(परमात्मा की भक्ति कैसे प्राप्त हो?)
भगवान का निरंतर स्मरण करने से भगवान की भक्ति प्राप्त हो जाती है
भगवान के किसी भी साकार स्वरूप में अपने मन को जोड़ने से भक्त, साधक का भाग्य उदय हो जाएगा। अगर अपना कल्याण चाहते हो तो प्रभु के शरणागत हो जाओ और उनका प्रेम पूर्वक तथा पूर्ण निष्ठा से स्मरण करो। जीवन का समय बहुत तीव्र गति से निकल रहा है। इसलिए समय रहते अपने प्रभु का नाम स्मरण कर अपना मनुष्य जन्म सफल कर लो।भगवान से निष्काम भाव से प्रेम करो और अपने हृदय के तार परमात्मा से जोड़ो।
इससे दिव्य आनंद की प्राप्ति होगी। यह आनंद अपनी आत्मा का ही स्वरूप है। परमात्मा जो आनंद स्वरूप है उनको कोई जान नहीं सकता, उनका केवल अनुभव होता है। भगवान की अपनी कोई इच्छा नहीं होती अपितु वे तो भक्तों की इच्छा और भावना को परिपूर्ण करते हैं।महान शक्तिमान ईश्वर का निरंतर भजन एवं स्मरण करो, इससे सत्य का ज्ञान स्वत: हो जाएगा। सतत् स्मरण के परिणाम स्वरूप भक्ति स्वत: ही प्रकट हो जाती है। भगवान से विशुद्ध प्रेम करना है तो संसार से मन हटाना होगा।
जो भगवान से प्रेम करता है और उनका निरंतर स्मरण करता है, उस प्राणी की देखभाल भगवान स्वयं करते हैं। उस प्राणी का संपूर्ण अमंगल दूर होता है और मंगल का विस्तार हो जाता है। ऐसे साधक, भक्त को सगुण साकार रूप का जहां ज्ञान हो जाता है वहां उसे तत्वज्ञान की भी प्राप्ति हो जाती है।
भगवान की विशुद्ध प्रेमा भक्ति के साथ-साथ वह पुरुष विज्ञानी भी बन जाता है।
हर साधक, भक्त पूर्णरूपेण भगवान से जुड़ जाता है। भगवान के अंग संग होने का अनुभव करने लगता है। भगवान से उसकी वार्ता होती है। और उन्हीं की आज्ञा में रहकर दास भाव से वह जीवन यापन करता है। ऐसे शुद्धभाव होने से ही भगवद् भक्ति प्राप्त होती है। दुख से डरो मत, इसका सामना करो। दुख से मुक्ति जीव को सुखी बनाती है। सुख दुख इस जीवन के क्रम है, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सुख के बाद दुख और दुख के बाद सुख आता ही है। संसार का बड़े से बड़ा दुख चिंता में वास करता है। चिंन्ता से जो भी प्राणी नाता जोड़ता है, दुख तो स्वयमेव उसके पास आ ही जाएगा, क्योंकि चिंता जननी है और दुख, दारिद्र्य, कष्ट, दीनता, और पीड़ा उसकी संतान है। यह संसार की चिंताएं तो केवल भगवान के ही चिंतन वंदन से मिटती है।स्वयं को कभी निर्बल मत समझो या परमात्मा की कृपा है
कि उसने तुम्हें दूसरों की सहायता करने के योग्य बनाया है। परमात्मा तुम्हें किस रूप में मिल जाए, यह तो हमें पता नहीं। अतः उस व्यक्ति में भगवान को देखो, जिसकी सहायता तुम कर रहे(पुनर्जन्म का कारण)
संसार किसे कहते हैं? आने जाने का जहां सिलसिला (क्रम) चलता रहे उसे संसार कहते हैं। संसार एक सड़क है और जीव उस पर चलने वाला यात्री है। पुनर्जन्म का कारण ऋणों का अनुबंध (बंधन, संबंध) है। जीव इस जगत में पूर्व के ऋण के बन्ध (बंधन) के कारण ही इस संसार में जन्म लेता है।किसका कितना ऋण चुकाना है, किसने कितना ऋण वसूलना (प्राप्त करना) है, यही ऋणों का अनुबंध है और जीव के पुनर्जन्म का हेतु भी यही होता है। माता-पिता, भाई-बहन, पति पत्नी, पुत्र पुत्रवधू, पुत्री दामाद, मित्र शत्रु और इतना ही नहीं, बल्कि जिन पशु पक्षियों से भी संसर्ग (संबंध, संपर्क, लगाव, घनिष्ठता) होता है, वे भी इसी ऋण अनुबंध द्वारा जन्म लेते हैं। फिर चिंता क्यों करते हो? प्रभु का नाम जपो और उनकी शरण में रहो। भक्त कहता है_
'' मैं जिसका जिक्र(चर्चा, चिंतन) करता हूं, वह मेरा फिक्र करता है। ''
उसका यह कहना वास्तव में सत्य है। भगवन्नाम भक्त के जीवन का आधार है, सुख शांति और आनंद का भंडार है।
जो आनंद सिंधु सुखराशि। सीकर ते त्रैलोक सुपाशी।।
सो सुखधाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक विश्राम।।
भावार्थ= जो आनंद के समुद्र और सुख के भंडार हैं, जिनकी कृपा की एक बूंद से तीनो लोक सुखी हो जाते हैं, उनका नाम 'राम' है। वे सुख के धाम है और संपूर्ण लोको को शांति देने वाले हैं।भगवन्नाम सुख शांति के धाम का सूचक है। भगवान की प्राप्ति से ही सच्चे सुख और शांति की प्राप्ति होती है। भगवान ही सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान और सर्व अंतर्यामी है। उनकी भौंहों (भृकुटी) के इशारे मात्र से सृष्टि की उत्पत्ति और उसका लोप होता है।
'' उमा राम की भृकुटी बिलासा। होई बिश्व पुनि पावइ नासा।। ''
हमारी आत्मा भी इस सृष्टि को उत्पन्न करने वाले सर्वशक्तिमान परमात्मा का ही अंश है। इसलिये वह अविनाशी है, चेतन है, निर्मल और सहज सुख का भंडार है। सहज सुख को प्राप्त करने के लिए अवतारी भगवान तथा सदगुरुदेव के जीवन चरित्र में हमें प्रेरणा लेनी चाहिए।उनके आदर्श और आदेशों को अपने सम्मुख रखना चाहिए। यदि इन आदर्शों को अपने जीवन में कोई डाल ले तो उसका जीवन सर्व सुखमय और धन्य हो जाए।
मानव केवल भगवद् पूजा में लिप्त तो रहता है, परंतु उनके चरित् को जीवन में नहीं उतरता या यूं कहो कि
उसे अपने जीवन में उतारना ही नहीं चाहता।
सच्ची पूजा अर्चना तो वही है, जो भगवान् के तथा सद्गुरुजनों के चरित्र तथा उनके उपदेशों को भले ही अंश मात्र ही अपना ले, तो उसका जीवन कृतकृत्य हो जाए। भक्तों को सरल और निष्कपट भाव से सदा संतुष्ट रहना चाहिए। उसे द्वन्द्वों अर्थात् सुख दुख, लाभ हानि तथा मान अपमान आदि से ऊपर उठकर रहना चाहिए।जो प्रभु को सर्वव्यापक मानता है और जिसे हर व्यक्ति में परमपिता परमेश्वर का प्रकाश समाया हुआ दिखाई देता है, वह सपने में भी किसी के साथ छल कपट का व्यवहार नहीं कर सकता। जो अपनी इच्छा को प्रभु इच्छा के अधीन कर देता है, उसे लोक परलोक के सुख प्राप्त हो जाते हैं और वहां प्रभु कृपा का पात्र बन जाता है।