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दुर्गुण दुराचारोंके रहते मुक्ति नहीं होती Geeta sar in hindi

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दुर्गुण दुराचारोंके रहते मुक्ति नहीं होती Geeta sar in hindi

दुर्गुण दुराचारोंके रहते मुक्ति नहीं होती  Geeta sar in hindi
दुर्गुण दुराचारोंके रहते मुक्ति नहीं होती
दुर्गुण दुराचारोंके रहते मुक्ति नहीं होती  Geeta sar in hindi
Geeta sar in hindi
दुर्गुण दुराचारोंके रहते मुक्ति नहीं होती यहाँ एक और भी सिद्धान्तकी बातपर विचार किया जाता है।

कुछ सज्जन ऐसा मानते हैं कि काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दुर्गुण और झूठ, कपट, चोरी, व्यभिचार आदि दुराचारोंके रहते हुए भी ज्ञानके द्वारा मुक्ति हो जाती है ।

परंतु यह बात न तो शास्त्रसम्मत है और न युक्तिसंगत ही। लोगोंको इस भ्रममें कदापि नहीं पड़ना चाहिये ।

यह सर्वथा सिद्धान्तविरुद्ध बात है। ऐसे दोषयुक्त लोगोंको तो स्वयं भगवान्ने गीतामें आसुरी सम्पदावाला बतलाया है ( गीता अध्याय १६ श्लोक ४ से १९ तक देखिये ) ।

और इनके लिये आसुरी योनियोंकी प्राप्ति, दुर्गति और घोर नरककी प्राप्तिका निर्देश किया है । भगवान् कहते हैं-

आसुरी योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि । 
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम् ॥
त्रिविधं नरकस्येद द्वारं नाशनमात्मनः । 
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥
(गीता १६ । २०-२१) 
हे अर्जुन ! वे मूढ़ मुझको न प्राप्त होकर जन्मजन्ममें आसुरी योनिको प्राप्त होते हैं, फिर उससे भी अति नीच गतिको ही प्राप्त होते हैं अर्थात् घोर नरकोंमें पड़ते हैं ।

काम, क्रोध तथा लोभ-ये तीन प्रकारके नरकके द्वार आत्माका नाश करनेवाले अर्थात् उसको अधोगतिमें ले जानेवाले हैं । अतएव इन तीनोंको त्याग देना चाहिये।

जो इन दुर्गुणों और विकारोंसे रहित हैं, वे ही भगवान्के सच्चे साधक हैं और वे ही उस परमात्माको प्राप्त हो सकते हैं । गीतामें बतलाया है--

एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिनरः । 
आचरत्यात्मनःश्रेयस्ततो याति परांगतिम् ॥
(१६।२२)
हे अर्जुन ! इन तीनों नरकके द्वारोंसे मुक्त पुरुष अपने कल्याणका आचरण करता है, इससे वह परमगतिको जाता है अर्थात् मुझको प्राप्त हो जाता है।"

यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः ।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः ॥
(१२।१५) 
जिससे कोई भी जीव उद्वेगको प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी जीवसे उद्वेगको प्राप्त नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष, भय और उद्वेगादिसे रहित है, वह मेरा भक्त मुझको प्रिय है ।

 - संत तुलसीदासजी भी कहते हैं-
काम क्रोध मद लोभ की जब लगि मन महँ खान । 
तुलसी पंडित मूरखा दोनों एक समान ॥
इससे यही सिद्धान्त निश्चित होता है कि दुर्गुण और दुराचारके रहते हुए कोई भी पुरुष मुक्त नहीं हो सकता । यही अटल सिद्धान्त है।

ईश्वर, परलोक और पुनर्जन्म सत्य हैं 
कुछ लोग यह कहते हैं कि 'न तो ईश्वर है और न परलोक तथा भावी जन्म ही है । पाँच जड भूतोंके इकट्ठे होनेपर उसमें एक चेतनशक्ति आ जाती है और उसमें विकार होनेपर वह फिर नष्ट हो जाती है। 

यह कहना भी बिल्कुल असंगत है । हम देखते हैं कि देहमें पाँच भूतोंके विद्यमान रहते हुए भी चेतन जीवात्मा चला जाता है और वह पुनः लौटकर वापस नहीं आ सकता । 

यदि पाँच भूतोंके मिश्रणसे ही चेतन आत्मा प्रकट होता हो तो ऐसा आजतक किसीने न तो करके दिखाया ही और न कोई दिखला ही सकता है । अतः यह कथन सर्वथा अयुक्त और त्याज्य है।

जीव इस शरीरको त्यागकर दूसरे शरीरमें चला जाता है । गीतामें भी देहान्तरकी प्राप्ति होनेकी बात स्वयं भगवान्ने कही है-

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा। 
तथा देहान्तरप्राप्ति/रस्तत्र न मुह्यति ॥ 
(२।१३)
__ 'जैसे जीवात्माकी इस देहमें बालकपन, जवानी | और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीरकी प्राप्ति होती है, उस विषयमें धीर पुरुष मोहित नहीं होता ।

 वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा
न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥
(२।२२)
'जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रोंको त्यागकर दूसरे नये वस्त्रोंको ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नये शरीरोंको प्राप्त होता है ।'

 अतएव उन लोगोंका उपर्युक्त कथन शास्त्रसे भी
असंगत है; क्योंकि मरनेके बाद भी आत्माका अस्तित्व रहता है तथा परलोक और पुनर्जन्म भी है ।

इसी प्रकार उनका यह कथन भी भ्रमपूर्ण है कि ईश्वर नहीं है, क्योंकि-आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र आदि पदार्थोंकी रचना और उनका संचालन एवं जीवोंके मन, बुद्धि, इन्द्रियोंको यथास्थान स्थापित करना ईश्वरके बिना कदापि सम्भव नहीं है ।

संसारमें जो भौतिक विज्ञान ( Science ) के द्वारा यन्त्रादिकी रचना देखी जाती है, उन सभीका किसी बुद्धिमान्चेतनके द्वारा ही निर्माण होता है ।

फिर यह जो इतना विशाल संसार-चक्ररूप यन्त्रालय है, उसकी रचना चेतनकी सत्ताके बिना जड प्रकृति ( Nature ) कभी नहीं कर सकती।

इससे यह बात सिद्ध होती है कि इसका जो उत्पादक और संचालक है, वही ईश्वर है ।
गीताजीमें भी लिखा है-

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति । 
भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥
(१८ । ६१) 
'हे अर्जुन ! शरीररूप यन्त्रमें आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियोंको अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी मायासे उनके कर्मोके अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियोंके हृदयमें स्थित है।'

शुक्लयजुर्वेदके चालीसवें अध्यायके प्रथम मन्त्रमें बतलाया है-

ईशावास्यमिद सर्व यत्किञ्च जगत्यां जगत् । 
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यविद् धनम् ॥

'अखिल ब्रह्माण्डमें जो कुछ भी जड़-चेतनस्वरूप जगत् है, यह समस्त ईश्वरसे व्याप्त है।

उस ईश्वरके सकारासे (सहायतासे ) त्यागपूर्वक इसे भोगते रहो, इसमें आसक्त मत होओ; क्योंकि धन-ऐश्वर्य किसका है अर्थात् किसीका भी नहीं है।

पूर्व और भावी जन्म न मानकर बिना ही कारण जीवोंकी उत्पत्ति माननेसे ईश्वरमें निर्दयता और विषमताका दोष भी आता है; क्योंकि संसारमें किसी जीवको मनुष्यकी और किसीको पशु आदिकी योनि प्राप्त होती है।

कोई जीव सुखी और कोई दुखी देखा जाता है । अतः जीवोंके जन्मका कोई सबल और निश्चित हेतु होना चाहिये । वह हेतु है पूर्वजन्मके गुण और कर्म । भगवान्ने भी गीता (४ । १३) में कहा है-

चातुर्वण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः। 
तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम् ॥ 

'ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-इन चार वर्णों- का समूह, गुण और कर्मोके विभागपूर्वक मेरेद्वारा - रचा गया है ।

इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्मका । कर्ता होनेपर भी मुझ अविनाशी परमेश्वरको तू वास्तवमें
अकर्ता ही जान ।'

इससे यह सिद्ध होता है कि मरनेके बाद भावी जन्म है।

मुक्त पुरुष लौटकर नहीं आते कितने ही लोग यह मानते हैं कि 'जीव मुक्त तो होते हैं; किंतु महाप्रलयके बाद पुनः लौटकर वापस आ जाते हैं।'

किंतु उनकी यह मान्यता भी - यथार्थ नहीं है; क्योंकि श्रुतियोंकी यह स्पष्ट घोषणा है-

 न च पुनरावर्तते, न च पुनरावर्तते ।
(छान्दोग्य०८। १५ । १) 
( मुक्त हो जानेपर पुरुष ) फिर वापस लौटकर में नहीं आता, वह पुनः वापस लौटकर आता ही नहीं ।' गीता (८।१६) में भी भगवान् कहते हैं-

आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन । मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥

हे अर्जुन ! ब्रह्मलोकपर्यन्त सब लोक पुनरावर्ती हैं, परंतु हे कुन्तीपुत्र ! मुझको प्राप्त होकर पुनर्जन्म नहीं होता; क्योंकि मैं कालातीत हूँ और ये सब ब्रह्मादिके लोक कालके द्वारा सीमित होनेसे अनित्य हैं।'

_यदि यह मान लिया जाय कि मुक्त होनेपर भी प्राणी वापस आता है तो फिर स्वर्गप्राप्ति और मुक्तिमें अन्तर ही क्या रहा ?

इसलिये ऐसा मानना चाहिये कि लोकान्तरों में गया हुआ जीव ही लौटकर आता है, जो ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है, वह नहीं आता ।

युक्तिसे भी यही बात सिद्ध है । जब परमात्माका यथार्थ ज्ञान होनेपर जीवकी चित्त ग्रन्थि खुल जाती है |

उसके  सारे कर्म और संशयोंका सर्वथा नाश हो जाता है, तथा प्रकृति और प्रकृतिके कार्योंसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद हो जाता है।

ऐसी स्थितिमें गुण, कर्म और अज्ञानके सम्बन्ध बिना जीव वापस नहीं आ सकता।

मुक्त तो यथार्थमें वही है, जिसके पूर्वके गुण और कर्म या संशय और भ्रमका सर्वथा विनाश हो चुका है।

ऐसा होनेपर पूर्वके गुण और कर्मोसे सम्बन्ध रहे ना उसका किसी योनिमें जन्म लेना और सुख-दुःखका उपभोग करना—सर्वथा असंगत और असम्भव है।

यदि कहें कि इस प्रकार जीव मुक्त होते रहेंगे शनैः शनैः सभी मुक्त हो जायेंगे ।' तो यह ठीक है।

यदि शनैः-शनै: सभी मुक्त हो जाये तो समें क्या हानि है ? अच्छे पुरुष तो सबके कल्याणके लिये ईश्वरसे प्रार्थना करते ही रहते हैं।
दुर्गुण दुराचारोंके रहते मुक्ति नहीं होती
Geeta sar in hindi

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