भगवान् पूर्ण है, उनका प्रेम भी पूर्ण है।

भगवान् भी पूर्ण हैं और उनका प्रेम भी पूर्ण है। इसीलिए भगवान् से कुछ माँगना हो तो उनसे प्रेम ही माँगना है। भगवत्प्रेम में कितना आनन्द है, इसका कोई वर्णन कर ही नहीं सकता। उस प्रेम में जो आनन्द है, वह आनंद मुक्ति (जन्म मरण से रहित होने में) में भी नहीं है। कारण कि आवागमन से मुक्त होने पर दुःखों का नाश हो जाता है और मनुष्य सन्तुष्ट हो जाता है, कृत्कृत्य, ज्ञात-ज्ञातव्य और प्राप्त प्राप्तव्य हो जाता है, परंतु प्रभु-प्रेम प्राप्त होने पर व्यक्ति सन्तुष्ट नहीं होता, बल्कि, उसका दिव्य-प्रेम, आनन्द उत्तरोत्तर बढ़ता ही रहता है।
वह प्रेम अविनाशी और चिन्मय है।
उस भगवद्-प्रेम की प्राप्ति किसी क्रिया से,अभ्यास से अथवा विचार से नहीं होती।
देखो,विचार से जड़ता का त्याग हो सकता है, अपने स्वरूप का बोध हो सकता है, पर प्रभु से प्रेम नहीं हो सकता। 'मैं भगवान् का हूं भगवान् मेरे हैं', इस विश्वास की प्रगाढ़ता (गहराई) से प्रभु-प्रेम की प्राप्ति होती है। दूसरे शब्दों में कहें तो इसका अर्थ है कि संसार के प्राणी-पदार्थों के साथ जो व्यक्ति का खिंचाव है वह यदि भगवान् के प्रति हो जाए तो भगवद्- प्रेम प्राप्त हो जाता है। उस प्रेम को देने वाले भी वे भगवान् ही हैं। सब कुछ देकर भी वे अपने को प्रकट नहीं करते, यह प्रभु का स्वभाव है। जीवन में कुछ पाना है तो वह प्रभु प्रेम ही है।
उस एक विशुद्ध प्रेम के सिवाय मनुष्य को और कुछ माँगना, पाना नहीं है। इस प्रेम-रस का आस्वादन कराने के लिए ही भगवान् मनुष्य रूप में संसार में अवतार लेते हैं। वे प्रेम के वश में होकर अपने-आप को प्रकट करते हैं, तरह-तरह की दिव्य-लीलाएँ करते हैं और सब को अत्यन्त गोपनीय रहस्य - 'शरणागति' का उपदेश देते हैं।* सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज*
भगवान् फरमाते हैं कि 'सम्पूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरण में आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा। तू चिंता मत कर।' भगवान् फरमाते हैं कि 'मैंने मनुष्य की रचना इसलिए की है कि वह मेरे से प्रेम करे,मैं उससे प्रेम करूँ। वह मेरे को अपना कहे, मैं उसको अपना कहूं। वह मेरे को देखे, मैं उसको देखूँ।,तात्पर्य यह है कि भगवान् मनुष्य को अपना दास और भक्त बनाकर उसको आदर देते हैं। भक्ति से भगवान् और भक्त दोनों को आनन्द मिलता है। भगवान् को भक्तजन बहुत प्रिय हैं।प्रभु प्रेमी को अपने में प्रेम की कमी अनुभव होती है।
इसलिए प्रेम को प्रतिक्षण वर्धमान (बढ़ने वाला) कहा गया है। I यदि प्रेमी को प्रेम में कमी ना पता चले तो प्रेम बढ़ेगा कैसे ? अपने में पूर्णता ना मानना, सदा प्रेम में कमी मानना ही नित्य विरह है। नित्य- विरह और नित्य-मिलन (नृत्यार्पण) यह दोनों ही नित्य हैं। नित्य विरह से प्रेम बढ़ता है, नित्य मिलन से प्रेम में चेतना आ जाती है और विशेष विलक्षणता की प्राप्ति होती है। नित्य विरह और नित्य मिलन एक ही प्रेम के दो रूप हैं।ये भगवान् अपनी ओर से कृपा करके प्रदान करते हैं। नित्या विरहऔर नित्य मिलन की यह वृत्ति जीव में प्रतिक्षण, वर्धमान भगवत्प्रेम के लिए ही थी, पर जीव ने इसको संसार में, भोग और संग्रह में लगा दिया।जीव में आकर्षण तो अविनाशी भगवान् का ही है, पर इस आकर्षण को उस उनसे नाशवान् संसार में लगा दिया। आकर्षण तो वही रहा, पर कुसंग से उस आकर्षण का लक्ष्य बदल गया।सांसारिक आकर्षक आकर्षण जीव को बन्धनों की ओर ले जाता है और भगवान् का आकर्षण (प्रेम) उसे आध्यात्मिक उन्नति की ओर ले जाता है