भक्तमालमें वर्णित भगवद्भक्तोंका पावन चरित- श्रीरामरायजी/bhaktmal katha hindi lyrics

 भक्तमालमें वर्णित भगवद्भक्तोंका पावन चरित

भक्तमालमें वर्णित भगवद्भक्तोंका पावन चरित- श्रीरामरायजी/bhaktmal katha hindi lyrics

श्रीरामरायजी-

भक्ति ग्यान बैराग जोग अंतर गति पाग्यो। 

काम क्रोध मद लोभ मोह मतसर सब त्याग्यो। 

कथा कीरतन मगन सदा आनँद रस भूल्यो।

संत निरखि मन मुदित उदित रबि पंकज फूल्यो। 

बैर भाव जिन द्रोह किय तासु पाग खसि भ्वै परी। 

बिप्र सारसुत घर जनम रामराय हरि रति करी ॥१९७॥

सारस्वत ब्राह्मणवंशमें जन्म लेकर श्रीरामरायजीने भगवान्में प्रेम किया। आपकी चित्तवृत्ति ज्ञान, वैराग्य और भक्तियोगमें सर्वदा पगी रहती थी। 

काम, क्रोध, अहंकार, लोभ, मोह और ईर्ष्या आदि मायिक विकारोंको आपने सर्वथा छोड़ दिया था। आप सर्वदा भगवत्कथा-कीर्तनमें मग्न होकर इसके आनन्दमय अनुभवसे झूमते रहते थे। 

सन्तोंको देखकर आपका मन उसी प्रकार खिल जाता था, जैसे सूर्यको देखकर कमलका पुष्प। जिन दुष्टोंने आपसे द्वेष किया, आपको नीचा दिखाना चाहा, उन्हें स्वयं ही नीचा देखना पड़ा ॥ १९७ ॥

श्रीरामरायजीके विषयमें विशेष विवरण इस प्रकार है-

श्रीरामरायप्रभुका जन्म रावी नदीके तटपर बसे लाहौर (पंजाब)-में वि० सं० १५४० वैसाख शुक्ल ११ को मध्याह्नमें हुआ। आपके पिता श्रीगुरुगोपालजी और माता श्रीयशोमतिजी थीं। 

परम्परागत रूपसे घरमें विराजमान श्रीगीतगोविन्दके कर्ता श्रीजयदेवजीके ठाकुर श्रीराधामाधवजीने श्रीगुरुगोपालजीको स्वप्नादेश दिया कि मेरा चरणामृत अपनी धर्मपत्नीको पिलाओ, उससे एक महान् चमत्कारी भक्तपुत्र उत्पन्न होगा। 

पादोदकपान करते ही यशोमतिजीको ऐसा अनुभव हुआ कि किसी शक्तिविशेषने मेरे उदरमें प्रवेशकर मुझे कृतार्थ किया। किसीके मतसे श्रीरामेश्वरम्की यात्रामें वहीं जन्म हुआ, इसलिये इनके रामेश्वर, रामराय, रामदास और रामगोपाल आदि नाम पड़ गये। 

ग्यारह वर्षकी अवस्थामें यज्ञोपवीत-संस्कार हुआ। पिताने इन्हें गायत्रीके साथ श्रीराधागोपाल मन्त्र दिया। जो यमुनापुलिन धीरसमीर वृन्दावनमें श्रीजीके द्वारा श्रीजयदेवजीको प्राप्त हुआ था। 

श्रीरामरायके प्राकट्यके १० वर्ष बाद श्रीचन्द्रगोपालजीका जन्म हुआ। सब लोग इन्हें चित्रासखीका अवतार मानते थे। 

श्रीरामरायजीने वि० सं० १५५२ बसन्त पंचमीके दिन श्रीजयदेवजीकी जन्म-जयन्तीके उपलक्ष्यमें बिना सामग्री मँगवाये एक हजार ब्राह्मणोंको भोजन कराया, इससे आपकी महिमा सर्वत्र विख्यात हो गयी। 

ठाकुर श्रीराधामाधवजीने आज्ञा दी कि तुम वृन्दावन जाओ, उसके बाद मैं चन्द्रगोपालके साथ आऊँगा। आदेश पाकर योगबलसे आप हरिद्वार पहुँच गये। वहाँ नानाके बड़े भ्राता श्रीआसुधीरजी मिले।

उन्हें भी वृन्दावन ले आये। मार्गमें उपब्रज (अलीगढ़) में प्रसादी नामके ब्राह्मण सन्तसेवा करते थे। यहाँ विश्राम किया। उनकी दीनता देखकर आपने अपनी मुद्रिका उतारकर दे दिया और आशीर्वाद कि खूब लक्ष्मीसे सम्पन्न हो जाओ और श्रीराधामाधवका भजन करो। 

कालान्तरमें श्रीसे सम्पन्न होनी श्रीराधामाधवकी सेवापूजा करने लगे। श्रीआसुधीरजीको सम्पूर्ण ब्रजयात्रा करवायी। ब्रजवासियोंकी। ब्राह्मणोंकी खूब सेवा करते, इससे इन्हें सब लोग 'प्रभु' कहने लगे। _एक दिन श्रीरामरायजीने वृन्दावनमें वास करनेकी इच्छा प्रगट की। लोगोंने समझाया कि यहाँ हिंसक जानवर रहते हैं।

 लेकिन एक दिन सभीको सोते हुए छोड़कर आप वृन्दावन पहुँच गये। यमुनापुलिन धीर समीरमें आपको श्रीराधामाधवजीके दिव्य दर्शन हुए। 

श्रीठाकुरजीने आदेश दिया कि पहले तीर्थाटन करो तब यहाँ वास करना। तीर्थाटन करते हुए आप काशी पहुँचे। विद्वानोंने प्रभावित होकर आपकी शोभायात्रा निकाली। 

उसमें श्रीमाधवेन्द्रपुरी, राजेश्वरतीर्थ, प्रकाशानन्द सरस्वती, श्रीबल्लभाचार्य, श्रीगोकुलानन्द, विद्यासागर, गोविन्द, कवि रंगनाथ एवं विश्वनाथ आदि महापुरुष उपस्थित थे। ईर्ष्यावश जिन्होंने शास्त्रार्थ किया. उन्हें पराजित करके भक्तिकी स्थापना की। 

हजारों लोगोंको प्रसाद पवाकर सन्तुष्ट किया। श्रीनित्यानन्द महाप्रभुने प्रसन्न होकर इन्हें अपनी ओर आकर्षित किया। श्रीमाधवेन्द्रपुरीजीने श्रीरामरायजीको बताया कि ये संकर्षणभगवान् हैं, इनसे दीक्षा ले लो। गुरुत्वको स्वीकार करो। आचार्य होकर भी इन्होंने उनके गुरुत्वको स्वीकार किया। 

आपके उत्कृष्ट दैन्यको देखकर श्रीबल्लभाचार्यजी भी बहुत सन्तुष्ट हुए। इसके पश्चात् श्रीरामरायजी श्रीनित्यानन्दजीके साथ नवद्वीप पधारे और श्रीचैतन्य महाप्रभुजीका दर्शन किया। उन्हें अष्टपदी सुनाया। 

प्रसन्न होकर श्रीचैतन्यमहाप्रभुजीने कहा-'आप साक्षात् रामभद्र हैं।' मैं श्रीवृन्दावनमें आकर आपसे मिलूँगा। अपने साथ भूगर्भ और लोकनाथको ले जाओ। आप श्रीजगन्नाथभगवान्का दर्शन करते हुए वृन्दावन आये। 

श्रीमाधवेन्द्रपुरीजीने गोवर्धनमें आकर वि० सं० १५६० में श्रीनाथजीको प्रकट किया। श्रीनाथजीकी आज्ञा पाकर श्रीमाधवेन्द्रपुरीजी चन्दन-कपूर लेनेके लिये उड़ीसा चले तो श्रीरामरायजीको श्रीनाथजीकी सेवा सौंप गये। 

आप अनेक उत्सव करने लगे। कुछ दिनों बाद श्रीरामरायजी दो बंगाली वैष्णवोंके द्वारा श्रीनाथजीकी सेवा कराने लगे। इसके बाद आप जगन्नाथपुरी चले गये। बंगाली वैष्णव स्वतन्त्र रूपसे सेवा करने लगे। जगन्नाथपुरीमें लाहौरके भक्तोंसे भेंट हुई तो उन्हें वृन्दावन आदिका दर्शन कराकर लाहौर विदा कर दिया। 

इधर पुत्रके वियोगमें श्रीगुरुगोपाल और यशोमतिजीने शरीर त्यागकर परमधामगमन किया। यह जानकर आपने चन्द्रगोपालको स्वप्नादेश दिया। वे श्रीराधामाधवको लेकर पत्नीसहित वृन्दावन आ गये और वंशीवट स्थानमें ठहरे। आप श्रीराधामाधवजीके दर्शन करके विभोर हो गये। 

इन्हें छातीसे लगाकर श्रीठाकुरजीने आज्ञा दी कि श्रीवृन्दावनरसकी वर्षा करो, तुम्हारी वाणी 'आदिवाणी' कहलायेगी।

श्रीगौरांग महाप्रभु वृन्दावन पधारे और अक्रूरघाटपर ठहरे। श्रीरामरायजी नित्य गीतगोविन्द सुनाकर उन्ह प्रसन्न करते। महाप्रभुजीने गोपालजीके दर्शनोंकी इच्छा की, लेकिन श्रीगिरिराजजीके ऊपर पैर नहीं रखना चाहते थे। 

उसी समय अकस्मात् यवन आतंकवश वैष्णव लोग श्रीनाथजीको गाठौली ले आये। तब श्रीमहाप्रभुजीने दर्शन किया। इस प्रकार व्रजमें महाप्रभुजीका संगसुख आपको प्राप्त हुआ। श्रीगोपालजार प्राकट्यका समाचार पाकर श्रीमबल्लभाचार्य महाप्रभु यहाँ पधारे। 

आपसे पूर्व परिचय था, अतः आप पास ठहरे। आपने सभी व्रजवासियोंकी सम्मतिसे श्रीनाथजीकी सेवा श्रीबल्लभाचार्यजीको सौंप दी। इन् मन्दिर बनवाया और सेवा तथा भोगरागकी विशेष व्यवस्था की। 

आपने बंगाली वैष्णवोंको सेवास हटाया। उस विवादमें आपने बल्लभकुलका ही पक्ष लिया, अत: बंगाली वैष्णव आपसे असन्तुष्ट हुए। 

वैष्णव वार्तामें लिखा है कि इसी कारणसे श्रीरामरायजीकी चर्चा गौड़ीय साहित्यमें बहुत कम श्रीजीवगोस्वामीजीने प्रपंचसे दूर होनेके कारण श्रीरामरायजीकी 'सन्दर्भ' के मंगलाचरणमें आपकी वंदना की है।    
यथा-'वन्दे श्रीपरमानन्द भट्टाचार्य सुखालयम्। 
रामरायं तथा वाणीविलासं चोपदेशकम्॥ 
एक बार श्रीरामरायजी गोकुल दर्शन करने गये तो श्रीगोकुलनाथजीका दर्शन करके फिर श्रीविट्ठलनाथजीसे है। उन्होंने आपको बहुत प्रशंसा की। प्रशंसा सुनकर आप बोले-अरबी घोड़ा यदि तुर्की चाल चलता तो उसकी लोग विशेष बड़ाई नहीं करते हैं, परंतु यदि खच्चर तुर्की चाल चले तो सभी देखने जाते * और बड़ाई करते हैं। 

ऐसे ही हंसकी हंसता यदि कौवेमें हो तो उसे बड़प्पन मिलता है। यह सुनकर गोसाईंजी बहुत प्रसन्न हुए। अन्तिम समयमें कहीं आना-जाना बन्द करके आप बन-विहार और वंशीवटमें हकर भजन-ध्यान करते रहे। 

उसी समय आपने ब्रह्मसूत्रपर गौरविनोदिनीवृत्ति लिखी। इनके छोटे भ्राता श्रीचन्द्रगोपालजीने वृत्तिके ऊपर भाष्य किया। श्रीरामरायजीके संस्कृतमें द्वादश ग्रन्थ हैं। आदिवाणी और गीतगोविन्दपर पदावली ये भाषाग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। 

इस प्रकार वि० सं० १५४० तक आपकी दिव्य जीवनलाला रही। आपके १२ प्रधान शिष्य थे। इनके नाम इस प्रकार हैं-(१) श्रीभगवानदासजी, (२) श्रीगरीबदासजा, (३) श्रीविष्णुदासजी, (४) श्रीयुगलदासजी, (५) गोस्वामी श्रीराधिकानाथजी, (६) श्रीकिशोरदासजी, (७) श्रीकेशवदासजी, (८) श्रीमनोहरदासजी, (९) श्रीलाखादासजी, (१०) श्रीमधुसूदनदासजी, (११) श्रीहरिदासजी पटेल, (१२) श्रीतीर्थरामजी जोशी।


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