सभी देश, सभी काल, सभी आश्रमोंमें मनुष्य मात्रकी मुक्ति हो सकती है। mukti moksh kaise prapt hoti hai

सभी देश, सभी काल, सभी आश्रमोंमें मनुष्य मात्रकी मुक्ति हो सकती है। 
सभी देश, सभी काल, सभी आश्रमोंमें मनुष्य मात्रकी मुक्ति हो सकती है। mukti moksh kaise prapt hoti hai
अपने धर्मके पालनसे, मुक्तिका प्राप्त होना शास्त्रोंमें बतलाया गया है। पद्मपुराण सृष्टिखण्डके ४७ वें अध्यायमें तुलाधार वैश्यके विषयमें भगवान्ने स्वयं कहा है कि “उसने कर्म मन, वाणी या क्रियाद्वारा किसीका कुछ बिगाड़ नहीं किया, वह कभी असत्य नहीं बोला और उसने दुष्टता नहीं की । 

वह सब लोगोंके हितमें तत्पर रहता है। सब प्राणियोंमें समान भाव रखता है तथा मिट्टीके ढेले पत्थर और सुवर्णको एक समान समझता है । लोग जौ, नमक, तेल, घी, अनाजकी ढेरियाँ तथा अन्यान्य संगृहीत वस्तुएँ उसकी जबानपर ही लेते-देते हैं वह प्राणान्त उपस्थित होनेपर भी सत्य छोड़कर कभी झूठ नहीं बोलता । 

अतः वह 'धर्म-तुलाधार' कहलाता है। उसने सत्य और समतासे तीनों लोकोंको जीत लिया है, इसीलिये उसपर पितर, देवता तथा मुनि भी संतुष्ट रहते हैं। 

धर्मात्मा तुलाधार उपर्युक्त गुणोंके कारण ही भूत और भविष्यकी सब बातें जानता है | बुद्धिमान् तुलाधार धर्मात्मा है तथा सत्यमें प्रतिष्ठित है। इसीलिये देशान्तरमें होनेवाली बातें भी उसे ज्ञात हो जाती हैं । तुलाधारके समान प्रतिष्ठित व्यक्ति देवलोकमें भी नहीं है।"

वह तुलाधार वैश्य उपर्युक्त प्रकारसे अपने धर्मक पालन करता हुआ अन्तमें अपनी पत्नी और परिवार सहित विमानमें बैठकर विष्णुधामको चला गया ।
*सत्येन समभावेन जितं तेन जगत्त्रयम् ।। तेनातृप्यन्त पितरो देवा मुनिगणैः सह ।। भूतभव्यप्रवृत्तं च तेन जानाति धार्मिकः ।
इसी प्रकार 'मूक' चाण्डाल भी माता-पिताकी सेवा करके उसके प्रभावसे भगवान्के परम धाममें चला गया। वह माता-पिताकी सेवा किस प्रकारसे किया करता था, इसका पद्मपुराण सृष्टिखण्डके ४७३ अध्यायमें बड़ा सुन्दर वर्णन है ।

वहाँ बतलाया है कि- चाण्डाल सब प्रकारसे अपने माता-पिताकी सेवामें लगा रहता था । जाड़ेके दिनोंमें वह अपने माँ बापको नहाने के लिये गरम जल देता, उनके शरीरमें तेल मलता ,तापनेके लिये अँगीठी जलाता, भोजनके पश्चात पान खिलाता और रूईदार कपड़े पहननेको देता था।

प्रतिदिन भोजनके लिये मिष्टान्न परोसता और वसन्त - ऋतु में महुएके पुष्पोंकी सुगन्धित माला पहनाता था।
इनके सिवा और भी जो भोग-सामग्रियाँ प्राप्त होती, उन्हें देता और भाँति-भाँतिकी आवश्यकताएँ पूर्ण किया करता था ।

गरमीकी मौसिममें प्रतिदिन माता-पिताको पंखा झलता था । इस प्रकार नित्यप्रति उनकी परिचर्या करके ही वह भोजन करता था ।

माता-पिताकी थकावट और कष्टका निवारण करना उसका सदाका नियम था ।  इन पुण्यकर्मोके कारण उस चाण्डालका घर बिना किसी आधार और खंभेके के ही आकाशमें स्थित था।

उसके अंदर त्रिभुवनके स्वामी भगवान् श्रीहरि मनोहर ब्राह्मणका रूप धारण किये नित्य विराजमान रहते थे। वे सत्य* स्वरूप परमात्मा अपने महान् सत्त्वमय तेजस्वी विग्रहसे से उस चाण्डालके घरकी शोभा बढ़ाते थे ।

उसी प्रसङ्गमें एक शुभा नामकी पतिव्रता स्त्रीका आख्यान भी आया है। जब तपस्वी नरोत्तम ब्राह्मण मूक चाण्डालके कथनानुसार पतिव्रताके घर गया और उसके विषयमें पूछने लगा तो अतिथिकी आवाज सुनकर -वह पतिव्रता घरके दरवाजेपर आकर खड़ी हो गयी।

उस समय ब्राह्मणने कहा-'देवि ! तुमने जैसा देखा - और समझा है, उसके अनुसार स्वयं ही सोचकर मेरे लिये प्रिय और हितकी बात बतलाओ ।'

शुभा बोली- ब्रह्मन् ! इस समय मुझे पतिदेवकी सेवा करनी है, अतः अवकाश नहीं है, इसलिये आपका कार्य पीछे करूँगी, इस समय तो आप मेरा आतिथ्य ग्रहण कीजिये ।'

नरोत्तमने कहा-'मेरे शरीरमें इस समय भूख, प्यास और थकावट नहीं है, मुझे अभीष्ट बात
बतलाओ, नहीं तो मैं तुम्हें शाप दे दूंगा ।'

तब उस पतिव्रताने भी कहा–'द्विजश्रेष्ठ ! मैं बगुला नहीं हूँ, आप धर्म-तुलाधारके पास जाइये और उन्हींसे अपने हितकी बात पूछिये ।' यों कहकर वह पतिव्रता अपने घरके भीतर चली गयी।

अपने धर्मपालनमें कितनी दृढ़ निष्ठा है ! इस पातिव्रत्यके प्रभावसे ही वह देशान्तरमें घटनेवाली घटनाओंको भी जान लेती थी और इस प्रकार पतिसेवा करती हुई अन्तमें वह अपने पतिके सहित भगवान्के परम धाममें चली गयी।

ऐसे ही द्रौपदी, अनसूया, सुकला आदि और भी बहुत-सी पतिव्रताएँ ईश्वरकी भक्ति और पातिव्रत्यके प्रभावसे परम पदको प्राप्त हो चुकी हैं।

इसी प्रकार सत् शूद्रोंमें- संजय, लोमहर्षण, उग्रश्रवा आदि सूत भी परम गतिको प्राप्त हुए हैं तथा निम्न जातियोंमें गुह, केवट, शबरी ( भीलनी ) आदि मुक्त हो गये हैं। __जब स्त्री, वैश्य और शूद्रोंकी तथा पापयोनिचाण्डालादि गृहस्थियोंकी मुक्ति हो जाती है तो फिर उत्तम वर्ण और उत्तम आश्रमवालोंकी मुक्ति हो जाय, इसमें क्या आश्चर्य है ?

शास्त्रोंके इन प्रमाणोंसे यह भलीभाँति सिद्ध हो जाता है कि सभी देश, सभी काल और सभी जातिमें मनुष्यका कल्याण हो सकता है, इसमें कोई आपत्ति नहीं है ।

इसलिये प्रत्येक मनुष्यको उचित है कि वह चाहे किसी भी देशमें हो, किसी भी कालमें हो और किसी भी जाति, वर्ण और आश्रममें हो, उसीमें शास्त्रविधिके अनुसार अपने कर्त्तव्यका पालन करता हुआ ज्ञानयोग, कर्मयोग या भक्तियोग-किसी भी अपनी रुचि और अधिकारके अनुकूल साधनके द्वारा परमात्माको प्राप्त करनेका पूरा प्रयत्न करे।

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