँ गंगा तो वही निवृत्ति का मार्ग दिखला रही है, सिखला रही हैं, समझा रही हैं। कामशक्ति के प्रतिरूप मकर को रखा है, उन्होंने अपने चरणों के तले, और सर्वत्यागी, सर्वसन्यासी शिव को स्थान दिया है, अपने हृदयस्थल में। हे वरेण्य भक्तगण, हे पुण्यवान तीर्थयात्रीगण, माँ के दिव्य चरित्र से क्या इस महती शिक्षा को हम ग्रहण नही करेंगे?
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