भक्तमालमें वर्णित भगवद्भक्तोंका पावन चरित- श्रीभगवन्तमुदितजी/bhaktmal katha hindi pdf

 भक्तमालमें वर्णित भगवद्भक्तोंका पावन चरित

भक्तमालमें वर्णित भगवद्भक्तोंका पावन चरित- श्रीभगवन्तमुदितजी/bhaktmal katha hindi pdf

श्रीभगवन्तमुदितजी- 

कुंजबिहारी केलि सदा अभ्यंतर भासै। 

दंपति सहज सनेह प्रीति परमिति परकासै॥

अननि भजन रस रीति पुष्ट मारग करि देखी।

बिधि निषेध बल त्यागि पागि रति हृदय बिसेषी॥ 

माधव सुत संमत रसिक तिलक दाम धरि सेव लिय। 

भगवंत मुदित ऊदार जस रस रसना आस्वाद किय॥१९८॥

श्रीमाधवदासजीके सुपुत्र श्रीभगवन्तमुदितजीने रसिक भक्तोंसे समर्थित तुलसीकण्ठी और तिलक धारणकर अपने इष्टदेव श्रीराधाकृष्णकी नित्य-नियमसे सेवा की तथा उदार भगवान्के परमोदार सुयशका अपनी वाणीसे वर्णन करके उसके रसका आस्वादन किया। 

श्रीकुंजविहारिणी-कुंजविहारीकी नित्य-निकुंजलीला इनके हृदयमें सर्वदा प्रकाशित रहती थी। दम्पति श्रीराधाकृष्णका जो पारस्परिक सहज स्नेह और प्रीतिकी जो अन्तिम सीमा है, उससे आपका हृदय प्रकाशित था। 

अनन्य भावसे सेवा करनेकी जो रसमयी रीति है, उसीको आपने उत्तम-से-उत्तम मार्ग मानकर अपनाया, उसीपर चले। भक्तिसे भिन्न लौकिक-वैदिक विधि-निषेधोंका सहारा छोड़कर आपका हृदय विशेषकर श्रीराधाकृष्णके परमानुरागमें सराबोर रहता था॥ १९८॥

श्रीभगवन्तमुदितजीके विषयमें विशेष विवरण इस प्रकार है-

श्रीभगवन्तमुदितजी परमरसिक सन्त थे। आप आगराके सूबेदार नवाब शुजाउल्मुल्कके दीवान थे। कोई भी ब्राह्मण, गोसाईं, साधु या गृहस्थ ब्रजवासी जब आपके यहाँ पहुँच जाता तो आप अन्न, धन और वस्त्र आदि देकर उसे प्रसन्न करते थे; क्योंकि व्रजवासियोंके प्रेममें इनकी बुद्धि रम गयी थी। 

आपके गुरुदेवका नाम श्रीहरिदासजी था। ये श्रीवृन्दावनके ठाकुर श्रीगोविन्ददेवजी मन्दिरके अधिकारी थे। इन्होंने व्रजवासियोंके मुखसे श्रीभगवन्तमुदितजीकी बड़ी प्रशंसा सुनी तो इनके मनमें आया कि हम भी आगरा जाकर (शिष्य) भक्तकी भक्ति देखें।

श्रीभगवन्तमुदितजीने सुना कि श्रीगुरुदेव आ रहे हैं तो इन्हें इतनी प्रसन्नता हुई कि ये अपने अंगों में, नहीं समाये। ये अपनी स्त्रीसे बोले कि 'कहो, श्रीगुरु-चरणोंमें क्या भेंट देनी चाहिये? स्त्रीने कहा-'हमी एक-एक धोती पहन लें और शेष सब घर-द्वार, कोठार-भण्डार, चल-अचल सम्पत्ति श्रीगुरुदेवको समा दआर हम दोनों वृन्दावनमें चलकर भजन करें। 

स्त्रीकी ऐसी बात सुनकर श्रीभगवन्तमुदितजी उसपर बहुत प्रसन्न हुए और बोले--'सच्ची गुरु-भक्ति करना तो तुम ही जानती हो, यह तुम्हारी सम्मति हमको अत्यन्त प्रिय लगी । ऐसा  कहते हुए उनके नेत्रोंसे आँसू बहने लगे। 

गुरुदेव रात्रिमें बाहर द्वारपर बैठे सुन रहे थे । सर्वस्व-समर्पणकी  बात गोस्वामी श्रीहरिदासजीने सुन ली और उन्होंने जान लिया कि ये सर्वस्व-त्याग करके विरक्त बनना चाहते हैं, जिसका अभी योग नहीं है, अत: आप उसी समय बिना श्रीभगवन्तमुदितीसे मिले ही परिचित व्यक्तिको बताकर लौटकर श्रीवृन्दावनको चले आये और इनके प्रेम-भरे त्यागके प्रणपर बहुत ही सन्तुष्ट हुए।

भक्तमालके टीकाकार श्रीप्रियादासजीने अपने कवित्तोंमें इस घटनाका वर्णन इस प्रकार किया है-

सूजा के दीवान भगवन्त रसवन्त भए, वृन्दावन बासिन की सेवा ऐसी करी है। 

बिप्र के गुसाईं साधु कोऊ ब्रजवासी जाहु, देत बहु धन एक प्रीति मति हरी है। 

सुनी गुरुदेव, अधिकारी श्रीगोविन्द देव, नाम हरिदास 'जाय देखें' चित धरी है। 

जोग्यताई सीवां प्रभु दूध भात माँगि लियो कियौ उत्साह तऊ पेखें अरबरी है॥६२६॥ 

सुनी गुरु आवत, अमावत न किहूँ अंग रंग भरि तिया सों, यों कही कहा कीजियै?'। 

बोली घर बार पट सम्पति भण्डार सब भेंट करि दीजै, एक धोती धारि लीजियै॥ 

रीझे सुनि बानी, साँची भक्ति तैं ही जानी, मेरे अति मन मानी, कहि आँखें जल भीजिये। 

यही बात परी कान, श्रीगुसाईं लई जान, आये फिरि वृन्दावन, पन मति धीजियै॥६२७॥

श्रीभगवन्तमुदितजीको जब यह मालूम हुआ कि श्रीगुरुदेव आये और वापस चले गये तो आपका उत्साह नष्ट हो गया। हृदयमें अपार पश्चात्ताप हुआ। 

फिर आपने गुरुदेवके दर्शन करनेका विचार किया और नवाबसे आज्ञा माँगकर श्रीवृन्दावन आये। गुरुदेवके दर्शनकर सुखी हुए। बहुतसे लीला-पदोंकी रचना की। आपका 'रसिकअनन्य-भक्तमाल' ग्रन्थ प्रसिद्ध है। 

इस प्रकार आपने अनन्य-प्रेमका एकरस निर्वाह किया। गुरुदेवसे आज्ञा लेकर आगराको लौट गये। वहाँ किसी कारणवश कई व्रजवासी चोरोंने आपके घरमें ही चोरी कर ली, पर इससे आपने जरा भी मनमें दुःख न माना; क्योंकि आपका मन भगवान्की भक्तिमें सराबोर था और दृष्टिमें श्रीवृन्दावन-बिहारिणी-बिहारीजी समाये हुए थे। 

वास्तवमें आप बड़े ही भाग्यशाली और प्रेमी सन्त थे। संसारमें आपका भगवत्प्रेम प्रसिद्ध था। श्रीभगवन्तमुदितजीके पिता श्रीमाधवदासजी रसिक थे। आगे उनकी कथा सुनिये-

'श्रीमाधवदासजी बेसुध हैं, नाड़ी छूटनेवाली है, अब इनका अन्तिम समय आ गया है'- ऐसा जानकार लोग उन्हें पालकीमें बैठाकर आगरासे श्रीवृन्दावनधामको ले चले। 

जब आधी दूर आ गये, तक श्रीमाधवदासजीको होश हो आया। दुःखित होकर आपने लोगोंसे पूछा कि क्रूरो! तुम लोग मुझे कहा। जा रहे हो?' 

लोगोंने कहा-'आप जिस श्रीवृन्दावनधामका नित्य ध्यान किया करते हैं, वहीं ले चल रहे है।' यह सुनकर आपने कहा-'अभी लौटाओ, यह शरीर श्रीवृन्दावन जानेके योग्य कदापि नहीं है।   

इसे जब वहाँ जलाया जायगा, तब इसमेंसे बड़ी-भारी दुर्गन्ध निकलेगी, वह प्रिया-प्रियतमको अच्छी नहीं  लगेगी।' 

प्रिया-प्रियतमके पास जानेयोग्य जो होगा, वह अपने-आप उनके पास चला जायेगा। आप ऐसे  भावकी राशि थे। वापस जाकर आगरामें ही आपने शरीर छोड़ा।

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