akhandanand saraswati maharaj,अखंडानंद सरस्वती वेदांत प्रवचन-प्रह्लाद-चरित

akhandanand saraswati maharaj
अखंडानंद सरस्वती जी  वेदांत प्रवचन-प्रह्लाद-चरित
[ भाग-1 ]
akhandanand saraswati maharaj,अखंडानंद सरस्वती वेदांत प्रवचन-प्रह्लाद-चरित
- संस्कृतमें एक शब्द है 'विकुण्ठा' |
विकुण्ठा माने कुण्ठा-रहित ऐसी तीक्ष्ण, एकाग्र बुद्धि जिसे कहीं भी प्रवेश करने में कुण्ठित न होना पड़े।
'दृश्यते त्वग्रया बुद्धया' । भगवान् ऐसी ही विकुण्ठा-बुद्धिमें प्रकट होते हैं और उनका नाम होता है- वैकुण्ठ' । भगवान्के धामका नाम भी है वैकुण्ठ ।

धाम और धामी एक ही होते हैं!  तो भगवान्के पास पहुँचनेके लिए जो मार्ग है उसके दो प्रहरी होते हैं-जय और विजय । एक तो इन्द्रियों पर जय हो और दूसरे मनपर विजय हो। जिसके मन और इन्द्रियों पर विजय नहीं है वह कुण्ठा-रहित बुद्धिके द्वारा भी प्रभुको प्राप्त नहीं कर सकता। 'जय' माने इन्द्रियोंको वशमें करना और 'विजय'माने मनपर पूरी तरहसे विजय प्राप्त करना ।

जय और विजय ये दोनों जब हमारे अनुकूल हो जाते हैं तब हमारा प्रवेश भगवान्के धाममें हो पाता है।
सनत्कुमार आदि वैकुण्ठके बिलकुल पास ही 'सत्यलोक में रहते थे। पर, वैकुण्ठके इतने पास रहने पर भी ये लोग कभी भगवान्का दर्शन करनेके लिए नहीं जाते थे! महात्माओंको भगवान्का दर्शन करनेके लिए कहीं जानेकी या आँख खोलकर बाहर देखनेकी या कुछ और करनेकी आवश्यकता नहीं होती।

क्योंकि 'नारायण' माने होता ही यह  है कि जो नरके हृदयमें रहे-'नरस्य इदं नारं हृदयं तदेव अयनं यस्य' । तो नारायण तो दिन-रात महात्माके हृदयमें रहते ही हैं। तो, इनके मन में कभी इच्छा ही नहीं होती थी कि कहीं जाकर भगवान्का दर्शन करें। ये तो यही जानते-मानते कि भगवान् अपने हृदयमें हैं, अन्तर्यामी हैं, अपना आत्मा ही हैं, उनके लिए कहीं जानेकी क्या जरूरत?

अब भगवान्ने देखा कि यदि जय-विजयकी शर्त बनी रहेगी कि बिना इनकी अनुकूलताके भगवान्का दर्शन नहीं होता है तो भले कुछ ऋषि-मुनियोंको तो मेरा दर्शन सुलभ हो जाये, परन्तु और लोग जिन्होंने अपनी इन्द्रियों पर जय और मनपर विजय नहीं प्राप्त की है वे बेचारे तो मेरे दर्शनसे वंचित ही रह जायेंगे और मुझे तो दुर्गम नहीं सुगम होना चाहिए ,

जिससे लोग जान सकें, देख सकें कि भगवान् कैसे होते हैं, भगवान् क्या होते हैं। इसलिए भगवान्ने सनकादिके हृदयमें इच्छा उत्पन्न की।
akhandanand saraswati maharaj
अखंडानंद सरस्वती जी  वेदांत प्रवचन-प्रह्लाद-चरित
आप कभी भगवान्को देखना चाहेंगे? आपके मनमें इच्छाएँ उदय होती हैं? 'इच्छा' माने ख्वाहिश, तमन्ना, आकांक्षा, वासना । तो असलमें आप हैं देखनेवाले और वासनाएँ आपको दीखती हैं।

परन्तु, आपके और वासनाके बीचमें एक ऐसी वस्तु रहती है जो वासनाओंको जीवन देती है, प्राण देती है। वह कोई और नहीं है, वह आप ही मायाकी उपाधिसे अन्तर्यामी बनकर, ईश्वर बनकर बैठे हैं। आपके और वासनाके बीचमें परमेश्वरका, अन्तर्यामीका, नारायणका निवास है।  इसीसे महात्मा लोग कहीं आते-जाते नहीं हैं
जब जरा गर्दन झुकायी देख ली तस्वीरे यार। 
जब उनकी इच्छा हो, भगवान्का दर्शन कर लेते हैं। लेकिन, भगवान्के मनमें आया कि ये हमको बाहर देखने के लिए आवें । सो पहला चोट नारायणने ही मारी कि सनकादिकोंका ध्यान बन्द कर  दिया। तब, सनकादिकोंने सोचा चलो वैकुण्ठमें ही भगवान्का दर्शन कर आवें और चल पड़े। सनकादिकोंका यह स्वरूप है कि वे सर्वदा बालककी तरह ही रहते हैं।

अब कोई महात्मा अवधूतकी तरह रहते हैं, कोई समाधिस्थकी तरह और कोई बालककी तरह। ये चारों बालककी तरह रहते हैं।

खेलते-कूदते पहुँच गये वैकुण्ठमें । भगवान्की ऐसी लीला कि जयविजय भगवानके नित्य-पार्षद,पर वे भी इनको पहचान नहीं सके। यदि सनकादिके मनमें भगवानने इच्छा डाली तो जय-विजयके अन्दर भगवान्ने अज्ञान डाल दिया।

नारायण, सबसे बड़ा आक्षेप तो भगवान् पर ही जाता है कि इतने बड़े महात्माओंके हृदयमें बाहर भगवान्के दर्शनकी इच्छा क्यों उत्पन्न की और जय-विजय मूर्ख क्यों बन गये, उन लोगोंने इन्हें पहचाना क्यों नहीं? इसका सीधा उत्तर यही है कि यह सब भगवान्की लीला है!

जब जय-विजयने सनकादिकोंको यह कहकर रोका कि तुम नंग-धडंग बच्चे, तुम लोग भगवानके महलमें प्रवेश नहीं कर सकते, तब सनकादिकोंको क्रोध आगया। यह भी एक आश्चर्य ही है।
देहेन्द्रियासुहीनानां वैकुण्ठपुरवासिनाम् ।
भा.७.१.३४
न वहाँ स्थूल शरीर होता है, न वहाँ स्थूल इन्द्रियाँ होती हैं, न वहाँ स्थूल प्राण होते हैं। वहाँ वैकुण्ठमें भी यदि क्रोध आता है तो हद हो गयी। क्रोधकी निवृत्ति फिर कहाँ होगी? वैकुण्ठमें काम नहीं होता, क्रोध नहीं होता, लोभ नहीं होता। वहाँ तो अपने प्रभुके सिवाय दूसरेका स्फुरण ही नहीं होता। फिर भी सनकादिकोंके हृदयमें क्रोध उत्पन्न हो गया। 'क्रोध' माने जो सुखको रोक दे।
'कं रुन्द्धि इति क्रोधः'। '
कं' माने सुख और 'रोध' माने रोकना। माने हमारे हृदयम जो आनन्दका झरना बहता है, उसको यह रोक देता है।
प्रह्लाद-चरित
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अखंडानंद सरस्वती जी  वेदांत प्रवचन-प्रह्लाद-चरित

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