राम जी की कृपा स्वभाव
ram ji ka swabhav - ram naam ka mahatva
सममिकता रति-सी रखनी सिंधुमेखला अवनि पति,
औनिप अनेक ठाढ़े हाथ जोरि हारि के।
संपदा-समाज देखि लाज सुरराज हूँ के
सुख सब बिधि बिधि दीन्हें हैं सँवारि के।
इहाँ ऐसो सुख, सुरलोक सुरनाथ-पद,
जा को फल तुलसी सो कहेगौ बिचारि के।
आक के पतौना चार, फूल के धतूरे के है,
दीन्हें लैहैं बारक पुरारि पर डारि के ॥
यह औढरदानी, आशुतोष, भूतभावन भगवान् शङ्करकी एक बारकी अल्प आराधनाका परिणाम है। पर वे ही संतशिरोमणि परम पूज्य गुरुवर्य गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी आनन्दविभोर होकर कहते हैं कि रावणने बहुत वर्षोंतक शङ्करजीकी आराधना की थी।
अनेकों बार तो अपने सभी सिरोंतकको आहुतिमें दे डाला था। इसपर वरदायक प्रभुने उसे लंका-जैसी सुवर्णकोट, सुदृढ़ रचनारचित, मणिखचित पुरी प्रदान की थी. पर विभीषणको तो यह सारी वस्तु प्रभु श्रीरामभद्र राघवेन्द्रके अरुण मृदुल चरण-कमलके खाली हाथोंसे
१-(क) सिर सरोज निज करन्हि उतारी।पूजे अमित बार त्रिपुरारी ॥ ( ख ) सादर मिव कहँ सीस चढाए ।एक एक के कोटिन्ह पाए ।
ही दर्शन करने मात्रसे मिल गयी ।' विभीषणको शरणागत भावसे आया जान, देखते ही प्रभुने 'लंकेश' कहकर सम्बोधन किया और कहा कि 'तुम मुझे प्राणोंके समान प्यारे हो ।
विभीषणने कहा – 'प्रणतपाल प्रभु ! आप तो अन्तर्यामी हैं, क्या कहूँ ? पहले कुछ जो हृदयमें वासनाएँ थीं, वे भी श्रीचरणोंके प्रेमसे बह गयीं । अब तो नाथ ! अपने चरण-कमलोंकी प्रीति ही मुझे देनेकी दया करें-
सुनत बिभीषन प्रभु कै बानी। नहिं अघात श्रवनामृत जानी ॥
पद अंबुज गहि बारहिं बारा । हृदय समात न प्रेमु अपारा ॥
सुनहु देव सचराचर स्वामी । प्रनतपाल उर अंतरजामी ।
उर कछु प्रथम बासना रही। प्रभु पद प्रीति सरित सो बही॥ ।
अब कृपाल निज भगति पावनी। देहु सदा सिव मन भावनी ।।
वास्तवमें यह प्रसंग ऐसा है कि ध्यान आते ही सब सुध-बुध भूलने-सी लगती है । तभी तो स्वयं -गोस्वामीजीने भी ऐसे स्थलोंके लिये बड़े जोरदार शब्दों में लिख डाला ।
यह संबाद जासु उर आवा ।
रघुपति चरन भगति सोइ पावा ॥
अस्तु, इसपर करुणावरुणालय, औदार्य, वात्सल्य, सौशील्य-जैसे सहस्रशः गुणोंके अगाध वारिधि प्रभुने बड़े मनोरम हृदयहारी शब्दोंमें कहा – 'सखे ! ऐसा ही होगा, यद्यपि आपकी इच्छा बिलकुल नहीं है, तो भी मेरा दर्शन कभी व्यर्थ नहीं जाता ।' और समुद्रका जल मंगाकर तुरंत अभिषेक कर दिया । इस तरह
१ (क) जो संपति सिवरावनहि दीन्हि दिएँ दस माय ।सोइ संपदा विभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ ।। (ख) जो संपति दससीस अरपि करि रावन मिव पहँ लीन्हीं। सोइ संपदा विभीषन कहँ अति सकुच सहित हरि दीन्हीं ।। २ (क) दीनता प्रीति संकलित मृदु बचन सुनि,पुलकि तन प्रेम जल नयन लागे भरन ।बोलि लंकेस कहि अंक भरि भैटि प्रभु,तिलक दियो दीन-दुख-दोष-दारिद-दरन । (ख) 'कहु लंकेस कुसल परिवारा।'''सुनु लंकेस सकल गुन तोरे ॥'
विभीषणको दुर्लभ भक्तिके साथ कल्पपर्यन्त लंकाका अचल राज्य भी मिल गया ।
एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा । मांगा तुरत सिंधु कर नीरा ॥
जदपि सखा तव इच्छा नाहीं । मोर दरसु अमोघ जग माहीं ।
अस कहि राम तिलक तेहि सारा । सुमन बृष्टि नभ भई अपारा॥
भक्तिरससे परिप्लुत होकर पूज्य गोस्वामीजी कहते हैं कि कुबेरकी पुरी लंका सुमेरुके समान थी। इसकी रचनामें ब्रह्माजीकी सारी बुद्धि लग गयी थी।
वीर रावण कई बार अपने सीसको ईशके चरणोंपर चढ़ाकर वहाँका राजा बना था। ऐसा लगता था मानो तीनों लोककी विभूति, सामग्री और सम्पत्तिकी राशिको एकत्रित कर चाँक लगा दी गयी हो ।
पर यह सारी सम्पत्ति महाराज रामचन्द्रजीके वनमें रहते हुए भी तीन दिनके समुद्र-तटके उपवासके बाद एक ही दिनका दान बन गयी--
तीसरे उपास बन बास सिंधु पास सो,
समाज महाराज जू को एक दिन दान भो ।
भला, भुवनमोहन भगवान् श्रीराघवेन्द्रको स्वयं जब गहनोंके, आभूषणोंके लिये केवल वल्कल वस्त्रमात्र ही थे, भोजनको फल ही रह गया था, शय्या तृणाच्छादित भूमिमात्र थी और वृक्ष ही मकान बन रहे थे, उस समयमें तो विभीषणको लंकाका राज्य दे डाला, फिर दूसरे समयका क्या कहना । सचमुच उनकी दया और प्रीतिकी रीति देखते ही बनती है-
बलकल भूषन फल असन, तृन सज्या द्रुम प्रीति ।
तिन समयन लंका दई, यह रघुबरकी रीति ॥
विभीषण क्या लेकर प्रभुसे मिला और प्रभुने क्या दे डाला ? प्रभुके स्वभावको न समझने-जाननेवाले मूर्व जीव हाथ ही मलते रह जायेंगे।
कहा बिभीषन लै मिल्यो कहा दियो रघुनाथ । तुलसी यह जाने बिना मूढ़ मीजिहैं हाथ ॥
राम जी की कृपा स्वभाव ram ji ka swabhav - ram naam ka mahatva