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परमात्माकी प्राप्तिके विभिन्न मार्ग geeta ka saar

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परमात्माकी प्राप्तिके विभिन्न मार्ग geeta ka saar

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 परमात्माकी प्राप्तिके विभिन्न मार्ग 
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अद्वैत-सिद्धान्त अद्वैतवादी संतोंका यह सिद्धान्त है कि प्रथम शास्त्रविहित कोंमें फलासक्तिका त्याग करके कर्मयोगका साधन करना चाहिये; उससे दुर्गुण, दुराचाररूप मलदोषका नाश होकर अन्तःकरणकी शुद्धि होती है; तदनन्तर भगवान्के ध्यानका अभ्यास करना चाहिये, उससे विक्षेपका नाश होता है ।

इसके बाद आत्माके यथार्थ ज्ञानसे आवरणका नाश होकर ब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती है । वेदान्त-सिद्धान्तके इन आचार्योंका यह क्रम बतलाना शास्त्रसम्मत एवं युक्तियुक्त है । अतः इस मार्गके अधिकारी साधकोंके लिये आचरण करनेयोग्य है।

निष्काम कर्मयोग इसी प्रकार केवल निष्काम कर्मयोगके साधनसे भी अन्त:करणकी शुद्धि होकर अपने-आप ही परमात्माके स्वरूपका यथार्थ ज्ञान हो जाता है और उस परमपदकी प्राप्ति हो जाती है । स्वयं भगवान् गीतामें कहते हैं--

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते । 
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥
(४ । ३८) 
इस संसारमें ज्ञानके समान पवित्र करनेवाला निःसंदेह कोई भी पदार्थ नहीं है । उस ज्ञानको कितने ही कालसे कर्मयोगके द्वारा शुद्धान्तःकरण हुआ मनुष्य अपने-आप ही आत्मामें पा लेता है।

' तस्मादसक्तः सततं कार्य कर्म समाचर । 
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ॥ 
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ।
(३ । १९, २० का पूर्वार्ध) 

'इसलिये तू निरन्तर आसक्तिसे रहित होकर सदा कर्त्तव्यकर्मको भलीभाँति करता रह; क्योंकि आसक्तिसे रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्माको प्राप्त हो जाता है। जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्तिरहित कर्मद्वारा ही परम सिद्धिको प्राप्त हुए थे।

यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
(५। ५ का पूर्वार्ध) 
'ज्ञानयोगियोंद्वारा जो परम धाम प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियोंद्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है। योगयुक्तो मुनिब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ॥
(५ । ६ का उत्तरार्ध) 
कर्मयोगी मुनि परब्रह्म परमात्माको शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है ।
 भक्तिमिश्रित कर्मयोग 
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इसी प्रकार भक्तिमिश्रित कर्मयोगके द्वारा परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है और यह सर्वथा उपयुक्त ही है। जब केवल निष्काम कर्मयोगसे परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है, तब भक्तिमिश्रित कर्मयोगसे हो, इसमें तो कहना ही क्या है। इस विषयमें भी स्वयं भगवान् गीतामें कहते हैं--

यत्करोषि यदनासि यज्जुहोषि ददासि यत् । 
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥ 
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः । 
संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ॥
(९। २७-२८) 
हे अर्जुन ! तू जो कर्म करता है, जो खाता है, जो हवन करता है, जो दान देता है और जो तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर । इस प्रकार, जिसमें समस्त कर्म मुझ भगवान्के अर्पण होते हैं, ऐसे संन्यासयोगसे युक्त चित्तवाला तू शुभाशुभ फलरूप कर्मबन्धनसे मुक्त हो जायगा और उनसे मुक्त होकर मुझको ही प्राप्त होगा।

 यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् । 
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धि विन्दति मानवः ॥
(१८ । ४६ ) 
'जिस परमेश्वरसे सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति हुई है। और जिससे यह समस्त जगत् व्याप्त है, उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मीद्वारा पूजा करके मनुष्य परम सिद्धिको प्राप्त हो जाता है।

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्यपाश्रयः। 
मत्प्रसादावाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ॥
( १८ । ५६) 
मेरे परायण हुआ कर्मयोगी तो सम्पूर्ण कर्मोको सदा करता हुआ भी मेरी कृपासे सनातन अविनाशी परमपदको प्राप्त हो जाता है ।'
 परमात्माकी प्राप्तिके विभिन्न मार्ग 
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