वेणु गीत || गोपियों द्वारा गाया हुआ वेणु गीत || venu geet lyrics

गोपियों द्वारा गाया हुआ वेणु गीत
(अनुवादक--स्वामी श्री  अखंडानंद जी महाराज)

गोपियाँ कहने लगीं- अरी सखी! हमने तो आँखवालोंके जीवनकी और उनकी आँखोंकी बस, यही—इतनी ही सफलता समझी है; और तो हमें कुछ मालूम ही नहीं है।

वह कौन-सा लाभ है ?

वह यही है कि जब श्यामसुन्दर व श्रीकृष्ण और गौरसुन्दर बलराम ग्वालबालोंके साथ गायोंको हाँककर वनमें ले जा रहे हों या लौटाकर व्रजमें ला रहे हों, उन्होंने अपने अधरोंपर मुरली धर रक्खी हो और प्रेमभरी । तिरछी चितवनसे हमारी ओर देख रहे हों, उस समय हम उनकी मुख-माधुरीका पान करती रहे ॥ १ ॥

अरी सखी! जब वे आमकी नयी कोपलें, मोरोंके पंख, फूलोंके गुच्छे, । रंग-बिरंगे कमल और कुमुदकी मालाएँ धारण कर लेते हैं, श्रीकृष्णके साँवरे शरीरपर पीताम्बर और बलरामके गोरे । शरीरपर नीलाम्बर फहराने लगता है, तब उनका वेष बड़ा । विचित्र बन जाता है। ग्वालबालोंकी गोष्ठीमें वे दोनों बीचोंबीच बैठ जाते हैं और मधुर संगीतकी तान छेड़ देते हैं। मेरी प्यारी सखी! उस समय ऐसा जान पड़ता है मानो दो चतुर नट रंगमञ्चपर अभिनय कर रहे हों। मैं क्या बताऊँ कि उस समय उनकी कितनी शोभा होती है ॥२॥

 - अरी गोपियो! यह वेणु पुरुषजातिका होनेपर भी पूर्वजन्ममें न जाने ऐसा कौन-सा साधन-भजन कर चुका है कि हम गोपियोंकी अपनी सम्पत्ति-दामोदरके अधरोकी सुधा स्वयं ही इस प्रकार पिये जा रहा है कि हमलोगोंके लिये थोड़ा-सा भी रस शेष नहीं रहेगा।

इस वेणुको अपने रससे सींचनेवाली हदिनियाँ आज कमलोंके मिस रोमाञ्चित हो रही हैं और अपने वंशमें भगवत्प्रेमी संतानोंको देखकर श्रेष्ठ पुरुषों के समान वृक्ष भी इसके साथ अपना सम्बन्ध जोड़कर आँखों से आनन्द अश्रु बहा रहे हैं ॥ ३ ॥

अरी सखी ! यह वृन्दावन वैकुण्ठलोकतक पृथ्वीका कीर्तिका विस्तार कर रहा है, क्योंकि यशोदानन्दन श्रीकृष्ण के चरणकमलोंके चिह्नोंसे यह चिह्नित हो रहा है। सखि ! जब श्रीकृष्ण अपनी मुनिजनमोहिनी मुरली बजाते हैं, तब मोर मतवाले होकर उसकी तालपर नाचने लगते हैं।

यह देखकर पर्वतकी चोटियोंपर विचरनेवाले सभी पशु-पक्षी चुपचापशान्त होकर खड़े रह जाते हैं।

अरी सखी! जब प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण विचित्र वेष धारण करके बाँसुरी बजाते हैं, तब मूढ़ बुद्धिवाली ये हरिनियाँ भी वंशीकी तान सुनकर अपने पति कृष्णसार मृगोंके साथ नन्दनन्दनके पास चली आती हैं और अपनी प्रेमभरी बड़ी-बड़ी आँखोंसे उन्हें निरखने लगती हैं ।

निरखती क्या हैं, अपनी कमलके समान बड़ी-बड़ी आँखें श्रीकृष्णके चरणोंपर निछावर कर देती हैं और श्रीकृष्णकी प्रेमभरी चितवनके द्वारा किया हुआ अपना सत्कार स्वीकार करती हैं।

वास्तवमें उनका जीवन धन्य है ! ( हम वृन्दावनकी गोपी होनेपर भी इस प्रकार उनपर अपनेको निछावर नहीं कर पातीं, हमारे घरवाले कुढ़ने लगते हैं । कितनी विडम्बना है ! ) ॥ ४-५

अरी सखी ! हरिनियोंकी तो बात ही क्या है—स्वर्गकी देवियाँ जब युवतियोंको आनन्दित करनेवाले सौन्दर्य और शीलके खजाने श्रीकृष्णको देखती हैं और बाँसुरीपर उनके द्वारा गाया हुआ मधुर संगीत सुनती है। तब उनके चित्र-विचित्र आलाप सुनकर वे अपने विमानपर ही सुध-बुध खो बैठती हैं मूर्छित हो जाती हैं।

यह कैसे मालूम हुआ सखी ?

सुनो तो, जब उनके हृदय में श्रीकृष्णसे मिलनेकी तीव्र आकाङ्क्षा जग जाती है, तब वे अपना धीरज खो बैठती हैं, बेहोश हो जाती हैं। उन्हें इस बातका भी पता नहीं चलता कि उनकी चोटियोंमें गुंथे हुए फूल पृथ्वीपर गिर रहे हैं ।

यहाँतक कि उन्हें अपनी साड़ीका भी पता नहीं रहता, वह कमरसे खिसककर जमीनपर गिर जाती है ॥ ६॥

अरी सखी ! तुम देवियोंकी बात क्या कह रही हो, इन गौओंको नहीं देखती ? जब हमारे कृष्ण-प्यारे अपने मुखसे बाँसुरीमें स्वर भरते हैं और गौएँ उनका मधुर संगीत सुनती हैं, तब ये अपने दोनों कानोंके दोने सम्हाल लेती हैं-खड़े कर लेती हैं और मानो उनसे अमृत पी रही हो, इस प्रकार उस संगीतका रस लेने लगती हैं !

ऐसा क्यों होता है सखी ? 

अपने नेत्रोंके द्वारसे श्यामसुन्दरको हृदयमें ले जाकर वे उन्हें वहीं विराजमान कर देती हैं और मनही-मन उनका आलिङ्गन करती हैं।

देखती नहीं हो, उनके नेत्रोंसे आनन्दके आँसू छलकने लगते हैं ! और उनके बछड़े, बछड़ोंकी तो दशा ही निराली हो जाती है ।

यद्यपि गायोंके थनोंसे अपने-आप दूध झरता रहता है, वे जब दूध पीते-पीते अचानक ही वंशीध्वनि सुनते हैं, तब मुँहमें लिया हुआ दूधका छूट न उगल पाते हैं और न निगल पाते हैं ।

उनके हृदयमें भी होता है भगवान्का संस्पर्श और नेत्रोंमें छलकते होते हैं आनन्दके आँसू । वे ज्यों-के-त्यों ठिठके रह जाते हैं ॥ ७ ॥

अरी सखी ! गौएँ और बछड़े तो हमारे घरकी वस्तु हैं। उनकी बात तो जाने ही दो । वृन्दावनके पक्षियोंको तुम नहीं देखती हो ? उन्हें पक्षी कहना ही भूल है ! सच पूछो तो उनमेंसे अधिकांश बड़े-बड़े ऋषि-मुनि हैं ! वे वृन्दावनके सुन्दर-सुन्दर वृक्षोंकी नयी और मनोहर कोंपलोंवाली डालियोंपर चुपचाप बैठ जाते हैं और आँखें बंद नहीं करते, निर्निमेष नयनोंसे श्रीकृष्णकी रूप-माधुरी तथा प्यारभरी चितवन देख-देखकर निहाल होते रहते हैं तथा कानोंसे अन्य सब प्रकारके शब्दोंको छोड़कर केवल उन्हींकी मोहनी वाणी और वंशीका त्रिभुवनमोहन संगीत सुनते रहते हैं। मेरी प्यारी सखी ! उनका जीवन कितना धन्य है ! ॥ ८ ॥

_अरी सखी ! देवता, गौओं और पक्षियोंकी बात क्यों करती हो ? वे तो चेतन है । इन जड नदियोंको नहीं देखती ? इनमें जो भँवर दीख रहे हैं, उनसे इनके हृदयमें श्यामसुन्दरसे मिलनेकी तीव्र आकाङ्क्षाका पता चलता है ? उसके वेगसे ही तो इनका प्रवाह रुक गया है ।

इन्होंने भी प्रेम स्वरूप श्रीकृष्णकी वंशीध्वनि सुन ली है । देखो, देखो ! ये अपनी तरङ्गोंके हाथोंसे उनके चरण पकड़कर कमलके फूलोंका उपहार चढ़ा रही हैं और उनका आलिङ्गन कर रही हैं, मानो उनके चरणोंपर अपना हृदय ही निछावर कर रही हैं ॥ ९ ॥

अरी सखी ! ये नदियाँ तो हमारी पृथ्वीकी, हमारे वृन्दावनकी वस्तुएँ हैं। तनिक इन बादलोंको भी देखो! जब वे देखते हैं कि व्रजराजकुमार श्रीकृष्ण और बलरामजी ग्वालबालोंके साथ धूपमें गौएँ चरा रहे हैं और साथ-साथ बाँसुरी भी बजाते जा रहे हैं, तब उनके हृदयमें प्रेम उमड़ आता है ।

वे उनके ऊपर मँडराने लगते हैं और वे श्यामघन अपने सखा घनश्यामके ऊपर अपने शरीरको ही छाता बनाकर तान देते हैं। इतना ही नहीं, सखी ! वे जब उनपर नन्हीनन्ही फुहियोंकी वर्षा करने लगते हैं, तब ऐसा जान पड़ता है कि वे उनके ऊपर सुन्दर-सुन्दर श्वेत कुसुम चढ़ा रहे हैं। नहीं सखी, उनके बहाने वे तो अपना जीवन ही निछावर कर देते हैं ! ॥ १० ॥

अरी भटू ! हम तो वृन्दावनकी इन भीलनियोंको ही ____धन्य और कृतकृत्य मानती हैं।

ऐसा क्यों सखी ?

इसलिये कि इनके हृदयमें बड़ा प्रेम है । जब ये हमारे कृष्ण-प्यारेको देखती हैं, तब इनके हृदयमें भी उनसे मिलनेकी तीव्र आकाङ्क्षा जाग उठती है। इनके हृदयमें भी प्रेमकी व्याधि लग जाती है।

 उस समय ये क्या उपाय करती हैं, यह भी सुन लो। हमारे प्रियतमकी प्रेयसी गोपियाँ अपने वक्षःस्थलोंपर जो केसर लगाती हैं, वह श्यामसुन्दरके चरणोंमें लगी होती है और वे जब वृन्दावनके घास-पातपर चलते हैं, तब उनमें भी लग जाती है।

ये सौभाग्यवती भीलनियाँ उन्हें उन तिनकोंपरसे छुड़ाकर अपने स्तनों और मुखोंपर मल लेती हैं
और इस प्रकार अपने हृदयकी प्रेम-पीड़ा शान्त करती हैं ॥ ११ ॥

अरी गोपियो ! यह गिरिराज गोवर्द्धन तो भगवान्के भक्तोंमें बहुत ही श्रेष्ठ है। धन्य हैं इसके भाग्य ! देखती नहीं हो, हमारे प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण और नयनाभिराम बलरामके चरणकमलोंका स्पर्श प्राप्त करके यह कितना आनन्दित रहता है।

इसके भाग्यकी सराहना कौन करे ? यह तो उन दोनोंका-ग्वालबालों और गौओंका बड़ा ही सत्कार करता है ।

स्नान-पानके लिये झरनोंका जल देता है, गौओंके लिये सुन्दर हरी-हरी घास प्रस्तुत करता है ।

विश्राम करनेके लिये कन्दराएँ और खानेके लिये कन्द-मूल-फल देता है । वास्तवमें यह धन्य है ! ॥१२॥

अरी सखी इन सांवरे गोरे किशोरों की तो गति ही निराली है जब वे सिर पर नोवना ( दुहते समय गाय के पैर बांधने की रस्सी ) लपेट कर और कंधों पर फंदा ( भागने वाली गायों को पकड़ने की रस्सी ) रख कर गायों को एक वन से दूसरे वन में आकर ले जाते हैं |

साथ में ग्वाल बाल भी होते हैं और मधुर मधुर संगीत गाते हुए बांसुरी की तान छेड़ते हैं उस समय मनुष्यों की तो बात ही क्या,, अन्य शरीर धारियों में भी चलने वाले चेतन पशु पक्षी और जल नदी आदि तो स्थिर हो जाते हैं तथा अचल वृक्षों को भी रोमांच हो जाता है |

गोपियों द्वारा गाया हुआ वेणु गीत

जादू भरी वंशी का और क्या चमत्कार सुनाऊँ |


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