भगवत नाम महिमा
bhagwan nam ki mahima
शौनकजी कहते हैं नाम महिमा-
श्वविड्वराहोष्ट्रखरैः संस्तुतः पुरुषः पशुः।
न यत्कर्णपथोपेतो जातु नाम गदा ग्रजः ॥
(श्रीमद्भा०२। ३ । १९)
बिले बतोरुक्रमविक्रमान् ये न ऋण्वतः कर्णपुटे नरस्य ।
जिह्वासती दा१रिकेव सूत न चोपगायत्युरुगायगाथाः ॥
(श्रीमद्भा० २ । ३ । २०)
सूतजी ! मनुष्यके जो कान भगवान् श्रीहरिके गुणपराक्रम आदिकी चर्चा कभी नहीं सुनते, वे बिलके समान हैं तथा जो जीभ भगवान्की लीला कथाका गायन नहीं करती, वह मेढककी जीभके समान अधम है।
भारः परं पट्टकिरीटजुष्ट मत्युत्तमाङ्गं न नमेन्मुकुन्दम् ।
शावौ करौ नो कुरुतः सपर्या हरेलसत्काञ्चनकङ्कणौ वा ॥
(श्रीमद्भा०२ । ३ । २१)
जो मस्तक कभी भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें नहीं झुकता, वह रेशमी वस्त्रसे सुसज्जित और मुकुटमण्डित होनेपर भी भारी बोझ मात्र ही है तथा जो हाथ भगवान्की सेवा-पूजामें नहीं लगते, वे सोनेके कंगनसे विभूषित होनेपर मुर्देके ही हाथ हैं ।
बयिते ते नयने नराणां लिङ्गानि विष्णोर्न निरीक्षतो ये।
पादौ नृणां तौ द्रुमजन्मभाजौ क्षेत्राणि नानुवजतो हरेयौ ॥
(श्रीमद्भा० २ । ३ । २२)
जो श्रीविष्णु भगवान्के अर्चा-विग्रहोंकी झाँकी नहीं देखते, मनुष्योंके वे नेत्र मोरकी पाँखोंमें बने हुए नेत्रचिह्नके समान व्यर्थ ही हैं तथा जो श्रीहरिके तीर्थोकी यात्रा नहीं करते वे पैर भी जड वृक्षोंके ही समान हैं (उनकी गमन-शक्ति व्यर्थ है)।
कृपन देइ पाइअ परो, बिनु साधे सिधि होइ ।
सीतापति सन्मुख समुझि जो कीजै सुभ सोइ ॥
रामहि डरु, करु राम सों ममता प्रीति प्रतीति ।
तुलसी निरुपधि राम को भएँ हारेहूँ जीति ॥
चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका ।
भए नाम जपि जीव बिसोका ॥
बेद पुरान संत मत एहू।
सकल सुकृत फल राम सनेह ॥
(सदा) राम जपु राम जपु राम जपु राम जपु
राम जपु मूद मन बार बारम् ।
सकल सौभाग्य सुख खानि जिय जानि सठ
मानि बिस्वास वद बेद सारम् ॥
विनिश्चितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे।
हरि नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते ॥
(गो. तुलसीदास)
____मैं निश्चित सिद्धान्त बता रहा हूँ, मेरी बातें झूठी नहीं हो सकतीं । जो मनुष्य श्रीहरिका भजन करते हैं, वे अत्यन्त दुस्तर भवसागरसे पार हो जाते हैं।
पृथ्वीशतस्करहुताशभुजङ्गविप्र
दुःस्वप्नदुष्टग्रहमृत्युसपत्नजातम् ।
संविद्यते न हि भयं भुवनेशभर्तु
भक्ताश्च ये मधुरिपोर्मनुजेषु तेषु॥
(विष्णु० धर्म० १२२ । ३५)
मनुष्यों में जो लोग लोकेश्वरोंके भी स्वामी भगवान् मधुसूदनके भक्त हैं, उन्हें राजा, चोर, अग्नि, सर्प, ब्राह्मण, बुरे स्वप्न, दुष्ट ग्रह, मृत्यु और शत्रु आदिसे कभी भय नहीं होता।
___ असलमें तो सुखोंके निधान, उद्गमस्थान प्रभु एवं उनके वरद चरणारविन्द ही हैं। इसीलिये प्रभु अपने परमप्रिय अकिञ्चन भक्तोंको भोग न देकर अपनेको ही प्राप्त करा देते हैं।
फिर भी जो भोग-लुब्ध हैं, वे भी धीरे-धीरे जब प्रभुके पास पहुँच जाते हैं तो जिस तरह पूर्ण निर्मल जल-राशिमय बृहत्सरोवरको प्राप्त पुरुष तुच्छ तलैयोंकी उपेक्षा कर देता है अथवा राजाधिराजका मित्र तुच्छजनोंसे उपरत हो जाता है, उसी प्रकार वह संसारकी सारी वस्तुओंका परित्याग कर देता है। कहीं भी उसका कुछ राग नहीं रह जाता।
भगवत नाम महिमा
bhagwan nam ki mahima