[ कपिल का सांख्य-दर्शन ]
सांख्य दर्शन की परिभाषा
जीव की दुर्गति का कारण हैं-आध्यात्मिक, आधिदैविक एवं आधिभौतिक ताप । भगवान कपिल ने इन त्रिविध दु:खों से मुक्ति का उपाय बतलाया है। उनके अनुसार, त्रिविध दुःखों से आत्यन्तिक निवृत्ति ही परम पुरुषार्थ है। सांख्य के अनुसार मूल तत्व २५ हैं, यथा-प्रकृति महत्, अहंकार, ग्यारह इन्द्रियाँ, पंच तन्मात्राएँ, पंच महाभूत एवं पुरुष। सत्त्व, रज एवं तम-इन्ही तीन गुणों की साम्यावस्था को प्रकृति कहा जाता है। इस अवस्था में प्रकृति निष्क्रिय रहती है। उक्त त्रयगुशों में जब कभी ह्रास या वृद्धि होती है, तब उस वैषम्य मे प्रकृति का साम्य भंग होता है-उसमें विक्षोभ, चांचल्य, विकृति और सक्रियता आती है। प्रकति कि विकृति से जीव और जगत की सृष्टि होती है। यह जीव और जगत अव्यक्त रुप में प्रकृति में ही स्थित या विद्यमान रहते है, इसी कारण प्रकृति का एक और नाम “अव्यक्त' है। सृष्टि आदि क्रिया में प्रकृति ही प्रधान है। वह प्रकृतरूप में यह काम करती है, इसी कारण 'प्रकृति' नाम पड़ा-“प्रकहोतीति प्रकृति"। प्रकृति का प्रथम परिणाम महत्-तत्त्व या बद्धितत्त्व है। महत्-तत्त्व की विकृति या परिणाम या कार्य अहंकार तत्त्व है। अहंकार तत्त्व के द्विविध परिणाम हैं-पंचतन्मात्रा एव बाह्य तथा अन्तरिक इन्द्रिय-विषथ। रुप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द-ये पाँज तन्मात्राएँ हैं। इन सुक्ष्म पंचतन्मात्राओं से ही क्षिति, अप् (जल), तेज (पावक), मरुत (समीर), व्योम (आकाश)-इन पाँच स्थूल तत्त्वों की उत्पत्ति होती है। बाह्य इन्द्रियाँ दस हैं-चक्षु, कर्ण, नासिका, जिह्वा, त्वक्, वाक्, पाणि, पाद, पायु, एवं उपस्थ। प्रथम पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, एवं अन्तिम ५न्द्रियाँ । मन अन्तरेन्द्रिय है। अत: हिसाब से देखा जाता है कि प्रकृति पहित प्राक्त पदार्थ चौबीस हैं। पुरुष एक हैं। सांख्य मत के अनुसार इन पंचविंशति तत्त्वों का सम्यक् ज्ञान ही पुरुषार्थ हैं। सांख्य मत में, जीव और जगत की सृष्टि में ईश्वर को प्रमाणरूप में नहीं माना जाता। पुरुष और प्रकृति के अविविक्त संयोग में ही सष्टि क्रिया निष्पन्न होती है। पुरुष और प्रकृति दोनों ही अनादि है। पुरुष चेतन है, प्रकृति जड़, पुरुष निष्क्रिय है, प्रकृति क्रियाशील। चेतन परुष के सानिध्यवश होने के कारण ही प्रकृति भी चेतन्यमयी लगती है। पुरुष केवलमात्र भोक्ता है, कर्ता नहीं। परन्तु पुरुष का यह भोग औपाधिक है। पुरुष सर्वदा ही दु:खवर्जित है। दुःख तो बुद्धि का विकार है। यह दःखबुद्धि पुरुष में प्रतिबिम्बित मात्र होती है।कपिल का सांख्य-दर्शन,सांख्य दर्शन की परिभाषा
सांख्य मत का कथन है-शरीर के भेद से आत्मा और पुरुष बहु हैं। पुरुष एवं प्रकृति चतुविंशति तत्त्व से स्वतन्त्र हैं। अज्ञानतावश, न जानने के कारण ही जीव को बन्धन में बंधना पड़ता है, दु:ख और संसार में आवागमन के चक्र में फसना पड़ता है। प्रकृति पुरुष को अपने हावभाव, छल-कौशल द्वारा बाँधकर रखती है। प्रकृति मानो नाटक की नर्तकी है-मनमोहिनी, हास्य-लास्यमयी। प्रकृति के इस हाव-भाव, लास्यनृत्य, छल-कौशल को पुरुष जिस दिन पकड़ लेता है, उसी दिन वह मुक्त हो जाता है, अर्थात् सारे बंधन तोड़ देता है। प्रकृति से पुरुष के स्वातंत्र्य या मुक्ति को ही, मुक्ति के विवेक को ही ज्ञान कहा जाता है और सांख्य मत के अनुसार ज्ञान हि मुक्ति है--"ज्ञानन्मुक्ति"। कठोर साधना द्वारा प्रकृति-पुरुष के भोग्या-भोक्ता भाव का उच्छेद ही पुरुषार्थ या आत्यन्तिक ‘दु:खनिवृत्ति' है। अर्थात् प्रकृति को तलाक देकर हीउसके साथ सब तरह के रंग-राग करके ही पुरुष के जीवन में मुक्ति की प्राप्त होती है। प्रकृति से सम्पूर्ण रुप सं स्वतन्त्र होने का नाम ही पुरुष कवल्य है। मुक्त पुरुष को प्रकृति अपने छल-बल से रिझाने नहा जिस प्रकार सभा समाप्त हो जाने के पश्चात् नर्तकी पूर्णतः निढाल ता है और नाचने के लिए नहीं उठती, उसी प्रकार की स्थिति यह है। सांख्यकारो ने पुरुषार्थ की प्राप्ति के लिए ध्यान, धारणा, अभ्यास, वैराग्य. तपश्चरण आदि का पालन करने का आवश्यक उपदेश दिया है। सांख्य के साथ योग का अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध है।
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