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परब्रह्म परमात्मा और उनकी प्राप्तिके साधन Parmatma prapti ke sadhan

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परब्रह्म परमात्मा और उनकी प्राप्तिके साधन Parmatma prapti ke sadhan

परब्रह्म परमात्मा और उनकी प्राप्तिके साधन  Parmatma prapti ke sadhan

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    परब्रह्म परमात्मा और उनकी प्राप्तिके साधन  
Parmatma prapti ke sadhan 
परब्रह्म परमात्मा और उनकी प्राप्तिके साधन  Parmatma prapti ke sadhan

  • जानें -परब्रह्म परमात्मा और उनके प्राप्ति के साधन को

 मुंडकोपनिषद से कुछ ज्ञान की और आध्यात्म की चर्चा-
अविद्यायां बहुधा वर्तमाना
वयं कृतार्था इत्यभिमन्यन्ति बालाः ।
यत्कर्मिणो न प्रवेदयन्ति रागात्
तेनातुराः क्षीणलोकाश्च्यवन्ते ॥
(मुण्डक० १ । २ । ९)

वे मूर्ख लोग उपासनारहित सकाम कोंमें बहुत प्रकारसे बर्तते हुए हम कृतार्थ हो गये ऐसा अभिमान कर लेते हैं।

क्योंकि वे सकाम कर्म करनेवाले लोग विषयोंकी आसक्तिके कारण कल्याणके मार्गको नहीं जान पाते, इस कारण बारंबार दुःखसे आतुर हो पुण्योपार्जित लोकोंसे हटाये जाकर नीचे गिर जाते हैं।

तपःश्रद्धे ये पवसन्त्यरण्ये
शान्ता विद्वांसो भैक्ष्यचर्या चरन्तः।
सूर्यद्वारेण ते विरजाः प्रयान्ति
यत्रामृतः स पुरुषो ह्यव्ययात्मा ॥
(मुण्डक. १।२।११)

किंतु जो वनमें रहनेवाले, शान्त स्वभाववाले तथा भिक्षाके लिये विचरनेवाले विद्वान् संयमरूप तप तथा श्रद्धाका सेवन करते हैं, वे रजोगुणरहित सूर्यके मार्गसे वहाँ चले जाते है, जहाँपर वह जन्म-मृत्युसे रहित नित्य, अविनाशी परम पुरुष रहता है।

सत्यमेव जयति नानृतं
सत्येन पन्था विततो देवयानः ।  
येनाक्रमन्त्यषयो ह्याप्तकामा । 
यत्र तत्सत्यस्य परमं निधानम् ॥
(मुण्डक० ३ । १ । ६) 

सत्य ही विजयी होता है, झूठ नहीं; क्योंकि वह देवयान नामक मार्ग सत्यसे परिपूर्ण है, जिससे पूर्णकाम ऋषिलोग वहाँ गमन करते हैं, जहाँ वह सत्यस्वरूप परब्रह्म परमात्माका उत्कृष्ट धाम है।

न चक्षुषा गृह्यते नापि वाचा
नान्यैर्देवैस्तपसा कर्मणा वा। 
ज्ञानप्रसादेन विशुद्धसत्व
स्ततस्तु तं पश्यते निष्कलं ध्यायमानः॥
(मुण्डक० ३ । १। ८) 

वह परमात्मा न तो नेत्रोंसे, न वाणीसे और न दूसरी इन्द्रियोंसे ही ग्रहण करनेमें आता है । तथा तपसे अथवा कोंसे भी वह ग्रहण नहीं किया जा सकता।

उस अवयवरहित परमात्माको तो विशुद्ध अन्तःकरणवाला साधक उस विशुद्ध अन्तःकरणसे निरन्तर उसका ध्यान करता हुआ ही ज्ञानकी निर्मलतासे देख पाता है।।

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो
न मेधया न बहुना श्रुतेन । 
यमेवैष वृणुते तेन लभ्य
स्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम् ॥
(मुण्डक० ३ । २ । ३) 

यह परब्रह्म परमात्मा न तो प्रवचनसे, न बुद्धिसे और न बहुत सुननेसे ही प्राप्त हो सकता है । यह जिसको स्वीकार कर लेता है, उसके द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।

क्योंकि यह परमात्मा उसके लिये अपने यथार्थ स्वरूपको प्रकट कर देता है।

नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो
न च प्रमादात्तपसो वाप्यलिङ्गात् । 
एतैरुपायैर्यतते यस्तु विद्वां
स्तस्यैष आत्मा विशते ब्रह्मधाम ॥
(मुण्डक० ३ । २ । ४)

यह परमात्मा बलहीन मनुष्यद्वारा नहीं प्राप्त किया जा सकता तथा प्रमादसे अथवा लक्षणरहित तपसे भी नहीं प्राप्त किया जा सकता|

किंतु जो बुद्धिमान् साधक इन उपायोंके द्वारा प्रयत्न करता है, उसका यह आत्मा ब्रह्मधाममें प्रविष्ट हो जाता है।

अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः
स्वयं धीराः पण्डितं मन्यमानाः । 
जन्यमानाः परियन्ति मूढा 
अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः ॥
(मुण्डक० १ । २ । ८) 

अविद्याके भीतर स्थित होकर भी अपने-आप बुद्धिमान् बननेवाले तथा अपनेको विद्वान् माननेवाले वे मूर्खलोग बारबार आघात (कष्ट) सहन करते हुए (ठीक वैसे ही) भटकते रहते हैं जैसे अन्धेके द्वारा चलाये जानेवाले अंधे (अपने लक्ष्यतक न पहुँचकर बीचमें ही इधर-उधर भटकते और कष्ट भोगते रहते हैं। )

धनुर्गृहीत्वोपनिषदं महास्त्रं
शरं ह्युपासानिशितं सन्धयीत । 
आयम्य तद्भावगतेन चेतसा 
लक्ष्यं तदेवाक्षरं सोम्य विद्धि ॥
(मुण्डक० २ । २ । ३) 

उपनिषदें वर्णित प्रणव-स्वरूप महान् अस्त्र धनुषको लेकर ( उसपर ) निश्चय ही उपासनाद्वारा तीक्ष्ण किया  हुआ बाण चढ़ाये । (फिर ) भावपूर्ण चित्तके द्वारा उस बाणको खींचकर हे प्रिय ! उस परम अक्षर पुरुषोत्तमको ही लक्ष्य मानकर बेधे ।

प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते । अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ॥
(मुण्डक० २ । २ । ४) 

(यहाँ) ओंकार ही धनुष है, आत्मा ही बाण है,  (और ) परब्रह्म परमेश्वर ही उसका लक्ष्य कहा जाता है।

(वह) प्रमादरहित मनुष्यद्वारा ही बींधा जाने योग्य है। (अतः ) उसे बेधकर बाणकी भाँति ( उस लक्ष्यमें ) तन्मय हो जाना चाहिये।

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः । 
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ॥
(मुण्डक० २ । २ । ८ ) 

कार्य-कारणस्वरूप उस परात्पर पुरुषोत्तमको तत्त्वसे जान लेनेपर इस ( जीवात्मा )के हृदयकी गाँठ खुल जाती है, सम्पूर्ण संशय कट जाते हैं और समस्त शुभाशुभ कर्म - नष्ट हो जाते हैं।

न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं
नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः । 
तमेव भान्तमनुभाति सर्व 
तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥
(मुण्डक० २ । २ । १०) 

वहाँ न (तो) सूर्य प्रकाशित होता है न चन्द्रमा और तारागण ही ( तथा ) न ये बिजलियाँ ही ( वहाँ) कौंधती हैं; फिर इस अग्निके लिये तो कहना ही क्या है।

(क्योंकि) उसके प्रकाशित होनेपर ही ( उसीके प्रकाशसे ) सब प्रकाशित होते हैं, उसीके प्रकाशसे यह सम्पूर्ण जगत् प्रकाशित होता है।

ब्रह्मैवेदममृतं पुरस्ता
ब्रह्म पश्चाद्ब्रह्म दक्षिणतश्चोत्तरेण । 
अधश्वोवं च प्रसृतं ब्रह्मैवेदं 
विश्वमिदं वरिष्ठम् ॥
(मुण्डक० २।२।११) 

यह अमृतस्वरूप परब्रह्म ही सामने है। ब्रह्म ही पीछे है, ब्रह्म ही दायों ओर तथा बायीं ओर, नीचेकी ओर तथा ऊपरकी ओर भी फैला हुआ है यह जो सम्पूर्ण जगत् है, यह सर्वश्रेष्ठ ब्रह्म ही है।

 द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया
समानं वृक्षं परिषस्वजाते । 
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्य
नश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ॥
(मुण्डक० ३ । १ । १)

एक साथ रहनेवाले (तथा) परस्पर सखाभाव रखने वाले दो पक्षी (जीवात्मा और परमात्मा) एक ही वृक्ष (शरीर)का आश्रय लेकर रहते हैं, उन दोनोंमेंसे एक तो उस वृक्षके कर्मरूप फलोंका स्वाद ले-लेकर उपभोग करता है (किंतु ) दूसरा न खाता हुआ केवल देखता रहता है ।

समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नो
उनीशया शोचति मुह्यमानः । 
जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीश
मस्य महिमानमिति वीतशोकः ॥
 (मुण्डक० ३।१।२) 

पूर्वोक्त शरीररूपी समान वृक्षपर ( रहनेवाला) जीवात्मा (शरीरकी गहरी आसक्तिमें) डूबा हुआ है, असमर्थतारूप टीनताका अनुभव करता हुआ मोहित होकर शोक करता रहता है।

जब कभी (भगवान्की अहैतुकी दयासे भक्तोंद्वारा नित्य ) सेवित (तथा) अपनेसे भिन्न परमेश्वरको (और) उनकी महिमाको यह प्रत्यक्ष कर लेता है, तब सर्वथा शोकसे रहित हो जाता है।

सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष आत्मा
सम्यग्ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम् । 
अन्तःशरीरे ज्योतिर्मयो हि शुभ्रो 
यं पश्यन्ति यतयः क्षीणदोषाः ॥
(मुण्डक० ३।१।५) 

यह शरीरके भीतर ही (हृदयमें विराजमान ) प्रकाशस्वरूप (और) परम विशुद्ध परमात्मा निस्संदेह सत्य-भाषण, तप (और) ब्रह्मचर्यपूर्वक यथार्थ ज्ञानसे ही सदा प्राप्त होनेवाला है |

जिसे सब प्रकारके दोषोंसे रहित हुए यत्नशील साधक ही देख पाते हैं।

बृहच्च तद्दिव्यमचिन्त्यरूपं
सूक्ष्माञ्च तत् सूक्ष्मतरं विभाति । 
दूरात् सुदूरे तदिहान्तिके च 
पश्यत्स्वि हैव निहितं गुहायाम् ॥
(मुण्डक०३।१।७)

वह परब्रह्म महान् दिव्य और अचिन्त्यस्वरूप है तथा वह सूक्ष्मसे भी अत्यन्त सूक्ष्मरूपमें प्रकाशित होता है।

वह दूरसे भी अत्यन्त दूर है और इस शरीरमें रहकर अति समीप भी है, यहाँ देखनेवालोंके भीतर ही उनकी हृदयरूपी गुफामें स्थित है।

यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रे
ऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय । 
तथा विद्वान्नामरूपाद्विमुक्तः 
परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥
(मुण्डक० ३ । २ । ८) 

जिस प्रकार बहती हुई नदियाँ नाम-रूपको छोड़कर समुद्रमें विलीन हो जाती हैं |

वैसे ही ज्ञानी महात्मा नाम-रूपसे रहित होकर उत्तम-से-उत्तम दिव्य परमपुरुष परमात्माको प्राप्त हो जाता है।

स यो ह वै तत्परमं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति नास्याब्रह्मवित् कुले भवति । 
तरति शोकं तरति पाप्मानं गुहाग्रन्थिभ्यो विमुक्तोऽमृतो भवति ॥ 
(मुण्डक० ३ । २ । ९)

निश्चय ही जो कोई भी उस परब्रह्म परमात्माको जान लेता है, वह महात्मा ब्रह्म ही हो जाता है। उसके कुलमें ब्रह्मको न जाननेवाला नहीं होता।

 वह शोकसे पार हो जाता है, पाप-समुदायसे तर जाता है, हृदयकी गाँठोंसे सर्वथा छूटकर अमर हो जाता है।

यस्यान्तः सर्वमेवेदमच्युतस्याव्ययात्मनः । तमाराधय गोविन्दं स्थानमत्र्यं यदीच्छसि ॥
(विष्णुपुराण १ । ११ । ४५) 

यदि तू श्रेष्ठ स्थानका इच्छुक है तो जिन अविनाशी अच्युतमें यह सम्पूर्ण जगत् ओत-प्रोत है, उन गोविन्दकी ही आराधना कर।

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