F गंगा में स्नान करते हुए व्यास जी ने क्यों कहा-कलयुग श्रेष्ठ है शूद्र श्रेष्ठ है स्त्री श्रेष्ठ है kaliyug hai sabse Achha yug - bhagwat kathanak
गंगा में स्नान करते हुए व्यास जी ने क्यों कहा-कलयुग श्रेष्ठ है शूद्र श्रेष्ठ है स्त्री श्रेष्ठ है kaliyug hai sabse Achha yug

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गंगा में स्नान करते हुए व्यास जी ने क्यों कहा-कलयुग श्रेष्ठ है शूद्र श्रेष्ठ है स्त्री श्रेष्ठ है kaliyug hai sabse Achha yug

गंगा में स्नान करते हुए व्यास जी ने क्यों कहा-कलयुग श्रेष्ठ है शूद्र श्रेष्ठ है स्त्री श्रेष्ठ है kaliyug hai sabse Achha yug
गंगा में स्नान करते हुए व्यास जी ने क्यों कहा- कलयुग श्रेष्ठ है शूद्र श्रेष्ठ है स्त्री श्रेष्ठ है
गंगा में स्नान करते हुए व्यास जी ने क्यों कहा-कलयुग श्रेष्ठ है शूद्र श्रेष्ठ है स्त्री श्रेष्ठ है kaliyug hai sabse Achha yug
कितने ही लोग ऐसा कहते हैं कि इस देशमें, इस कालमें और गृहस्थ-आश्रममें मुक्ति नहीं होती ।' यह कथन भी युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर तो परमात्माकी प्राप्ति असम्भव-सी हो जाती है, फिर मुक्तिके लिये कोई प्रयत्न ही क्यों करेगा ?

इससे तो प्रायः सभी मुक्तिसे वञ्चित रह जायँगे । अतः इनका कहना भी शास्त्रसंगत और युक्तिसंगत नहीं है ।

सत्य यह है कि मुक्ति ज्ञानसे होती है और ज्ञान होता है साधनके द्वारा अन्तःकरणकी शुद्धि होनेपर, एवं साधन भी देशमें, सभी कालमें, सभी वर्णाश्रममें हो सकते ।

ज्ञान और ज्ञानके साधन किसी देश-काल-आश्रमकी कैद में नहीं हैं। |

भारतवर्ष तो आत्मोद्धारके लिये अन्य देशोंकी अपेक्षा शेष उत्तम माना गया है । श्रीमनुजी कहते हैं-

एतद्देश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः । 
बहुस्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः ॥
(मनुस्मृति २ । २०) “
इसी देश ( भारतवर्ष ) में उत्पन्न हुए ब्राह्मणोंसे अखिल भूमण्डलके मनुष्य अपने-अपने आचारकी शिक्षा ग्रहण करते हैं ।

अत: यह कहना कि इस देशमें मुक्ति नहीं होती, अनुचित है । इसी प्रकार यह कहना भी अनुचित है कि गृहस्थाश्रममें मुक्ति नहीं होती। क्योंकि मुक्तिमें मनुष्यमात्रका अधिकार है । भगवान्ने बतलाया है-

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः । 
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्॥
(गीता ९ । ३२) 
हे अर्जुन ! स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनिचाण्डालादि जो कोई भी हों, वे भी मेरे शरण होकर परम गतिको ही प्राप्त होते हैं।' _ विष्णुपुराणके छठे अंशके दूसरे अध्यायमें एक कथा आती है। एक बार बहुत-से मुनिगण महामुनि श्रीवेदव्यासजीके पास एक प्रश्नका उत्तर जाननेके लिये आये । 

उस समय श्रीवेदव्यासजी गङ्गाजीमें स्नान कर रहे थे । उन्होंने मुनियोंके मनके अभिप्रायको जान लिया और गङ्गामें डुबकी लगाते हुए ही वे कहने लगे—'कलियुग श्रेष्ठ है, शूद्र श्रेष्ठ हैं, स्त्रियाँ श्रेष्ठ हैं । 

फिर उन्होंने गंगाके बाहर निकलकर मुनियोंसे पूछा-'आपलोग यहाँ कैसे पधारे हैं ?' मुनियोंने कहा-

कलिः साध्विति यत्प्रोक्तं शूदः साध्विति योषितः । 
यदाह भगवान् साधु धन्याश्चेति पुनः पुनः॥
(६।२।१२) '
भगवन् ! आपने जो स्नान करते समय पुन:पुनः यह कहा था कि कलियुग ही श्रेष्ठ है, शूद्र ही श्रेष्ठ है, स्त्रियाँ हीष्ठ और धन्य हैं, सो इसका क्या कारण है ? इसपर श्रीवेदव्यासजी बोले-

यत्कृते दशभिर्वस्त्रेतायां हायनेन तत् । 
द्वापरे तच्च मासेन ह्यहोरात्रण तत्कलौ ॥ 
तपसो ब्रह्मचर्यस्य जपादेश्च फलं द्विजाः। 
प्राप्नोति पुरुषस्तेन कलिः साध्विति भाषितम् ॥ 
ध्यायन्कृते यजन्यस्त्रेतायां द्वापरेऽर्चयन् । 
यदाप्नोति तदाप्नोति कलौ संकीर्त्य केशवम् ॥
(६।२ । १५-१७) '
हे ब्राह्मणो ! जो परमात्माकी प्राप्तिरूप फल सत्ययुगमें दस वर्ष तपस्या, ब्रह्मचर्य और जप आदि करनेपर मिलता है उसे मनुष्य त्रेतामें एक वर्षमें, द्वापरमें एक । मासमें और कलियुगमें केवल एक दिन रातमें प्राप्त कर लेता है, इसी कारण मैंने कलियुगको श्रेष्ठ कहा है। 

जो परमात्माकी प्राप्ति सत्ययुगमें ध्यानसे, त्रेतामें यज्ञसे और द्वापरमें पूजा करनेसे होती है, वही कलियुगमें श्रीभगवान्के नाम-कीर्तन करनेसे हो जाती है।'

- यहाँ अन्य सब कालोंकी अपेक्षा कलियुगकी विशेषता बतलायी गयी है । इसलिये इस कालमें मुक्ति नहीं होती, यह बात शास्त्रसे असंगत है। श्रीतुलसीदासजीने भी कहा है-

कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास । 
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास ॥

अब शूद्र क्यों श्रेष्ठ हैं, यह बतलाते हैं-

बतचर्यापरैाद्या वेदाः पूर्व द्विजातिभिः। 
ततः स्वधर्मसम्पाप्तैर्यष्टव्यं विधिवद् धनैः ॥ 
द्विजशुश्रूषयैवैष पाकयाधिकारवान् । 
निजाञ्जयति वै लोकाञ्च्छद्रो धन्यतरस्ततः ॥
(६।२। १९-२३) 
द्विजातियोंको पहले ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करते हुए वेदाध्ययन करना चाहिये और फिर खधर्मके अनुसार उपार्जित धनके द्वारा विधिपूर्वक यज्ञ करना कर्तव्य है ( इस प्रकार करनेपर वे अत्यन्त क्लेशसे अपने पुण्यलोकोंको प्राप्त करते हैं। 

किंतु जिसे केवल ( मन्त्रहीन ) पाकयज्ञका ही अधिकार है, वह शूद्र तो द्विजाति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यकी सेवा करनेसे अनायास ही अपने पुण्यलोकोंको प्राप्त कर लेता है, इसलिये वह अन्य जातियोंकी अपेक्षा धन्यतर है।'

अब स्त्रियोंको किसलिये श्रेष्ठ कहा, सो बतलाते हैं-

योषिच्छुश्रूषणाद् भर्तुः कर्मणा मनसा गिरा। 
तद्धिता शुभमाप्नोति तत्सालोक्यं यतो द्विजाः ॥ 
नातिक्लेशेन महता तानेव पुरुषो यथा। 
तृतीयं व्याहृतं तेन मया साध्विति योषितः ॥
(६।२। २८-२९) 
अपने पतिके हितमें रत रहनेवाली स्त्रियाँ तो तन  मन बचनके द्वारा पतिकी सेवा करनेसे ही पतिके समान शुभ लोकोंको अनायास ही प्राप्त कर लेती हैं जो कि पुरुषोंको अत्यन्त परिश्रमसे मिलते हैं। इसीलिये मैंने तीसरी बार यह कहा था कि स्त्रियाँ श्रेष्ठ हैं।

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