dharmik prasang in hindi आध्यात्मिक प्रवचन

उत्सव मनाने से ईश्वर का हृदय में प्राकट्य

[ उत्सव ]
उत् का अर्थ है ईश्वर और 'सव' का अर्थ है प्राकट्य । उत्सव (पर्व) मनाने || से तथा यज्ञ (यज) करने से ईश्वर का प्राकट्य हृदय में हो जाता है। परमात्मा के साथ एक होने तथा उनमें अपनी चित्त-वृत्ति को तल्लीन करने के लिए (पर्व) मनाया जाता है। परमात्मा को हृदय में पधराने (बैठने) के बाद भी हमेशा उत्सव (पर्व) मनाते \ रहोगे तो वे सदैव हृदय में विराजमान रहेंगे। भगवान् को उत्सव अत्यन्त प्रिय है। उत्सव मनाते समय श्रद्धालु भक्त की आँखों से प्रभु-प्रेम में तथा प्रभु प्रेम की || व्याकुलता में अगर दो बूंदें अश्रु (आँसू) भी छलक जाएँ तो उत्सव मनाना सफल हो जाता है और सद्गुरुदेव की कृपा बरसती रहती है।
[ नाम-निष्ठा ]
जगज्जननी माता सीता जी ध्यान में इस प्रकार नाम-स्मरण करती थीं कि वृक्षों के पत्ते-पत्ते से 'राम-राम' की ध्वनि होती थी। देखो, परमात्मा के नाम में निष्ठा (दृढ़ विश्वास) का होना अत्यन्तावश्यक है। पल-पल, पग-पग पर भगवान् का स्मरण, नाम-जप करते रहने से यज्ञ का पुण्य प्राप्त होता है और वाणी में नाम जागृत रहता है।

प्रभु-नाम में अटल निष्ठा रखो।

परमात्मा के नाम-स्मरण तथा सतत् नाम- जप करने से मनुष्य-जन्म सफल होता है। अंत समय तक ब्रह्मनिष्ठा बनाए रखने से । लोक-परलोक सुधरता है। नाम-निष्ठा के सिवाय कलिकाल में अपने उद्धार का अन्य कोई उपाय नहीं है। नाम-जप, नाम-स्मरण की महिमा अनोखी है। भगवन्नाम प्राणी की सदा सब प्रकार से रक्षा करता है और इससे भगवान् । के साथ प्रीति बढ़ती है। भगवान् के प्रसन्न होने पर सब कार्य सिद्ध हो जाते हैं। मन से भगवान् का स्वरूप-चिन्तन करो और अपने हृदय में उतारो। भक्त । की दृष्टि जहाँ होगी, मन भी तो वहीं होगा। मन का भगवान् में स्थिर होना ही भक्ति | है। स्वरूपासक्ति के बिना भक्ति फलवती नहीं हो पाती। भगवान् का स्वरूप मन में स्थिर होने से उनके दर्शन में बड़े आनन्द का अनुभव होता है। ध्यान रहे, जबतक भगवान् के स्वरूप से आसक्ति नहीं हो जाती, तबतक संसार की आसक्ति से छुटकारा नहीं मिल पाता। भगवान् श्रीकृष्णजी ने अपने रूप सौन्दर्य, दिव्य-तेज तथा बाँसुरी के मधुर वादन से गोप-गोपियों तथा अन्य प्राणियों के मन को अपनी ओर आकर्षित कर लिया।

इससे वे उनके प्रति मुग्ध होकर रहते थे।

गोपियाँ उनके प्रेम में मस्त होकर उनकी बातें करतीं, उनके दर्शन करतीं और उनकी कथा सुनती थीं। भगवान् की दिव्य-लीलाएँ देखने में तथा उनकी कथा-श्रवण करने से जगत् की विस्मृति | स्वाभाविक ही हो जाती है। भगवान् फ़रमाते हैं कि जो व्यक्ति उनका भजन, स्मरण तथा निष्काम सेवा करता है, उसके प्रति उन्हें बड़ा स्नेह हो जाता है, वे उस प्राणी का | उद्धार कर देते हैं तथा उस प्राणी को वे अपने अंग-संग रखते हैं।

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