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जय-विजय भगवान्के भक्त थे, पार्षद थे, उनके निकटवर्ती थे और भगवान् से अपने भेदका अनुभव करते थे-भगवान् स्वामी हैं और हम सेवक हैं। उनके जीवन में भगवान्की प्रधानता थी, अपना 'मैं' बिलकुल छोटा था।

जब उनको शाप हुआ और वे हिरण्याक्षहिरण्यकशिपु हो गये तब उनमें कुछ परिवर्तन हो गया-उनके जीवनमें जो भगवान्की प्रधानता थी वह लुप्त हो गयी और अपना अहं प्रधान हो गया। इसका मतलब यह हुआ कि जीवनमें जबतक भगवान्की प्रधानता रहती है व्यक्ति जय-विजय-भक्त रहता है और जहाँ जीवनमें अहंकारकी प्रधानता-अहंभावकी प्रधानता आयी कि व्यक्ति असुर हो जाता है।

भागवतमें लिखा है कि हिरण्यकशिपुको वेदान्तका ज्ञान भूला नहीं था। हिरण्याक्षकी मृत्युके बाद वह अपने परिवारमें ऐसा उपदेश करता है कि कच्चे-बच्चे वेदान्तीको लगेगा कि शुद्ध-वेदान्तका उपदेश करता है-आत्मा असङ्ग है, अजर है, अमर है।

इसमें न जन्म है, न जरा है, न मृत्यु है, न पिपासा है, यह बिलकुल अखण्ड है। आदि-आदि पर, इसमें गड़बड़ क्या हो गयी कि उसके 'अहं'की प्रधानता तो बढ़ गयी और पूर्णताका विवेक हुआ नहीं।

पूर्णताका बोध होनेके पहले, अद्वितीयताका बोध होनेके पहले अपनेको अजर-अमर-असङ्ग बोलना, अपनेको ईश्वर बोलना-सब आसुरी-सम्पदाके अन्तर्गत है। एसा ज्ञान गलत है। आपलोगोंने गीतामें पढ़ा ही होगा, उसमें जहाँ आसुरी-सम्पत्तिका वर्णन है वहाँ यह लिखा है---

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मैं ईश्वर हूँ, मैं महाभोक्ता हूँ, मैं सिद्ध हूँ, मैं बलवान हूँ, मैं सुखी हूँ। मैं-मैं' तो है । परन्तु उस 'मैं' में पूर्णताका बोध नहीं है, परिच्छिक 'मैं में ही ईश्वर भाव हो गया।

एक बार मैं गया था गंगा-किनारे-रामघाट । वहाँ हमारे एक बहुत पुराने मित्र रहते हैं, उन्होंने एक प्रश्न किया! पहले भी जब हमारे साथ रहा करते थे तब पूछा करते थे, तब हम दोनों संन्यासी नहीं थे, अब वे भी संन्यासी हैं।

उन्होंने प्रश्न किया कि महाराज, किसीको यदि तत्-पदार्थका विवेक तो न हो और अपने 'अहं' को परिपूर्ण मान ले, तो उसके ज्ञानमें क्या दोष है?

मैंने उनसे कहा कि वह यदि अपनेको परिपूर्ण मानता है तो परिपूर्णका विवेक किया है कि नहीं कि परिपूर्ण होता क्या है? तो पहले परोक्ष-रूपसे पूर्णताका विवेक होना चाहिए और फिर अपरोक्ष-रूपसे आत्माका विवेक होना चाहिए।
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और, जो परोक्ष-रूपसे पूर्णताका विवेक तो करेगा नहीं और अपनेको पूर्ण कहेगा, तो अज्ञात-पूर्णको अपना आत्मा बताकर मूर्खता करेगा न? पूर्णताका ज्ञान जब हो जायेगा तब ही कोई अपनेको पूर्ण कहेगा! वे बहुत प्रसन्न हुए।

जब तुम एक अज्ञात-वस्तुको अपना 'मैं' मान रहे हो तो अज्ञानको और परिपुष्ट ही तो कर रहे हो। हिरण्यकशिपुने अपनेआपको ऐसा ही 'मैं' मान लिया था, जिसमें तत्-पदार्थकी पूर्णताका जरा-भी विवेक नहीं था। जिसके कारण उसके जीवन में दोष आ गया और उसने परमात्माको छिपा दिया।

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अब आप देखें-देखने में तो यही लगता है कि महात्माने शाप दिया । पर असलमें महात्माने शाप नहीं दिया-महात्मा किसीका अनिष्ट नहीं करते।
'साधुते होई न कारज हानि' 
बल्कि उसके अन्दर जो दोष था, उसको निकालनेकी महात्माने एक युक्ति कर दी और केवल युक्ति ही नहीं कर दी, जहाँ-जहाँ जयविजय जायँ वहाँ-वहाँ सनत्कुमार भी जायँ उनका उद्धार करनेके लिए, उनको परमात्माकी प्राप्ति करानेके लिए।

यह है महात्माकी महिमा, यह है महात्माकी करुणा । जीवके कल्याणके लिए आवश्यक होनेपर महात्मा दूसरा जन्म लेने में भी नहीं हिचकिचाते । इसीसे हिरण्याक्षहिरण्यकशिपुके यहाँ सनत्कुमार प्रह्लाद बन कर आये।

और वहाँ भी वे इसी प्रयास में लगे हैं कि जल्दी-से-जल्दी इनका कल्याण हो जाये! अब प्रश्न उठा कि भगवान् अवतार क्यों लेते हैं? इसके दो भाव गीतामें बताये गये हैं--

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । ४.८ 
साधुओंकी रक्षाके लिए अवतार लेते हैं और जो दुष्कृत हैं उनको धो-पोंछकर उज्जवल बनानेके लिए भगवान् अवतार लेते हैं।



एक बार श्रीउड़ियाबाबाजी महाराजसे किसीने प्रश्न किया कि महाराज, हिरण्याक्ष-हिरण्यकशिपु, रावण-कुम्भकरण जितने पाप करते थे, वे तो दो-दो थे और आज तो जितने लोग हैं उनमें अधिकांश हिरण्याक्ष-हिरण्यकशिपु, रावण-कुम्भकरण, कंस जैसे हैं आज भगवान् अवतार क्यों नहीं लेते?
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बाबाने कहा कि भाई, यह तो तुम ठीक कहते हो कि आज रावणकंस तो बहुत हो गये हैं, पर दशरथ-कौसल्या, देवकी-वसुदेव कोई नहीं है। भगवान् केवल दुष्टोंकी दुष्टताका संहार करनेके लिए ही अवतार नहीं लेते हैं, भक्तोंका मनोरथ परिपूर्ण करनेके लिए अवतार लेते हैं।

उनका मुख्य प्रयोजन तो यही होता है। - तो दो बात हुई-भक्तकी रक्षाके लिए भगवान् अवतार लेते हैंएक और भक्तका मनोरथ पूर्ण करनके लिए अवतार लेते हैं-दो ।

देवकी कहती हैं जब तक हमारे बेटे नहीं बन कर आवोगे हमारा मनोरथ पूर्ण नहीं होगा, यशोदा कहती हैं कि जब तक हम गोदमें नहीं खिलावेंगे, अपना दूध नहीं पिलावेंगे तब तक हमारी आकांक्षा पूर्ण नहीं होगी।

मैं जन्म-जन्म-अनन्तःकाल तक व्याकुल रहूँगी यदि तुम नव्हेसे बालक बनकर मेरी गोदमें नहीं आओगे, मेरा दूध नहीं पीओगे!

अब भगवान्ने सोचा-इसकी इच्छा तो मेरे लिए है, तो क्या मैं इसकी इच्छाको मिटा दूँ? मैं इसकी इच्छा पूरी करने में असमर्थ हूँ? इसकी इच्छा मैं क्यों नहीं पूरी करूँ? फिर बोले-नहीं-नहीं, जब इसकी इतनी इच्छा है और मैं उसको पूर्ण करने में समर्थ हूँ, तो मैं इसे अवश्य पूर्ण करूँगा ।

और, भगवान्ने इनकी इच्छा पूर्ण की!अब जय-विजयके विषयमें सुन लीजिये । जब जय-विजय असुर हो गये तब उनका आसुर भाव ही छुड़ाया भगवान्ने, उनकी मृत्यु नहीं हुई, उन्होंने आसुर-भावका जो चोला पहन लिया था और उसके साथ इतना एक हो गये थे कि अपने-आपको तो भूल ही गये थे, भगवान्को भी भूल गये थे। तो भगवान्ने उनका वह चोला उतार भर दिया, उनको मारा नहीं।

लोग शरीरकी मृत्युको मृत्यु मानते हैं वे आध्यात्मिक जगत्से सर्वथा ही अपरिचित हैं। जिनका यह ख्याल है कि पहले हमारा जीवन नहीं था और बादमें भी हमारा जीवन नहीं होगा-यह मनुष्य शरीर हमें फिर नहीं मिलेगा, वे लोग मौतको बहुत भयङ्कर मानते हैं और उससे डरते हैं।

और जिनको मालूम है कि जीवन पहले भी था और बादमें भी रहेगा-सुख-दुःखकी परम्परा चलती रहेगी, इसमें हमारा कुछ बनने-बिगड़ने वाला नहीं है, वे चैनकी वंशी बजात हैं।

इसको ऐसे समझो-जैसे रात्रिमें जिस कमरेमें, जिस पलंग पर आप सोते हैं, उसी कमरेमें उसी पलंग पर आप प्रातःकाल जागते हैं, वैसे ही मृत्युके समय आप जिस भावनाके साथ मरते हैं उसी भावनाको लेकर आप जन्मते हैं।


तो विचारवानोंके लिए मृत्यु जरा भी भयङ्कर नहीं होती। और भगवान् किसीको मारते नहीं हैं, किसी जीवका संहार नहीं करते हैं, क्योंकि आत्मा तो भगवान्का स्वरूप है।

यदि आत्माकी मृत्यु हो जायेगी तो फिर भगवान् रहें कहाँ? आत्माको मारते नहीं है, असलमें आत्मा पर जो वासनाकी परत-पर-परत काई जम गयी है, उसको धोपोंछ कर, शुद्ध-साफ कर देते हैं और जीवको शुद्ध स्वरूप प्रदान कर देते हैं।

भगवान् मारते नहीं हैं किसीको, क्योंकि, जो कुछ है सब उनका स्वरूप है, उनका अंश है। इसी बातको इस तरहसे समझें-जैसे आपके हाथमें यदि मैल लग जाय, आपके चाममें कोई रोग हो जाय, आपके किसी अङ्गमें विष व्याप्त हो जाये तो आप उस अङ्गको धो-पोंछकर, दवा लगाकर, यहाँ तक कि अङ्गको काटकर भी अपनेको सुरक्षित करते हैं, ऐसे ही इस संसारके जीव जो हैं ये भगवान्के ही अंश हैं-जैसे हमारे नाखून हैं, अङ्गुलियाँ हैं, हाथ-पाँव हैं, रक्तके कीटाणु हैं वैसे ही ये जितने भी जीव संसारमें हैं ये सब विराट भगवान्के शरीरके अंश रूप हैं।


और जब इनमें कोई दोष आ जाता है तब भगवान् उस दोषको मिटा देते हैं और उसको शुद्ध-सुन्दर बना देते हैं। हमारे अवतार हिंसक नहीं होते हैं। कभी-कभी दूसरे लोग आक्षेप करते हैं कि हिन्दुओंके अवतार हिंसक होते हैं।

क्योंकि उनके पास धनुष-बाण होता है, चक्र होता है। नहीं-नहीं, उनके पास साबुन होता है और ऑपरेशन करनेका औजार भी होता है, जिससे वे रोगीका अङ्ग काटकर उसको रोगसे मुक्त कर देते हैं, उसको विषैला होनेसे बचा लेते हैं।


जो मरनेको आत्माका अन्त मानते हैं, वे तो बिलकुल भौतिकवादी हैं, मूर्ख हैं एक तरहसे ।
एक दूसरी बात और आपको सुनाते हैं-संसारके किसी भी धर्ममें वैदिक सनातन धर्मको छोड़कर ईश्वरका अवतार नहीं माना जाता।

ईसाईयोंमें ईश्वरका बेटा आता है, मुसलमानोंके ईश्वरका पैगम्बर आता है-सन्देश लानेवाला । अच्छा, जैनोंमें जो चौबीस तीर्थङ्कर हैं वे अवतार हैं क्या? नहीं, वे अवतार नहीं हैं वे उत्तार हैं ।

अवतार और उत्तारमें क्या फर्क हैं? 'अवतार' माने जो ईश्वर है वह हमारे ऊपर कृपा करके हमारे पास उतर कर आता है और जो जैनोंके तीर्थङ्कर होते है और बौद्धोंके बोधी-सत्व होते हैं वे पहले जीव होते हैं और साधना करते-करते अनेक जन्मोंमें वीतराग-तीर्थङ्करकी पदवी पर पहुंचते हैं। इस तरह बौद्ध-जैनके जो तीर्थङ्कर हैं वे नीचेसे ऊपर चढ़कर जाते हैं, मुक्त होते हैं और हमारे जो वैदिक सनातन-धर्मके अवतार हैं वे साक्षात परमेश्वरके प्राकट्य हैं ।


आपलोगोंको मालूम होगा कि जैन-धर्ममें पाँच बात नहीं मानी जाती । एक-वे वेद नहीं मानते हैं, दो-ईश्वर नहीं मानते हैं, तीन-ब्राह्मण नहीं मानते हैं, चार-होम-रूप यज्ञ नहीं मानते हैं और पाँच गंगा आदि नदियोंमें स्नान करनेसे मनुष्यको पुण्य मिलता है, यह बात नहीं मानते हैं। जैन-धर्मकी ये पाँच विशेषताएँ हैं।


वे लोग बड़े गौरवके साथ अपने बड़प्पनके रूपमें इसका निरूपण करते हैं? इस तरह हम देखते हैं कि अवतार जो है सो वैदिक-सनातन धर्मकी सम्पदा है, गौरवकी वस्तु है । यदि गिरते हुए मनुष्यको उठानेके लिए कोई ऊपरसे न उतरे, अगर पिछड़े हुए मनुष्यको आगे बढ़ानेके लिए सामने न आवे, यदि पतितको पवित्र बनानेके लिए कोई न आवे, यदि ईश्वरसे विमुखको कोई सम्मुख करने वाला न हो, यदि आत्माको अपनेसे एक करनेवाला कोई परमात्मा न हो तो मनुष्यकी गति क्या डोगी? जरा सोचिये तो सही।

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इसलिए एक ओर तो हिरण्यकशिपु भी भगवान्का अंश है, भगवान्का भक्त है, भगवान्का नित्य-पार्षद है और उसका यहाँसे उद्धार करना है और दूसरी ओर भक्त चाहिए. बिना भक्तके भगवान् क्यों आवेंगे! तो सनत्कुमारने कहा कि अच्छा, कोई और भक्त नहीं है सोहम ही भक्त बन जाते हैं और स्वयं सनत्कुमार ही प्रह्लाद-भक्तके रुपमें प्रकट हुए।

यह कथा स्कन्द-पुराणके काशी-खण्डमें आती है कि सनत्कमार ही प्रह्लाद हुए थे। शायद कोई पूछे तो हम पहले ही आपको बता देते हैं!

अब देखो ‘प्रह्लाद' शब्दका अर्थ । प्रह्लादका अर्थ है-'सर्वोत्तम आनन्द' । 'प्र' माने श्रेष्ठ, सर्वोत्तम और 'ह्लाद' माने आनन्द । तो प्रह्लाद माने सर्वोत्तम-आनन्द, परमानन्द । _ 'प्रह्लाद' शब्दकी दूसरी व्याख्या है-प्रह्लादयति = प्रह्लाद माने जहाँसे वे निकलते हैं उनकी तन्मयता देखकर, उनकी आँखोसे प्रेमकी किरणें निकलती देखकर, उनके होठों पर प्रेमकी मुस्कान देखकर लोग आनन्दमें मग्न हो जाते हैं |

‘प्रह्लादयति आह्लादयति निखिलं जगत् इति प्रह्लादः' 

जो सारे जगत्को सुख दे उसका नाम होता है ‘प्रह्लाद'। कोई-कोई प्रह्लाद शब्दका ऐसा अर्थ करते हैं। कि ल और र में भेद नहीं है तो ह्राद हैं ये। संस्कृतके पण्डित भी प्रह्लाद न बोलकर 'प्रह्लाद' बोलना ज्यादा पसन्द करते हैं। इसका अर्थ होता है जैसे एक सरोवर है-उसको दह बोलते हैं, ह्रद बोलते हैं।

तो एक 'हृद' है, उसका जल अत्यन्त निर्मल है और लहरा रहा है अपने-आपमें और उसमेंसे ध्वनि भी होती है। इसी तरह प्रह्लादजी एक निर्मल प्रेमके सरोवर हैं और उनमें से निरन्तर भगवन्नामकी ध्वनि होती रहती है---

कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण, कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण हो! मुकुन्द माधव गोविन्द कृष्ण, गोविन्द माधव मुकुन्द कृष्ण।

तो प्रह्लादजीके रोम-रोमसे आनन्दकी ऐसी किरणे निकलती हैं कि जहा जाते हैं वहाँ भगवानके नामकी ध्वनि गूंज जाती है, वहाँ आनन्दकी तन्मात्रा फैल जाती है, और सम्पूर्ण विश्वका आकर्षण उनकी ओर हो जाता है।

अब हिरण्यकशिपु तो गर्भाधान करके चला गया तपस्या करने और जब तक वह त्रिलोक-विजयी होकर घर नहीं लौटा तब तक प्रह्लादजी गर्भ में ही रहे। यह भक्त है। जहाँ रहे जैसी अवस्थामें रहे, भगवान्का अनुभव करता रहे । भक्तके लिए क्या अन्दर, क्या बाहर? उसके लिए क्या नरक, क्या स्वर्ग? भक्त तो बोलता है--

दिवि वा भुवि वा ममास्तु वासो नरके वा नरकान्तक प्रकामम् । 
अवधीरितशारदारविन्द चरणौ ते मरणेऽपि चिन्तयामि॥
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हे प्रभु, मैं स्वर्ग में रहूँ कि नरक में रहूँ, मैं मर्त्यलोकमें रहूँ कि वैकुण्ठमें रहूँ इससे हमारा कोई प्रयोजन नहीं है। हम हमेशा नरकमें रहें तब भी हमें कोई आपत्ति नहीं है। बस, एक बात है, जहाँ भी रहूँ आपके चरणारविन्दकी स्मृति बनी रहे! चरणारविन्दकी स्मृति बनी रहेगी तो न शरीरकी स्मृति होगी, न दुःखकी स्मृति होगी। क्योंकि स्मृतिका यह नियम है कि दो वस्तुका स्मरण एक साथ नहीं रह सकता।

हम दो अंगुलीको भी एक साथ नहीं देख सकते हैं नेत्र-ज्योति दाएं-बाएँ होकर दोनोंको देखती हैं। तो मन तो दो वस्तुको एक साथ देख ही नहीं सकता। जिनका मन भगवानको देखने में लग गया उनको फिर न दुःख दिखता है, न संसार दिखता है, न नरक दिखता है--
नरक-स्वर्ग अपवर्ग समाना।

जह-तँह दीख धरे धनु-बाना॥ जहाँ हम हैं वहाँ हमको भगवान्का दर्शन होता रहे । इसकी कोई परवाह नहीं कि भगवान्का रूप क्या है--
असुन्दरः सुन्दर शेखरो वा गुणैर्विहिनो गुणिनां वरो वा। 
द्वेषीमयि स्याद् करुणाम्बुधिर्वा कृष्णाः स एवाद्य गतिर्ममास्ति॥ 
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वह चाहे सुन्दर हो चाहे कुरूप हो, चाहे गुणहीन हो, चाहे सर्वश्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न हो, वह चाहे हमको दुःख पहुँचावे चाहे सुख पहुँचावेइससे हमारा कोई मतलब नहीं है, बस उसके सिवाय दूसरा कोई हमारी आँखोंके समान न हो।

गिरे गर्दन दुलक कर पीत पट पर,
खुली रह जायँ ये आँखें मुकुट पर। 
अगर ऐसा हो अन्जाम मेरा
तो तुम्हारा नाम हो और काम मेरा॥ 

भक्त लोग परिस्थितिको नहीं देखते हैं। देखो, सनत्कुमारकी यह विशेषता है कि वे गर्भमें प्रह्लाद बन कर रह रहे हैं और अपने चेले नारदजीको ही अपना गुरु बना लेते हैं। आपको उपनिषदोंका यदि संस्कार होगा तो आप जानते होंगे कि नारदजी सनत्कुमारकी शरणमें आये और बोले कि मैंने वेदादि सकल-शास्त्रोंका अध्ययन कर लिया है, मैं वेद-शास्त्र तो बहुत जानता हूँ, सब जानता हूँ।

परन्तु मेरे शोककी निवृत्ति नहीं हुई। मैं मन्त्रवित् हूँ, ब्रह्मवित् नहीं हूँ, कृपाकर आप हमको इस शोकसे छुड़ाइये। नारदजी सनत्कुमारकी शरणमें गये और सनत्कुमारने उनको आनन्द-भूमा सुख-भूमाकी विद्याका उपदेश किया-छोड़ो शास्त्रको, भगवान्का नाम लो और नाम छोड़ो वाणीमें आओ, वाणीसे मनमें आओ और इस तरह उन्हें आत्माका साक्षात्कार कराया-जो अल्प है सो मर्त्य है।

यदल्पं तन्मयं यो वै भूमा तत्सुखम् । 
और अन्त में सनत्कुमारोंसे नारदने कह दिया कि मैं शोकसे पार हो गया। अब वही नारद जी गुरु और वही सनत्कुमार माताके पेटमें प्रह्लाद ।

नारदजी उपदेश कर रहे हैं और चेले बनकर सनत्कुमार सुन रहे हैं। प्रह्लाद यह नहीं कहते कि हमारा यह ज्ञान अनादि है और पूर्वजन्मसे है, बल्कि यह कहते हैं कि यह ज्ञान हमको नारदजीने दिया है।
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आजकल तो जिनको थोड़ा-बहुत ज्ञान हो जाता है वह अपने गुरुका नाम लेना पसन्द नहीं करता। हमारा करीब पचासवर्षका यह अनुभव है कि जरा गद्दी मिल गयी, जरा नाम हो गया तो फिर अपने गुरुका नाम नहीं बताते हैं।

कहते हैं कि ईश्वर हमारे पास आया था और वह हमको ज्ञान देकर गया है। स्वयं भगवान्से हमारा सम्बन्ध है, बीच में गुरु-रूप दलालकी क्या जरूरत है? या फिर कोई पुराना महात्मा होगा तो उनका नाम लेने लग जायेंगे, गुरुका नाम नहीं लेंगे। लेकिन, जब प्रह्लाद गर्भावस्थामें थे तब नारदने उनको उपदेश किया था, इसलिए वे जन्म लेनेके बाद कहते हैं कि यह ज्ञान मैंने नारदजीसे प्राप्त किया है। यह है सत्पुरुषका स्वभाव ।

एक कथा आपने सुनी होगी-जब हिरण्यकशिपु मर गया तब सब दैत्य इकट्ठे हुए। प्रह्लाद राजा था । भगवान्ने प्रसाद बनाकर प्रह्लादको गद्दी दी थी। हिरण्यकशिपुकी गद्दी पर ऐसे ही प्रह्लादको बैठा देंगे तो शायद इसका कुछ प्रभाव प्रह्लाद पर पड़े,यह सोचकर तो पहले नृसिंह भगवान् स्वयं हिरण्यकशिपुके सिंहासन पर बैठे, बैठकर उसको प्रसाद बनाया और फिर प्रह्लादजीको प्रसाद-रूपमें दिया ।

जब प्रह्लाद राजा हुए तब सब दैत्य इकट्ठे हुए और प्रह्लादसे बोले कि देखो, हमारे वंशकी यह रीति है कि यदि कोई राजा पिताको मार डालता है तो राजा होने पर बेटेको उससे बदला लेना चाहिए। तो तुम नारायणसे बदला लो! प्रह्लादने कहा कि कैसे लें बदला? सब दैत्य बुलाये गये। बड़े-शूरवीर, उत्कटउत्कट दैत्य |

आजकल भी देखते ही हैं-भले मानुषसे गुण्डे लोग जोरदार होते ही हैं। सज्जन तो सज्जन ही रहेगा और गुण्डे लोग तो मार-काट सब करते ही हैं। ईश्वर-कृपासे प्रह्लादने कहा ठीक है, जैसी पञ्चोंकी राय ।

सेना सजी,अस्त्र-शस्त्र आये और करोड़ों-करोड़ोंकी सेना नारायण पर धावा बोलेनेके लिए चल पड़ी। अब नारायणने सोचा कहाँ युद्ध करेंगे! तो बूढ़े ब्राह्मण बनकर प्रह्लादजीके पास आये थर-थर काँपते हुए । भक्तके सामने भगवान्को काँपना भी पड़ता है।
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प्रह्लादजीने पूछा-महाराज, आपकी क्या सेवा करें? ब्राह्मण बोले कि हमारी कुटियाके पास एक पेड़ गिर गया है और वह हमसे न काटते बनता है, न हटाते बनता है ।

सो आप उसको उठवा कर हमारी कुटियाके और पास करवा दीजिये ताकि हम उसकी लकडीसे होम भी कर लिया करेंगे और रोटी भी बनाया करेंगे। यह मनकर प्रह्लादने दस दैत्य भेज दिये, ऐसे बलशाली जो एक-एक पहाड़ उठा लें। पर, उनसे वह पेड़ नहीं उठा! फिर प्रह्लादजी स्वयं जाने लगे।

तब बाह्मणने पूछा कि आखिर तुम जा कहाँ रहे हो? प्रह्लादजी बोले कि हम नारायण पर विजय प्राप्त करनेके लिए जा रहे हैं । ब्राह्मण बोले कि तुम्हारी सारी सेनासे एक पेड़ तक नहीं उठा, तुम नारायण पर क्या विजय प्राप्त करोगे? प्रह्लादने कहा कि महाराज, आप बिलकुल सत्य कहते हैं और फिर दैत्योंसे कहा कि सब दैत्य बैठ जायँ और ब्राह्मण देवताकी बात सुनें।

फिर प्रह्लादने ब्राह्मणसे कहा कि अच्छा महाराज, हम लड़कर नारायणसे विजय नहीं प्राप्त नहीं कर सकते तो आप और कोई उपाय बताओ, लड़ना तो हमको है। क्योंकि हमको अपने बापका बदला लेना है। बदला लेनेकी भावना दैत्योंमें होती है, देवता लोग बदला नहीं लेते हैं।

संत महात्मासज्जन बदला लेनेका काम नहीं करते हैं, बदला लेनेका काम तो दैत्य ही करते हैं। तो ब्राह्मणने बताया कि एक उपाय है-तुम नारायणका ध्यान करो तो तुमको नारायण पर विजय मिल जायेगी। अब प्रह्लादने बैठकर ध्यान दिया । भावमय तो थे ही, भक्त भी थे, थोड़ी ही देरमें ऐसे तन्मय हुए कि प्रह्लाद खुद नारायण हो गये ।

चार भुजाधारी-शंख, चक्र, गदा, पद्म, पीताम्बरधारी, मुकुटधारी साक्षात् नारायण! अब दैत्योंने देखा तो उन्होंने सोचा हमारे महाराज तो नारायणका ध्यान करके नारायण हो गये, तो उन्होंने भी नारायणका ध्यान किया।
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दैत्योंमें एकाग्रता बहुत होती है। सो करोड़ो दैत्य सब-के-सब नारायण हो गये और बोले कि हाँ, अब हम उनको जरूर हरा देंगे; क्योंकि वह एक हैं और हम करोड़ो नारायण हैं। अब देवता लोग घबड़ाये कि हमारी अब क्या गति होगी? वे सब गये असली नारायणके पास और बोले कि हे नारायण, सब-के-स दैत्य ही नारायण हो गये, अब क्या होगा? तो गरुड़ पर चढ़कर भगवान प्रह्लादके पास आये और बोले-'वर माँगो प्रह्लाद' ।

प्रह्लाद बोले कि मैं या माँगता हूँ कि जिस ज्ञानसे आप नित्य-नारायण हैं । असली नारायण वह ज्ञान हमको हो जाये। तो नारायणने कहा कि अच्छा, अन्नमय कोषसे लेकरके साक्षी-पर्यन्तका विवेक तुमको उदय हो जाये। अब वे तुरन्त देखने लगे कि मैं अन्नमय नहीं, मैं मनोमय नहीं, मैं प्राणमय नहीं, मैं विज्ञानमय नहीं, मैं आनन्दमय नहीं, मैं तो शुद्ध-साक्षी निराकार, निर्विशेष, निर्धर्मक आत्मा हूँ। सो महाराज, नारायणका ध्यान छूट गया और प्रह्लाद पहलेकी तरह प्रह्लाद हो गये, न चार भुजा रही, न पीताम्बर रहा।

अब दैत्योंने जब देखा तो समझ गये इन्होंने ध्यान छोड़ दिया। फिर तो उन्होंने ध्यान छोड़ दिया और सब-के-सब दैत्य हो गये और इधर प्रह्लादके मनमें जाग्रत हुआ विवेक । तत्-पदार्थका विवेक हुआ अपने अन्दर और त्वं-पदार्थका विवेक हुआ जो गरुड़ारूढ़ भगवान् आये थे उनके अन्दर और प्रह्लादको दोनोंकी एकताका बोध हो गया। वे बोले कि भाई, लड़ाई-झगड़ा नहीं करना, राग-द्वेष नहीं करना ।

तत्त्वज्ञानी का लक्षण ही यह है कि वह किसीसे राग-द्वेष नहीं करता है। लड़ाई वहीं शान्त हो गयी!
आसुरी नारायण सब भाग गये और दैत्य लोग विजयी होकर लौट आये। यदि किसीको जानकारी चाहिए तो प्रह्लादकी यह कथा 'योगवाशिष्ठ' में है।

हमारे पुराणोंके अनुसार अब तक सात प्रह्लाद हो चुके हैं और उनकी पृथक्-पृथक् कथा है। अब हम आपको पहले श्रीमद्भागवतके अनुसार प्रह्लाद-चरित्रके प्रसङ्गमें और कोई बातें सुनावेंगे।
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ॐ शान्तिः शान्तिः!! शान्तिः।।
प्रह्लाद-चरित

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