akhandanand saraswati maharaj अखंडानंद सरस्वती जी वेदांत प्रवचन-प्रह्लाद-चरित

akhandanand saraswati maharaj
अखंडानंद सरस्वती जी  वेदांत प्रवचन-प्रह्लाद-चरित
[ भाग-2 ]
akhandanand saraswati maharaj,अखंडानंद सरस्वती वेदांत प्रवचन-प्रह्लाद-चरित
 गीता में कहा गया है कि क्रोध नरकका द्वार है। तो यह बिना भगवत्-प्रेरणाके सम्भव नहीं है इसमें कुछ-न-कुछ भगवान्का हाथ अवश्य है।  नहीं तो भगवान के दरबारमें जहाँ सब दिव्य-ही-दिव्य, लौकिक-सृष्टि ही जहाँ नहीं वहाँ मूर्खताके कारण भेद-बुद्धि आगयी जय-विजयमें और क्रोध आगया सनकादिकोंके हृदयमें।

इधर भगवानकी इच्छा हुई कि हम थोड़ा खेल-मेल करें, थोड़ा निकलें। और बाहर निकलनेके लिए निमित्त लक्ष्मीजीको साना ठीक नहीं, महात्माओंको बनाना ठीक और उन्होंने क्रोधमें भाकर श्राप दे दिया। असलमें शाप देनेका अधिकार भी सबको नहीं होता है। जो अनुग्रह कर सकता है, वही निग्रह करता है।

जिसको जेलसे छोड़नेका हक नहीं है, उसको जेलमें डालनेका भी हक नहीं है। जो नया जीवन दे नहीं सकता, वह फाँसीकी सजा भी नहीं दे सकता। व्यवस्था बिलकुल समान रूपसे होनी चाहिए।

तो पहले जो महात्मा लोग शाप देते थे, उनमें निग्रहका सामर्थ्य भी होता था और साथ-हीसाथ अनुग्रहका भी सामर्थ्य होता था कि कृपा करके छोड़ सकें । तो, शाप देनेके पश्चात् सनकादिके मनमें आयी करुणा कि भगवान् तो क्षीर-सागरमें शेष-शैय्या पर हर समय तान दुपट्टा सोये रहते हैं और उनको संसारके प्राणियोंके सुख-दुःखका कुछ पता ही नहीं है।

तो इनको भी ले चलो बाहर और दिखलाओ कि आपके राज्यकी क्या स्थिति हो रही है? जैसे कोई राजा हमेशा महलमें ही रहे, कभी बाहर नहीं निकले, अपनी प्रजाको नहीं सम्हाले तो यह उसके लिए कलंककी बात है, वैसे ही प्रभु हमेशा वैकुण्ठमें ही रहें, कभी संसारके जीवोंको न सम्हालें तो यह उनके लिए कलंक है।

तो मालिकको, अपने प्रभुको कलंकसे बचाने के लिए, वैकुण्ठसे बाहर निकालने के लिए सनकादिने जय-विजयको शाप दे दिया-जाओ तुम दोनों राक्षस हा जाओ, सत्त्व-रज-तममें जाओ। और जब तुम लोग संकटमें पड़ोगे तब भगवान् तुम्हारी रक्षा करनेके लिए स्वयं जायेंगे।

भगवानका बाना ही यह है कि जब तक भक्तपर कोई सङ्कट नहीं आता भगवान्की नींद टूटती ही नहीं है। अब जय-विजय बोले-'अच्छा बाबाजी, आपने हमको तो शाप दे दिया कि हम असुर हो जायँ और हमारा उद्धार करनेके लिए, आसुर-भावकी निवृत्ति करनेके लिए स्वयं भगवान हमारे पास आवें और मार-काट करें, पर जरा यह भी तो बताइये कि आप क्या करेंगे? बोले कि हम सबका आनन्द लेंगे।

कैसे आनन्द लेंगे? बोले कि हम चारों भाई मिलकर प्रह्लाद हो जायेंगे, विभीषण हो जायेंगे और भगवानकी और भक्तकी तू-तू मैं-मैं देखेंगे, जो दो-दो हाथ होते हैं-भगवानकी वह लीला देखेंगे!

अब आप भगवानकी करुणा देखें-भगवानके सेवक यदि भगवान्से विमुख हो जाते हैं तब भी भगवान् उनको किसी प्रकारका कष्ट नहीं होने देते, उसकी सारी व्यवस्था स्वयं करते हैं। जय-विजय जब हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष होकर आये तब इनका बड़ा भारी वैभव ।
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अखंडानंद सरस्वती जी  वेदांत प्रवचन-प्रह्लाद-चरित
अब किसीने जीवनभर सेवा की और चार-पाँच दिन सेवा नहीं की तो इसीसे भगवान् उसकी सेवा भूल जाये और कहें कि निकल जा, तो ऐसा नहीं। जो कृतज्ञ स्वामी होता है वह अपने सेवककी सेवाको कभी किसी अवस्थामें नहीं भूल सकता। अच्छा भाई, आसुर-भाव आ गया।

तो 'हिरण्यकशिपु यस्य' हिरण्यकशिपुकी सारी व्यवस्था स्वर्णप्रधान थी, यहाँ तक कि उसकी सेज भी सोनेकी बनी। और हिरण्याक्ष, जिसकी आँखके सामने सोना-ही-सोना दिखायी पड़े-'हिरण्येअक्षिणी यस्य'।

तो हिरण्यकशिपु हुआ भोगी और हिरण्याक्ष हुआ अर्थ-दृष्टिप्रधान । भगवान् जब भूल गये तब स्वार्थकी वृत्ति आ गयी। और यह भी बात है कि जब आदमी रास्ते पर चलता है तब उसके पाँव कहीं-न-कहीं फिसल जाते हैं। वह अपने स्वरूपको भूल जाता है, भगवान्के स्वरूपको भूल जाता है-असुर बोलते ही उसको हैं।
'असुसरमन्ते इति असुरः'
जो अपने देहभावमें मग्न होकर इन्द्रियोंको ही सबकुछ समझने लगते हैं, उनका नाम हो जाता है 'असुर'। तो कभी-कभी भक्त लोग भी महात्माके अपराधसे असुर हो जाते हैं

साधु अवज्ञा कर फल ऐसा।।
जरई नगर अनाथ कर जैसा॥ 
तो जब जय-विजयसे संतका अपराध हुआ तो वे असुर-भावको पाप्त हो गये इन्द्रियाराम हो गये । वे तो काममें, क्रोधमें रम गये। उनके सामने भगवान नहीं रहे, दुश्मन आ गये।

दृष्टिका फिर जाना ही तो असरत्व है। लेकिन, भगवान् कहते हैं कि मेरा भक्त नरकमें हो तो मैं नरकमें भी जाकर उसको निकाल कर लाता हूँ, उसकी रक्षा करता हूँ। तीन बार जन्म लिया जय-विजयने और भगवान्ने चार बार जन्म लिया। बराह होकर हिरण्याक्षको मारा, नृसिंह होकर हिरण्यकशिपुको मारा, राम होकर रावण-कुम्भकरणको, कृष्णके रूपमें आकर शिशुपाल-दन्तवक्त्रको मारा।

आप जानते हैं कि पृथिवी पानीमें डूब गयी थी। तो गन्ध-ग्राहक इन्द्रिय है नासिका और पृथिवी है गन्धवती और पृथिवीकी ही रक्षा करनी है, इसलिए ब्रह्माजीकी गन्धेन्द्रिय-नासिकाके द्वारा भगवान्का प्राकट्य हुआ बराहके रूपमें। आपने ध्यान दिया होगा-बराह अपना मुँह हमेशा धरती पर रखते हैं और पृथ्वीके गन्दे-से-गन्दे अंशको भी ग्रहण करते हैं-यह उसका पृथिवीसे प्रेम है।

बराह-अवतार लेकर भगवान् ने यह प्रकट कर दिया कि हमारे प्रेमीका जो गन्दा-से-गन्दा रूप है वह भी हमारा भोग्य है और मैं उससे भी तृप्तिका अनुभव करता हूँ। मैं सपने में भी अपने प्रेमीको किसी भी अवस्थामें छोड़ता नहीं, छोड़ नहीं सकता। सपने में भी रामको विभीषण और सुग्रीवका दोष नहीं दीखता।

सारी दुनिया कहे कि सुग्रीव दोषी, विभीषण दोषी। लेकिन, रामचन्द्रको उनके दोषका कभी स्वप्न भी नहीं आया। तो यह जो प्रभुकी अकारण करुणा बरस रही है, कृपा बरस रही है, उसको दिखानेके लिए यह लीला होती है!
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अखंडानंद सरस्वती जी  वेदांत प्रवचन-प्रह्लाद-चरित
तो नारायण, अपने भक्तकी रक्षा करने के लिए अब जब नृसिंह बननेका अवसर आया तो भगवान्ने देवताओंसे कहा कि हमारे माँबाप बन जाओ। पूछा-किस रूपमें आप आयेंगे, देवताके रूपमें या मनुष्यके रूपमें? बोले, कि हम नृसिंहके रूपमें आयेंगे । देवता बोले कि फिर सिंहसे पैदा हो जाओ।

सिंहसे पूछा तो सिंहने भी मना कर दिया-आधा नर और आधा सिंह हम ऐसा ‘दोगला' नहीं पैदा कर सकते-गाली और दे दी! अन्तमें मनुष्यस पूछा। मनुष्यन मा मना कर दिया। बोले-ना-बाबा-ना, हम सिंह पैदा नहीं करेंगे; कहीं पैदा होते ही तुम हमको खा जाओ तो! ढूँढने पर भी भगवान्को दुनियामें जन्म देनेके लिए माँ-बाप नहीं मिला।

हारकर प्रह्लादकी रक्षाके लिए और हिरण्यकशिपुका उद्धार कर उसको फिरसे वैकुण्ठमें लानेके लिए भगवान् एक काठके खम्भेमें-से नृसिंहके रूपमें प्रकट हो गये।

लेकिन उन्होंने अपने भक्त हिरण्यकशिपुको नहीं छोड़ा। देखो, प्रह्लादका कष्ट तो यह था कि सारे असुरोंका उद्धार होय और हिरण्यकशिपुका कष्ट यह था कि वह अपने मालिकको ही भूल गया, अपने मालिकको ही नहीं पहचानता था।

मालिकने कहा कि अच्छा बेटा, तुम हमको नहीं पहचानते हो तो क्या हुआ, हम तुमको पहचानते हैं और तुमको हम वहाँसे उठाकर फिर वैकुण्ठमें ले आवेंगे! इसलिए, यह भगवान्का नृसिंह-अवतार हुआ।
ॐ शान्तिः शान्तिः!! शान्तिः!!!
प्रह्लाद-चरित
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अखंडानंद सरस्वती जी  वेदांत प्रवचन-प्रह्लाद-चरित

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