गोकर्ण और धुंधुकारी की कथा -महात्म्य,भागवत प्रवचन रस-2 / bhagwat pravchan ras mahatnya katha in hindi

bhagwat katha hindi
[ महात्म्य कथा ]
गोकर्ण और धुंधुकारी की कथा
आगे श्रीसुतजी कहते है कि हे ऋषियों | आपने सना कि हरिद्वार के आनन्दवन में श्रीनारदजी द्वारा आयोजित भागवत कथा समारोह में भगवान भी सपरिवार उपस्थित हो गये। सभा लाग- मगल ध्वनि कर रहे हैं। सभी मंत्रमग्ध होकर सध-बध खो बैठे हैं। उस समय भगवान् वरदान दिया कि आज से भक्ति देवी एक रूप से भक्तों के हृदय में सदा वास करणाभागवत कथा सप्ताह की अद्भुत महिमा से चकित हैं कि वर्त्त, पापी मनुष्य, कीट, पतंग, पशु-पक्षी सभी पापमुक्त हो गये हैं तथा सबका चित्त शुद्ध हो गया है। अतः
ये मानवाः पापकृतस्तु, सर्वदा,
सदा दुराचाररता, विमार्गगाः ।
क्रोधाग्निदग्धाः कुटिलाश्च कामिनः
सप्ताहयज्ञेन कलौ पुनन्ति ते।।
श्रीमद्भा० ०४/११
अर्थात महापापी जैसे ब्रह्मघाती गोघाती. विश्वासघाती, मद्यसेवी, गुरूपत्नीगामी वे भी सप्ताहयश का पात्र हा सकते हैं। यानी श्री सनत्कुमारजी ने सप्ताह कथा की महिमा बताते हुए आगे कहा कि जो महापापा, कुलकलकी, क्रोधी, कुमार्गी, कुटिल तथा कामी हैं, उनका पापकर्म केवल सप्ताह भागवत कथा श्रवण करने से समाप्त हो जाता है। गोघाती, सुवर्ण चुरानेवाले, मदिरा पीनेवाले वगैरह सभी तरह के नीच कर्म करनेवाले व्यक्तियों अथवा अपने पापकर्म को करके मरकर प्रेत बना जीव भी सप्ताह श्रवण से उद्धार पा लेता है।
यह कथा सुनकर श्रीनारदजी ने कहा कि आज तक किसी ऐसे प्रेत का उद्धार हुआ है ?अगर उद्धार हुआ है तो उसका नाम क्या था। तब फिर श्री सनत्कुमारजी ने इस संबंध में एक प्राचीन इतिहास सुनाया और कहा कि हे नारदजी ! प्राचीन काल में तुंगभद्रा नदी के तट पर अवन्ती या उत्तम नामक एक नगर था। इस नगर में आत्मदेव नामक विद्वान् ब्राह्मण रहते थे। वे आर्थिक दृष्टि से भी सम्पन्न थे। उनकी पत्नी का नाम धुंधली था। आत्मदेव विद्वान्, चरित्रवान्, निगमशास्त्र के वेत्ता, दयालु एवं विनम्र ब्राह्मण थे। लेकिन उनकी पत्नी धुंधली क्रूर, ईर्ष्यालु, पति से बराबर झगड़ा करनेवाली, दुराग्रही थी। वह जो कहती, उसी की पुष्टि पति से कराती।
वह हमेशा तनाव की स्थिति में रहती तथा पति के साथ अपमानजनक व्यवहार करती। हम सभी के शरीर के अन्दर भी हमेशा आत्मा रूपी आत्मदेव एवं बुद्धिरूपी धुंधली वर्तमान हैं। यह धुंधुली बात न मानकर धुंधुली रूपी तर्क-वितर्क के द्वारा अपना ही कार्य इस शरीर से कराती है। धुंधुली भी अपने पति आत्मदेव से हर हालत में अपनी इच्छा के अनुसार ही कार्य कराती है। आत्मदेव सम्पन्न एवं विद्वान् होते हुए ब्राह्मणधर्म के अनुसार भिक्षाटन से ही जीवन चलाते थे। उनके पास सुख-सुविधा, समृद्धि, विद्वता, कुलीनता सब थी। लेकिन धुंधुली की कर्कशता उनके लिए भारी दुःख का कारण था और प्रतिफल यह की आत्मदेवजी को कोई संतान नहीं थी। पत्र नहीं होने से आत्मदेव दःखी रहते। उनको भारी चिंता सताती।
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वे बराबर सोचते-उनके धराधाम से जाने पर उनका उत्तराधिकारी कौन होगा ? पितरों को तर्पण कौन करेगा ? निःसन्तान होने के चलते लोग उनपर ताना कसते। इन समस्याओं से उत्पीड़ित होकर आत्मदेव एक दिन आत्महत्या के लिए चल पडे। वे वन में एक सरोवर के पास पहुंचे।
पानी पीकर वहीं आत्महत्या करने की बात सोचने लगे। तब तक उस सरोवर के पास संध्या वन्दन करने के लिए एक संन्यासी महाराज पहुँच गये। आत्मदेव उनके चरणों में गिरकर अपना दुखड़ा रोने लगे कि उनका दुःख दूर करें अन्यथा वे आत्महत्या कर लेंगे। संन्यासी महाराज ने उनके दुःख का कारण पूछा तो बोले कि उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान दें और नहीं तो वे उसी समय सरोवर में डूबकर आत्महत्या कर लेंगे। सन्यासी महाराज के सामने आत्मदेव एक समस्या के रूप में खड़े हो गये। इन्होने आत्मदेवजी को उपाय बताया कि आप गहस्थ आश्रम को छोडकर सन्यास ग्रहण कर ले। आत्मदेवजी ने निवेदन किया कि गृहस्थ आश्रम का सरस जीवन छोडकर सन्यास ग्रहण करना उनसे सम्भव नहीं। सन्यास आश्रम नीरस एवं उनके लिए कठिन है।
सन्यासी महाराज ने आत्मदेव का ललाट दखा और बताया कि अगले सात जन्मों तक आपको पुत्र रत्न पाने या कोई संतान पाने का योग नहीं है। लेकिन आत्मदेव फिर पत्र प्राप्ति के आशीर्वाद के लिए आग्रह करते रहे और अपनी आत्महत्या के हठ पर अड़ रहा सन्यासा महाराज ने कहा कि पत्र का योग नहीं होने पर साध-महात्माओं की आज्ञा को त्याग कर याद कसा का भी जो पत्र होता है, वह पिता के लिए दःख का कारण हो जाता है। ऐसे पुत्र स पिता का उधार नहा होता बल्कि कल का नाश हो जाता है। लेकिन सन्यासी महाराज के बार-बार समझान क बाद ना आमदव पत्र प्राप्ति के आग्रह से नहीं हटे। आत्मदेव ने कहा कि सन्यासी महाराज हमने सुना है कि
दाना पाणन ककणेन श्रोत्रम श्रतेनैव न कण्डलेन,
विभाति कायः करुणापराणाम परोपकारेण न चन्दनन्
परापकराय सताम् विभूतयः"
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फिर आगे आत्मदेवजी पुनः कहते हैं कि
पुत्रादिसुखहीनोऽयं सन्यासः शुष्क एव हि।
गृहस्थः सरसो लोकेपुत्रपौत्रसमन्वितः।।
श्रीमद्भा०मा० ४/३८ ।
अर्थात हे सन्यासीजी हमने सुना है कि हाथ की शोभा दान से है केवल कंगन पहनने से नही है। इसीप्रकार कान की शोभा भगवत कथा सुनने से है केवल कुण्डल से नही। इसीतरह शरीर की शोभा परोपकार, करुणा आदि से है केवल शरीर सुन्दरता से नही। अतः आप जैसे संत चंदन के समान संसार के परोपकार के लिए ही होते हैं।
वह आत्मदेव पुनः कहे हे महात्मन! पुत्र आदि का सुख से विहीन यह सन्यास नीरस है तथा गृहस्थ के पुत्र-पौत्र आदि से संपन्न जीवन सरस है। इस प्रकार आत्मदेव पुत्रैषणा के चलते दुराग्रह कर रहे थे एवं सन्यासी महाराज से हर हालत में पुत्र प्राप्ति का आशीष चाहते थे, अन्यथा सरोवर पर आत्महत्या की बात पर अड़े थे। सारी स्थिति जानते हुए भी भावी प्रबल समझकर सन्यासी महाराज ने आत्मदेव को एक आम का फल दिया और पत्नी को खिला देने को कहा। आत्मदेवजी ने उस फल को अपने घर लाया। उन्होंने अपनी पत्नी धुंधली को वह फल देते हुए कहा कि भगवान् का नाम लेकर फल खा ले, पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी।
धुंधली अपने मन में कुतर्क करने लगी। गर्भ धारण करने में तो बहुत कष्ट होगा, कहीं बच्चा पेट में टेढ़ा हो गया तो जान ही न चली जाय। यदि बच्चा हो जायेगा तो उसके पालन-पोषण का बोझ भी आ जाएगा। इससे तो अच्छा है कि वह वन्ध्या ही रहे और शारीरिक सुख भोगे। इसी बीच उसकी छोटी बहन आ गयी, जिसको पहले से ही ४-५ बच्चे थे और वह गर्भवती भी थी। धुंधली ने पति द्वारा संतान प्राप्ति हेतु मिले फल की बात अपनी छोटी बहन को बताया और अपने मन की बात बोली की वह गर्भवती नही होना चाहती। उसकी छोटी बहन ने कहा की मै स्वयं गर्भवती हूँ इसलिए हे धुंधली ! तुम फल खाने एवं गर्भवती होने का नाटक अपने पति से करो और घर में ही रहो
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और जब मुझे बच्चा हो जायगा तो अपना बच्चा तूझे लाकर के दे दूंगी। अपने यहाँ कह दूँगी कि मेरा बच्चा गर्भ में ही मर गया। फिर हे धुंधली बहन ! तुम अपने पति से यह कहना है कि मुझे दूध नहीं होता है, इसलिए बच्चे का दूध पिलाने के लिए मेरी छोटी बहन को बुला लें। बदले में आत्मदेवजी मेरे पति को कुछ धन दे देंगे। बच्चे को मैं तुम्हारे घर में ही रहकर पोषण कर दूंगी। इस प्रकार धुंधली ने अपनी बहन के साथ हुई मंत्रणा के अनुसार आत्मदेवजी से कह दिया कि उसने फल खा लिया है और वह गर्भवती हो गयी है। इधर संन्यासी महाराज से प्राप्त फल को धुंधली ने आत्मदेवजी की गाय को खिला दिया।
संन्यासी महाराज के आशीर्वादयुक्त फल खाकर गाय गर्भवती हो गयी। इधर सात माह में धुंधुली की बहन को बच्चा हआ जिसे उसने शीघ्र अपनी बहन के पास पहुंचा दिया तथा यह घटना आत्मदेवजी को कुछ भी मालूम नहीं थी। वे पुत्ररत्न पाकर आनन्दित हो गये। धुंधली ने अपनी बहन की मंत्रणा के अनुसार आत्मदेव से कहा कि मुझे बालक को पिलाने हेतु मेरे पास दूध नहीं है। बच्चे के पोषण के लिए उसकी छोटी बहन को बुला लें। यह बच्चे को अपना दूध पिला देगी। बदले में उसके पति को कुछ आर्थिक योगदान कर दिया करेंगे।
आत्मदेव ने अपने नवजात पुत्र के लिए धुंधली की सलाह के अनुसार उसकी छोटी बहन को बुला लिया। धुंधली की बहन बच्चे का पालन पोषण करने लगी। इधर तीन माह बाद आत्मदेव की गर्भवती गाय को भी संन्यासी महाराज का दिया आम का फल खाने से एक बच्चा हुआ, जिसका शरीर तो सुन्दर बालक का था, लेकिन कान गाय के समान थे। इस बच्चे का नाम रखा गया 'गोकर्ण'। उधर धंधली के नाटक से प्राप्त बच्चे का नाम 'धुंधकारी रखा गया। आलदर दोनों बच्चों का पालन-पोषण एवं शिक्षा-दीक्षा करने लगे। धंधकारी बाल्यकाल से ही दुष्ट स्वभाव का हा गया। वह अपने साथ खेलनेवाले बच्चों को धक्का देकर कुएँ में गिरा देता। सयाना हुआ तो शराबी एवं वेश्यागामी हो गया।
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सम्पत्ति का नाश करने लगा। गोकर्ण साधु स्वभाव के थे। वे विद्या अध्ययन एवं ज्ञान प्राप्ति की ओर उन्मुख हो गये। धुंधकारी ने पिता आत्मदेव की सारी अर्जित सम्पत्ति को शराब एवं वेश्या-गमन में नष्ट कर दिया और अन्ततोगत्वा एक दिन उसने धन नहीं रहने पर पिता आत्मदेव द्वारा छिपाकर रखी सम्पत्ति के लिए अपनी माँ को बहुत मारा-पीटा और छिपाकर रखे गहने, चांदी के वर्तन वगैरह बहुमूल्य वस्तुएँ उनसे छीन ली। आत्मदेव सम्पत्ति के नाश एवं पुत्र धुंधकारी के चांडाल कर्म के कारण विलख-विलख कर रोने लगे। इस प्रकार "
गोकर्णः पंडितो ज्ञानी धुन्धुकारी महाखलः" ।।
एक दिन धुन्धुकारी के कर्म से चिंतित वृद्ध आत्मदेव को रोते देख गोकर्ण ने उन्हें सांत्वना दी और समझाया कि पुत्र एवं सम्पत्ति के लिए रोना ठीक नहीं। सुख एवं दुःख आते-जाते रहते हैं। इसलिए बुद्धि सम रखनी चाहिए। हाड़, मांस, रक्त, मज्जा से बने इस शरीर के प्रति मोह नहीं करनी चाहिए। आप स्त्री-पुत्र का मोह छोड़कर वन में जाकर भगवत् भजन करें एवं श्री भागवत पुराण के दशम स्कन्ध का पाठ करें क्योंकि इस संसार को क्षण भंगुर समझकर प्रभु का भक्त बनकर भगवत् भजन कीजिऐ एवं दुष्टों का संग त्यागकर साधुपुरुष का संग कीजिये।
किसी के गुण-दोष की चिन्ता मत करें क्योंकि पुत्र का पहला धर्म है कि पिता की उचित आज्ञा का पालन, दूसरा पिता की मृत्यु के बाद श्राद्ध करना, न केवल ब्राह्मणों को बल्कि सभी जाति के लोगें को भूरि-भूरि भोजन यानी तबतक खिलाना जबतक खानेवाला अपने दोनों हाथों से पत्तल को छापकर भोजन करानेवाले को रोक न दे। और, तीसरा कार्य है- गया में पिंडदान एवं तर्पण कार्य करना परन्तु ये तीनों लाभ आत्मदेवजी को धुंधकारी से नहीं मिला। गोकर्णजी कहते हैं कि हे पिताजी- इस नश्वर शरीर के मोह को त्याग कर भक्ती करते हुये वैराग से रहकर साधु पुरुषों का संग करते हुये प्रभु को भजे।
देहेऽस्थिमांसरुधिरेऽभिमतिं त्यज त्वं,
जायासुतादिषु सदा ममतां विमुच।
पश्यानिशं जगदिदं क्षणभंगनिष्ठं,
वैराग्यरागरसिको भव भक्तिनिष्ठः ।।
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श्रीमद् भा० मा० ४/७६
धर्म भजस्व सततं त्यज लोकधर्मान्
सेवस्व साधुपुरुषाञ्जहि कामतृष्णाम।
अन्यस्य दोषगुणचिन्तनमाशु-मुक्तवा,
सेवाकथारसमहोनितरां पिब त्वं ।।
श्रीमद् भा० मा० ४/१०
अर्थात हे पिताजी यह शरीर जो हाड, मांस. रक्त मज्जा आदि से बने है इसके प्रति मोह को त्यागकर एवं स्त्री-पुत्र आदि के मोह को भी छोड़कर इस संसार को क्षणभंगर देखते जानते हुए वैराग्य को प्राप्त कर भगवान की भक्ति में लग जायें। पुनः संसारीक व्यहारों को त्यागकर निरन्तर धर्म को करते हुए कामवासना को त्यागकर साधुपुरुषों का संग करे एवं दुसरे के गुण दोषों की चिंता को त्याग करते हुए निरन्तर भगवान की मधुरमयी भागवत कथा को आप पान करें।
इसप्रकार गोकर्ण जी ने उपरोक्त श्लोको के माध्यम से अपने पिताजी को समझाया तो वह आत्मदेवजी जंगल में जाकर भजन करके परमात्मा को प्रप्त किये। परंतु वही आत्मदेवजी ने प्रारम्भ में सन्यासी महाराज का आज्ञा नहीं माने तो संपती एवं यश को समाप्त करके भारी कष्ट को सहे। इसलिए इस कथा से उपदेश मिलता है कि साधु-महात्माओं के वचनों को, उनके उपदेशों को मानना चाहिए। अन्यथा आत्मदेव जैसा कष्ट उठाना पड़ता है। धुंधुकारी की मुक्ति के लिए गोकर्ण का प्रयास आगे उपरोक्त कथा से यह उपदेश मिलता है कि अपने सुकृत एवं कुकृत का कर्त्ता स्वयं मनुष्य ही होता है।
गोकर्ण का उपदेश है कि भागवतपुराण के दशम स्कन्ध का पाठ किया जाए तो आत्मदेव जैसा आज भी मुक्ती मिलती है। अतः भगवत भक्तो को शास्त्रों की कथाओं को सुनकर अगली पीढ़ी हेतु उचित-अनुचित का विचार कर किसी कार्य का संकल्प और विकल्प करना चाहिए। ऋषियों ने "जीवेम शरदः शतम्", "पश्येम शरदः शत्म' का उद्घोष किया है। सौ वर्ष जीयें, सौ वर्ष देखें। लेकिन संसर्ग दोष, पर्यावरण दोष से सौ वर्ष जीने एवं सौ वर्ष तक देखने की कामना पूर्ण नहीं होती।
आयु सौ वर्ष तक नहीं पहुँच पाती। खेती, व्यापार नौकरी, अध्ययन-अध्यापन करते हुए भगवान् का भजन करना चाहिए। नारायण कवच, गजेन्द्रमोक्ष पाठ या भागवतपुराण के दशम स्कन्ध का पाठ अवश्य करें। अंग, बंग, कलिंग तथा सौराष्ट्र में भ्रमण के क्रम में केवल तीर्थस्थलों पर ही जाना चाहिए। लेकिन भगवान् के भजन करनेवाले को इन प्रदेशों के अन्य स्थानों के भी भ्रमण करने पर उनपर कोई असर नहीं पड़ता यानी बुरा फल नहीं होता।
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ज्ञानी पुरुष मौत को सन्निकट देख औषधि त्यागकर भगवान् का नाम स्मरण करता है। हरिभजन करनेवाले की यदि निकृष्ट मौत भी होती है तो उसकी अधोगति नहीं होती। बराबर ईश्वर का भजन करने वाले यदि मरते समय भगवान को याद नही कर पाते तो श्री कृष्ण भगवान कहते है कि नही कर पाते तो श्री कष्ण भगवान कहते है कि उन्हे मै स्वयं याद करता हूँ एवं परमगति को प्राप्त कराता हूँ।
जो भगवान् को भजता है, उसे भगवान् भजते हैं, और उनका उद्धार करते हैं। यह अकाट्य है, इसलिए स्वस्थ शरीर द्वारा भगवान् का भजन अवश्य करना चाहिए। सुकृत करनेवाले व्यक्ति द्वारा ही अंत समय में भगवान् का नाम आता है। इसकी पुष्टि एक अन्य ग्रन्थ की आख्यायिका से होती है कि “एक सोने के व्यपारी थे जो स्वर्ण का व्यापार करते थे वे बार-बार कहते थे कि पहले लाभ कमा लें, अंत समय भगवान् का नाम ले लेंगे तो भी मेरा उद्धार हो जायगा।
एक बार उन्होंने अस्सी रूपये प्रति भरी के भाव से स्वर्ण खरीदा, लेकिन भाव हो गया साठ रूपये पति भरी, अतः घाटे की चिन्ता से वे बीमार पड़ गये। चिन्ता से बिमारी एवं विक्षिप्तता बढ़ती गयी। उनके चार पुत्र थे। पुत्र सोचते थे कि पिताजी कुछ सम्पत्ति छिपाकर रखे होंगे। चिकित्सा में काफी धन खर्च हो गया। अन्त में पुत्रों ने सोचा कि अच्छी तरह चिकित्सा कराकर पिताजी से सम्पत्ति का ब्योरा ले लिया जाय। चिकित्सक आया, उसने बीमार स्वर्ण व्यपारी का बुखार मापा और कहा कि १०५ डिग्री बुखार है। दवा के प्रभाव से उस व्यपारी के मुख से आवाज निकली तो उसने अपने पुत्रों से पूछा कि तुमलोग क्यों खड़े हो।
उन पुत्रों ने कहा कि अभी आप चुप रहे क्योंकि आपको १०५ डिग्री बखार है। सेठ ने समझा कि सोना १०५ रूपये प्रति भर होकर लाभ द रहा है। एसा सोचकर सेठ जी बोले कि बेच दो, बेच दो यानि जल्द बेच दो जल्द बेच दो उतना कहकर स० जान मृत्यु को प्राप्त किया। इसलिए हम भी अभी से भगवान का भजन नहीं करेंगे तो अन्त म भगवान् का याद नहीं आयेगी, पूर्व संस्कार सिर पर चढकर अंत समय में भी बोलेगा। अतः इस कथा सतावलकर हम भगवान का भजन करना चाहिए। इसप्रकार आत्मदेवजी वन में जाकर भगवान का शरणागति का आर श्रीगोकर्ण द्वारा कहे गये उपदेश का पालन करके श्रीमदभागवत के दशम स्कन्ध का पाठ करते हुए देह को त्याग कर भगवान् श्रीकृष्ण को प्राप्त किया।
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इधर धुंधुकारी ने धन के लोभ में अपनी माता धुंधली को खुब पीटा और उसने पूछा कि धन कहाँ छिपाकर रखा गया है यह बता दो नहीं तो हत्या कर दूँगा। धुंधली भय से व्याकुल होकर रात नपरस भाग गयी और अंधेरे की वजह से एक कुएँ में गिरकर मर गयीं। उसे अधोगति प्राप्त हुई। इधर वह गाय . पुराणजा का अपने कानों से केवल भगवत भजन सनना ही अच्छा लगता था।
पिताजी को वन में जाकर भजन करने की सलाह देकर वे स्वयं तीर्थों के भ्रमण में चले गये थे। अब घर पर धुंधकारी अकेले रह गया था। वह जुआ, शराब और वेश्याओं के साथ जीवन बिताने लगा। पाँच वेश्याओं को उसने अपने घर ही रख लिया था। वह चोरी से धन लाकर वेश्याओं के साथ रमण करता था। वेश्याएँ तो केवल धन के लोभ से धुंधुकारी के घर आयी थीं। एक दिन धुंधुकारी ने बहुत से आभूषण चोरी कर लाया। राजा के सिपाही चोरी का पता लगाने के लिए छानबीन करने लगे। वेश्याओं ने सोचा कि धुंधुकारी की हत्या कर सारा धन लेकर अन्यत्र चली जायें।
एक रात सोये अवस्था में वेश्याओं ने धुंधकारी के हाथ पैर बांध दिया और वे गले में फंदा डालकर उसे कसने लगीं। धंधुकारी के प्राण निकलते नहीं देख उन सबने उसके मुँह में दहकते आग का अंगारा दूंस दिया। अन्त में धुंधुकारी तड़प-तड़प कर कष्ट सहकर मर गया। वेश्याओं ने वहीं गड्ढा खोदकर धुंधुकारी की शव को गाड़ दिया और ऊपर से मिट्टी से ढंक दिया। सारे आभूषण एवं सम्पत्ति लेकर वेश्यायें वहाँ से अन्यत्र चली गयीं। धुंधुकारी जैसों का ऐसा ही अन्त होता है। धुंधुकारी के बारे में कुछ दिन तक किसी ने पूछताछ नहीं की। समय बीतता गया। पूछताछ करने पर वेश्याएँ बता देती कि वह कहीं कमाने चला गया है, एक वर्ष में आ जायेगा।
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जहाँ तहाँ शास्त्रों में कहा गया है कि मातायें प्रायः अति कोमल एवं अति कठोर हृदय की होती हैं। वेश्याओं का हृदय तो अति कठोर होता है या व्यभिचारिणी स्त्रियाँ कठोर हृदय की होती हैं, इसलिए उन पर विश्वास नहीं करना चाहिए।
पतिव्रता एवं धर्मचारिणी स्त्रियों का हृदय नवनीत के समान कोमल होता है। वे दयालु होती हैं। विपत्ति के समय भी कुकृत्य नहीं करतीं या कुमार्ग नहीं पकड़तीं। जैसे द्रौपदी का चीरहरण हो रहा था लेकिन द्रौपदी कृष्ण को पुकारते हुए दुर्योधन को सुयोधन कहती है। उसे दुर्योधन नाम से नहीं सम्बोधित करती। विपत्ति में भी उसके मुँह से अपशब्द नहीं निकलता। उसने अपना उच्च संस्कार बनाये रखा।
वह अपने सुन्दर आचरण का आवरण अपनी वाणी से नहीं हटाती, इसलिए द्रौपदी महान है। इधर मृत्यु के बाद धुंधुकारी बहुत बड़ा प्रेत बन गया। वह वायु रूप धारण किये रहता था। भूख-प्यास से व्याकुल होकर चिल्लाता और भटकता रहता था। धीरे-धीरे उसकी मृत्यु की बात लोगों को मालूम हो गयी। गोकर्णजी तीर्थयात्रा से लौटकर घर आये तो कुछ दिनों के बाद धुंधुकारी की मृत्यु की बात उन्हें भी मालूम हो गयी। गोकर्ण ने धंधुकारी को अपना भाई समझ घर पर श्राद्ध किया।
गया में पिण्डदान एवं तर्पण किया। प्रेतशिला, गया में प्रेत योनि का श्राद्ध होता है। धर्मारण्य में भी पिण्डदान किया जाता है। अतः पितरों को सद्गति के लिए सही कर्मकांडी से पिण्डदान कराना चाहिए। गोकर्ण द्वारा श्राद्धकर्म करने के बाद भी धुंधुकारी की प्रेतयोनि नहीं बदली।
एक दिन गोकर्णजी अपने आंगन में सोये थे। धुंधुकारी बवंडर के रूप में आया। वह कभी हाथी, कभी घोड़ा और कभी भेंड़ का रूप बनाकर गोकर्ण के पास खड़ा हो जाता। गोकर्ण ने धैर्य से पूछा- "तुम कौन हो ? प्रेत हो, पिशाच हो, क्या हो ? वह संकेत से बताया कि इसी स्थान पर मारकर उसे गाडा गया है।
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अन्यत्र ग्रन्थों में ऋषियों द्वारा कहा गया है कि गीता के ११वें अध्याय के ३६वें श्लोक का मंत्र सिद्ध कर एक हाथ से जल लेकर मंत्र पढ़कर प्रेतरोगी पर छींटा जाय तो अवरूद्ध दाणीवाला प्रेतरोगी बोलने लगता है। गोकर्ण ने भी मंत्र पढ़कर जल छिड़क दिया। जल का छींटा पड़ने से प्रेत धुंधुकारी बोलने लगा। उसने कहा- "मैं तुम्हारा भाई धुंधुकारी हूँ। अपने किये कुकर्मों से ब्राह्मणत्व का नाश कर अब प्रेत योनि को प्राप्त किया हूँ। वेश्याओं ने मेरी हत्या कर मुझे गड्ढे में डाल दिया है। उसी समय से प्यासा हूँ और मेरा मुँह सूई के छिद्र के समान है तथा मैं पानी भी नहीं पी सकता अतः मेरा उद्धार करें।
"अहं भ्राता तवदीयोऽस्मि धुंधुकारीतिनामतः,
स्वकीयेनैव दोषेण ब्रह्मत्वं नाषितं मया"।
अर्थात मैं आपका भाई धुंधुकारी हू, अपने ही पाप-कर्म के कारण आज इस योनी को प्राप्त किया है। वह धूधकारी की व्यथा को सुनकर गोकर्ण रो पडे। उन्होंने पछा कि श्राद्ध करने के बाद भी तम्हारी मुक्ति क्यों नहीं हुई तो धुंधकारी ने बताया कि मैंने इतने पाप किए हैं कि सैंकड़ों श्राद्ध से भी मेरा उद्धार नहीं हो सकता। उसने कोई दूसरा उपाय करने की बात कही। गोकर्ण ने कहा- 'दूसरा उपाय तो दुःसाध्य है।
अभी तुम जहाँ से आये हो वहाँ लौट जाओ। मैं विचार करके दूसरा उपाय करूँगा।' विचार करने पर भी गोकर्ण को कोई भी उपाय नहीं सूझा। पंडितों ने भी कोई राह नहीं बतायी। फिर कोई उपाय न देख गोकर्ण जी ने सूर्यदेव की आराधना करते हुए सूर्य का स्तवन कर सूर्य से ही धुंधुकारी की मुक्ति हेतु प्रार्थना की। सूर्य ने कहा कि भागवत सप्ताह के पारायण से ही मुक्ति होगी और दूसरा कोई उपाय नहीं है। इस प्रकार श्रीगोकर्ण ने स्वयं भागवत कथा का सप्ताह पाठ शुरू किया। शास्त्र वचन है कि स्वयं से कोई धार्मिक अनष्ठान करने या करवाने पर फल अच्छा होता है।
गोकर्ण द्वारा भागवत सप्ताह पारायण का आयोजन सुनकर बहुत लोग आने लगे। धुंधुकारी भी प्रेत योनि में रहकर भी कथा श्रवण के लिए स्थान खोजने लगा। . वहीं एक बांस गाड़ा हुआ था। वह उसी बांस में बैठकर(वायु रुप में) भागवत कथा श्रवण करने लगा। पहले दिन की कथा में ही बांस को एक पोर फट गया। इसप्रकार प्रतिदिन बांस का एक-एक पोर फटने लगा
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और सातवां दिन बांस का सातवां पोर फटते ही वह प्रेत धुंधुकारी ने प्रेतयोनि से मुक्ति पाकर और देवता के जैसे दिव्य स्वरूप में प्रकट होकर गोकर्ण को प्रणाम किया। इसप्रकार धुंधुकारी भागवत कथा श्रवण कर भगवान् के पार्षदों द्वारा लाये गये विमान में बैठकर दिव्य लोक में प्रस्थान कर गया। यह धाटना को देखकर वहाँ उपस्थित सभी लोगों ने आश्चर्यचकित होकर भगवान के पार्षदों सहित धुंधकारी को प्रणाम किया।
अतः यह श्रीमद् भागवत कथा प्रेत बाधा को दूर करने के लिए भी सबसे श्रेष्ठ उपाय है। इसप्रकार भागवत कथा का सप्ताह श्रवण कर धुंधुकारी ने सद्गति प्राप्त की। प्रेत योनि निकृष्ट योनि है। उसका भी उद्धार भागवत कथा के श्रवण से संभव है। भागवत कथा सूनने, सप्ताह पारायण कराने के लिए ज्योहि मनुष्य सोचने लगता है, पाप कर्म काँपने लगते हैं। मानवयोनि में ही हम भागवत कथा श्रवण का लाभ उठा सकते हैं। अन्य योनियों में यह संभव नहीं है क्योंकि जिस योनि में जो जन्म लेता है, उसी योनि के देह से जीव को ममता हो जाती है।
अन्य ग्रन्थो में एक कथा आती है कि एक त्रिकालदर्षी ब्राह्मण थे। पंडितजी जानते थे कि मरने के बाद वे सकर योनि में जन्म लेंगे। उन्होंने अपने पुत्रों से अगले जन्म का स्थान, रूप-रंग आदि बता दिया। पत्रों से कहा कि जन्म होने के साथ ही उन्हें (सूकर के बच्चे को) मार देना। सूकर पालक से भी पहले ही वे ऐसा ही करने के लिए बोल चुके थे। पंडितजी ने मरने के बाद सूकर के रूप में जैसे ही जन्म धारण किया, उनके पुत्रों ने उन्हें मारने के लिए पकड़ा। लेकिन सूकर का बच्चा नहीं मारने के लिए सिर हिलाने लगा। पूत्रों ने समझा कि पंडितजी नहीं मारने को बोल रहे हैं। वे उसे छोड़कर चले गये। अतः हम भी नहीं जानते हैं कि अगले जन्म में किस योनि में जन्म लेंगे या फिर कभी भागवत कथा सुनने को मिले न मिले, क्या पता ?
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प्रायः भागवत कथा परायण का संकल्प लेते ही व्यवधान आने लगते हैं। विघ्न शुरू हो जाता है। उसस डिगना नहीं चाहिए। पूर्वजन्म के संस्कार से भारतभूमि में जन्म लेकर जिसने एकबार भी भागवत कथा का श्रवण नहीं किया, उसका जीवन व्यर्थ जाता है। सुन्दर पकवान खाकर सन्दर शरीर बनाने वाले का भी अन्त हा जाता है। आत्मा के शरीर छोड़ देने पर दो दिनों में ही शरीर से दुर्गन्ध निकलने लगती है।
जो स्थिर धर्म पर आरूढ़ नहीं हो, वह पशु के समान है। मनुष्य ही धर्म धारण करता है। पशु-पक्षी धर्म धारण नहीं करते। केवल खाने-पीने, सन्तति पैदा करनेवाले मनुष्य पशु के समान हैं। भागवत कथा ध्यान से सुनने पर वासना रूपी ग्रन्थि से मुक्ति मिल जाती है एवं हृदय में भगवान् विराजते हैं। वैदिकों का कहना है कि वेद, उपनिषद् के पारायण करने से भगवान् की प्राप्ति हो जाती है। जब सांसारिक वस्तुओं से वासना समाप्त हो जाय, तो शान्ति आ जायेगी।
प्रायः खेती, व्यापार, अध्ययन-अध्यापन - सारे उद्योग शान्ति प्राप्ति के लिए ही किए जाते हैं। बड़े-बड़े राजा, विद्वान् शान्ति प्राप्ति के लिए अपनी गद्दी एवं पद छोड़ देते हैं। “स्वान्तः सुखाय' की खोज में या शान्ति की खोज में निकल जाते हैं क्योंकि भगवान् का एक स्वरूप शान्ति का भी है। “शन्ताकारं भुजगशयनम्...." का पाठ इसीलिए किया जाता है। अन्य ग्रन्थो में कहा गया है कि इस संसार में-
“भोगे रोगभयम्, सुखे क्षयभयम्, वित्ते च राज्ञोभयम्
विद्यायां कलिमीस्तपे करणभी रूपाद्भयम् योषिति।
इष्टे शोकभयम्, रणे रिपुभयम् काये कृतान्ताभयं
चेत्थं जन्म निरर्थक क्षितितले विष्णोः पदं निर्भयम् ।।
अर्थात भोग में रोग का भय है, सुख में सुख नष्ट होने का, धन में राजा का, विद्या में कलह का.
जोक तप में तपभ्रष्ट होने का, सुन्दर और शृंगारिक रूप में पथ भ्रष्ट होने का, मित्र में मित्र के द:ख का भय, युद्ध में शत्रु का, शरीर में व्याधि एवं शरीर का नष्ट होने का भय बना रहता है। इसण्मारक पृथ्वी पर भगवान विष्णु के चरणों की शरण से अलग वह जन्म निरर्थक है और भययक्त है क्योकि विष्णु के चरणों की शरण में ही निर्भयता है ।वहाँ किसी तरह का भय नहीं। वहीं शान्ति की प्राप्ति होती है।
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इसप्रकार भगवत् भक्ति के कारण प्रेत धुंधुकारी दिव्य रूप धारण कर भगवान के दिव्य लोक में गया। हम सामान्य मनुष्य भी भागवत कथा को ध्यान से सुनें, तो हमें भी भगवान के धाम में स्थान मिल जायेगा। विधिवत् सप्ताह श्रवण वहाँ केवल धंधुकारी ने ही किया था, इसलिए भगवान् के पार्षद केवल धुंधुकारी को ही विमान पर चढ़ाकर ले गये। गोकर्णजी ने भगवान के पार्षदों से पूछा कि अन्य श्रोताओं को धुधुकारी जैसा फल क्यों नहीं प्राप्त हुआ, तो पार्षदों ने कहा कि हे महाराज ! प्रत योनि प्राप्त धुंधुकारी ने उपवास रखकर स्थिर चित्त से सप्ताह कथा को श्रवण किया है। ऐसा अन्य श्रोताओं ने नहीं किया है।
इसीलिए फल में भेद हुआ है। भगवान के पार्षद धंधुकारी को विमान में बैठाकर गोलोक लेकर चले गये। वह गोकर्णजी ने श्रावण मास में पूरे नगरवासियों के कल्याण हेतु पुनः भागवत सप्ताह का प्रारम्भ की। इस बार सभी श्रोताओं ने उपवास व्रत एवं स्थिर चित्त से भागवत सप्ताह कथा का श्रवण किया। भगवान् विष्णु स्वयं प्रकट हो गये। सैंकड़ों विमान उनके साथ आ गये।
भगवान् ने गोकर्ण को हृदय से लगाकर उन्हें अपना स्वरूप दे दिया। चारों तरफ जय-जयकार एवं शंख ध्वनि होने लगी। सभी श्रोता दिव्य स्वरूप पाकर विमानों पर सवार होकर गोलोक चले गये। भगवान विष्ण गोकर्ण को अपने साथ विमान में लेकर गोलोक चले गये। अतः विमान का मतलब "विगतं मानं यस्य इति विमानः" यानी मान का नष्ट हाना विमान है।
यह सारा प्रकरण सनाकर सनतकमार ने नारदजी से कहा कि हे नारदजी ! सप्ताह कथा के श्रवण के फल अनन्त हैं. उनका वर्णन संभव नहीं। जिन्होंने गोकर्ण द्वारा कही गयी सप्ताह कथा का श्रवण किया, उसे पुनः मात गर्भ की पीडा सहने का योग नहीं मिला। वायु-जल पीकर, पत्ते खाकर, कठोर तपस्या से, योग से जो गति नहीं मिलती, वह सब भागवत सप्ताह कथा श्रवण से प्राप्त हो जाती है। इस कथा से यह उपदेश मिलता है कि घंधकारी रूपी अहंकार को गोकर्णरूपी विवेक से भागवत कथा रूपी ज्ञान द्वारा शान्त या मुक्त किया जा सकता है।
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वह मुनीश्वर शाण्डिल्य चित्रकुट पर इस पुण्य इतिहास को पढ़ते हुए परमानन्द में मग्न रहते हैं। पार्वण श्राद्ध में इसके पाठ से पितरों को अनन्त तृप्ति होती है। प्रतिदिन इसका श्रद्धापूर्वक पाठ करने से मनुष्य पुनः जन्म नहीं लेता। यह श्रीमद्भागवत कथा वेद-उपनिषद् का सार या रस ही है जैसे वृक्षों का सार या रस ही फल होता है।
अतः ऐसी श्री भागवतकथा को सुनने से गंगास्नान, जीवनपर्यन्त तीर्थ यात्रा आदि करने का जो फल प्राप्त होता है वह फल केवल श्रीमद्भागवत सप्ताह सुनने से ही प्राप्त होता है। इसलिए शास्त्रों में कहा गया है कि श्रीवैष्णव संतों से अवश्य ही श्रीमद्भागवत सप्ताह सुनना चाहिए क्योंकि सुख-दुःख तो अपने कर्मों से मिलते हैं परन्तु श्रीगोविन्द तो मिलते है संतों की कृपा से ही। अतः गोकर्ण जैसे संत का संग करना चाहिए। यानी मन को संतों के संग एवं भगवान् में लगाना चाहिए। यदि मन भगवान में नहीं भी लगे तो तन को जरूर भगवान् में लगाना चाहिए क्योंकि तन को भगवान् में लगाने पर अगत्या मन निश्चित ही भगवान में लग जाएगा।
अत: पहले तन को भगवान् में लगाये। मानव के दो प्रमुख शत्र हैं वे हैं इर्ष्या एवम् क्रोध। मानव के दो प्रमुख मित्र हैं- विवेक और कर्म करना। अतः इन दोनों शत्रुओं को त्यागकर विवेकपूर्वक कर्म करना चाहिए। ऐसा करने से भगवान् अवश्य प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार भागवतकार श्रीव्यासजी ने भागवत पारायण को स्वान्तः सुखाय बताते हुए पारायण के कुछ नियम बताये हैं। भागवत की उसी विधि को एक बार श्रीसनत्कुमार ने भी श्री नारद जी को सप्ताह कथा की विधि का नियम बताया था। यदि किसी व्यक्ति को स्वतंत्र रूप से भागवत की कथा को सप्ताह रूप में श्रवण की क्षमता नहीं हो तो आठ सहायकों के साथ सप्ताह कथा श्रवण का समारोह
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आयोजित करना चाहिए और यदि संभव हो तो भागवत कथा अकेले करायें। सबसे पहले तो किसी अच्छे ज्योतिषी से शुभ महर्त्त पूछ लें। पदमपुराण में भी सप्ताह कथा श्रवण का नियम बताया गया है। पौष एवं चैत्र मास में सप्ताह कथा श्रवण नहीं करना चाहिए। क्षय तिथि में सप्ताह कथा श्रवण का प्रारम्भ नहीं करना चाहिए। द्वादशी को कथा श्रवण वर्जित है। क्योकि सूतजी का देहावसान द्वादशी तिथि को ही हुआ था। इसलिए द्वादशी के दिन कथा प्रारम्भ का निषेध है- सतक लगता है।
परन्तु कथा में सप्ताह कथा के बीच मेद्वादसी तिथी आने पर कथा श्रवण वर्जिन नही है। निष्कामी या प्रपन्न श्रीवैष्णव पर यह उपर का नियम लागू नहीं होगा क्योंकि भगवान की कथा में तिथि-काल-स्थान का दोष नहीं लगता है। भगवान की कथा सही समस्त दोष दूर होते हैं। इस प्रकार पहले नान्दी श्राद्ध करके मंडप बनायें तथा श्रीफल सहित कलश स्थापन करें। विष्वकसेनादी या वैदिक विधि से श्रीविष्वक्सेन आदि एवं श्री भागवत जी को तथा पौराणिक आचार्यों का प्रतिदिन पूजन करें।
मंडप में शालिग्राम शिला अवश्य रखें तथा हो सके तो योग्यता के अनुसार स्वर्ण की विष्णुप्रतिमा बनवाकर, उसे प्रधान कलश पर रखें या सवा वित्ते लम्बे-चौडे ताम्रपत्र को विष्ण मानकर पूजा करे। पाँच, सात या तीन या व्यवस्था के अनुसार अधिक ब्राह्मण कथा के आरम्भ से अन्त तक रखकर गायत्री तथा द्वादशाक्षरादि मंत्र का जाप करायें। एक शुद्ध श्रीवैष्णव ब्राह्मण से मुल भागवत का पाठ करावें। जिस माह में जिस खास पदार्थ का सेवन वर्जित है उसे सप्ताह श्रवण के दिनों में वर्जित मानकर ग्रहण या सेवन नहीं करे।
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इस सप्ताह यज्ञ में निमंत्रण पत्र भेजकर देशभर में जहाँ कहीं भी अपने कुटुम्ब के लोग हो, उन्ह इस समारोह में बुलावें। ज्ञानी, महात्मा, सन्तजनों को भी विशेष रूप से निमंत्रित कर बुलावें। विवाह के समारोह में जैसी व्यवस्था होती है, उसी तरह व्यवस्था करें।
तीर्थ में भागवत कथा को श्रवण करना चाहिए या वन-उपवन में कथा श्रवण समारोह आयोजित करना चाहिए। यह संभव नहीं हो तो घर में भागवत कथा श्रवण की व्यवस्था करें। लेकिन घर पर भी मंडप बनाकर यानी कथा का मंडप २४ फीट ल+चौ० एवं फूल माला, पत्रादि से शोभित हो। कथा समारोह श्रवण का वातावरण बनावें। प्रवचनकर्ता व्यास के लिए सिंहासन की व्यवस्था करें। व्यास उत्तरमुख बैठें तो यजमान पूरब मुख। व्यास यदि पूर्वाभिमुख तो श्रोता उत्तराभिमुख बैठें।
सात पंक्तियों में श्रोता बैठे। प्रथम पंक्ति में संन्यासी, दूसरी पंक्ति में वानप्रस्थ, तीसरी में ब्रह्मचारी, चौथी में वेदज्ञाता, पाँचवीं पंक्ति में लोगों को अधर्म से धर्म में लगानेवाले क्षत्रिय, छठी में वैश्य लोग एवं सातवीं पंक्ति में शेष लोगों को बैठाने की विधि बतायी गई है। स्त्रियों को बायीं ओर बैठने की व्यवस्था होनी चाहिए। अन्य श्रोतागण को दक्षिण तरफ बैठाये। व्यास गद्दी पर बैठे वक्ता से श्रोता का आसन नीचे होना चाहिए। किसी भी हालत में ऊँचा नहीं होना चाहिए।
अन्यत्र ग्रन्थो में एक कथा आती है कि महाभारत युद्ध के आरम्भ में श्रीकृष्ण भगवान् ने कुरुक्षेत्र में रथ का सारथी बनकर अर्जुन को गीता का उपदेश दिया रथ की ध्वजा पर हनुमानजी विराजमान थे। गीता के उपदेश की समाप्ती पर अर्जुन ने कहा कि मैं आपका शिष्य हैं, अतः पूजन करूँगा और अर्जुन ने श्रीकृष्ण भगवान् की पूजा की। हनुमानजी प्रकट होकर बोले कि मैंने भी गीता के उपदेश को श्रवण किया है। मैं भी शिष्य हूँ पूजन करूँगा।
भगवान श्रीकष्ण ने कहा कि आपने ध्वजा पर विराजमान होकर मुझसे उँचे स्थान से उपदेश श्रवण का अपराध किया है। इसलिए आपको पिशाच योनि मिलेगी। शाप के भय से भयभीत श्री हनुमानजी कृष्ण भगवान् की स्तुति करने लगे। भगवान ने कहा कि आप गीता का भाष्य करेंगे तो शाप से मुक्त हो जायेंगे। हनुमानजी ने गीता पर पिशाच्य भाष्य लिखा और शाप से मुक्त हुए। अतः श्रोता को व्यास से उँचे आसन पर कभी नहीं बैठना चाहिए। कथावाचक व्यास को सिर और दाढ़ी के बाल बना लेना चाहिए।
sikha एवं काँख के बालों को छोड़कर क्षौर करा लेना चाहिए। सात दिन तक कथा के मध्य में बाल या क्षौर नहीं कराना चाहिए। प्रातःकाल में मूल पारायण करायें। संस्कृत का ज्ञान हो या नही, यजमान श्रोता को परायण पाठ अवश्य श्रवण करना चाहिए। मध्याह्न या संध्या में संस्कृत के श्लोकों की अर्थ सहित कथा कहनी चाहिए। अर्थ संक्षेप में ही कहें, लेकिन कोई कथा छूटनी नहीं चाहिए।
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भागवत कथाके हर प्रसंग को कहना चाहिए। श्रोता को भी सारी कथा सुनने का आग्रह करना चाहिए। मध्याहन में विश्राम करें, शान्त रहें। यजमान और श्रोता दोनों ७ दिनों तक फल एवं दूध का ही सेवन करें। कथा समाप्ति के बाद पलास के पत्तल पर या केले के पत्ते पर हविष्य का प्रसाद ग्रहण करें यानि खीर इत्यादि बनाकर सेवन करें। ब्रह्मचर्यपूर्वक रहें एवं आचरण से भूमि पर सोयें।
दाल, गरिष्ठ एवं दूषित अन्न नहीं खाना चाहिये। निषिद्ध व्यक्तियों से बात करने के बाद हरिस्मरण करें। सन्तानहीन होने पर भी ईश्वर, सन्त या जो परमात्मा को ही पुत्र मानता हो, उससे अवश्य बात करे क्योकि परमात्मा से बढकर कोई दुसरा श्रेष्ठ पुत्र नही हो सकता है। वह परमात्मा ही उद्धारकर्ता हैं। वन्ध्या नारियों को भी भागवत कथा श्रवण करने से कल्याण होता है।
कथा के प्रारम्भ एवं अन्त में आरती होनी चाहिए। भागवत कथा आयोजन के समय महोत्सव मनाना चाहिए। भागवत कथा किसी ब्राह्मण वैष्णव भक्त से या विष्णुभक्त से श्रवण करनी चाहिये एवम् जन्मजात ब्राह्मण यानी नियमानुसार सदाचारी, वेदपाठी श्री वैष्णव ब्राह्मण से कथा का अनुष्ठान कराकर कथा का श्रवण करना चाहिए। अंगभंग शरीर वाले ब्राह्मण से भागवत कथा नहीं सुननी चाहिए। गुरु और पुरोहित ब्राह्मण को ही बनाना चाहिए।
शास्त्रों ने कहा है कि ब्राह्मण का जनेऊ ६६ चौआ का होना चाहिए। क्योकि वेद के ६६००० मंत्र कर्मकाण्ड के लिए बताये गये हैं। जनेऊ के माध्यम से ब्राह्मण ६६००० मंत्रों का भार अपने कंधे पर लेता है।
यज्ञोपवीत यानी वह सूत जिसके धारण करने से व्यक्ति यज्ञ में बैठने के योग्य हो जाय। ६० चौआ का जनेऊ क्षत्रिय को पहनना चाहिए। ६००० मंत्र दान लेने के लिए बताये गये हैं। चूंकि क्षत्रिय दान नहीं लेते, इसलिए उनमें ६००० मंत्र नहीं जुड़ते और दान लेने के कारण ब्राह्मणों में जुड़ते है।
क्षत्रिय पूजा, उपासना करें, लेकिन दान नहीं ले। वैश्य ८५ चौआ का जनेऊ पहनें। वेद में ५००० मंत्र युद्ध शास्त्र के लिए बताये गये हैं। इसलिए ५००० मंत्र क्षत्रियों में जुड़ते हैं और वैश्यों में घट जाते हैं। वैश्य प्रायः युद्ध विद्या में दक्ष नहीं हो पाते यानी युद्ध वैश्यों के लिए नहीं है।
पंच संस्कार युक्त विरक्त वैष्णव ब्राह्मण से भागवत कथा सुननी चाहिए। विरक्त भागवत कथा सुनावे तो सोने में सुगन्ध के समान है। इसी विधि से भागवत कथा श्रवण करनी चाहिए। पत्नी को पति की पूजा गुरु के समान करनी चाहिए। विधवा को भी अपने पतिका चित्र रखकर पूजा करनी चाहिए।
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कथा सोकर या लेटकर नहीं श्रवण करनी चाहिए। कथावाचक को बिना प्रणाम किये, कथा श्रवण करने नहीं बैठना चाहिए। सोकर कथा सुननेवाला अजगर तथा बिना प्रणाम किये सुननेवाला वृक्ष होता है। रोगी पर यह नियम लागू नहीं होता। कथा के बीच में श्रोता को प्रश्न नहीं करना चाहिए।
कथा के मध्य में यदि कोई प्रश्न हो या शंका हो तो कथा के अन्त में कथावाचक से पूछ लेना चाहिए। कथा के मध्य में प्रश्न करने से रसभंग होता है, सरस्वती कुपित होती हैं। ऐसा प्रश्नकर्ता मरकर गंगा होता है। तीन जन्म गूंगा रहने के पश्चात् कौवे की योनि प्राप्त करता है। व्यास गददी पर जो हो उसे साक्षात् व्यास रूप मानना चाहिए। सबके लिए वह पूजनीय होता है। व्यास गद्दी पर बैठनेवाला यदि किसी को प्रणाम नहीं करे तो कोई बात नहीं।
वैष्णव मानकर कथावाचक किसी को प्रणाम करता है तो कोई हर्ज नहीं। अच्छी बात है। व्यासगददी पर बैठा हआ व्यक्ति, माता-पिता एवं गुरु से भी श्रेष्ठ माना गया है। किसी की मंगल-कामना एवं आशीर्वचन भी उसे नहीं करना चाहिए। वास्तव में आचार्य ब्राह्मण का ही बनाना चाहिए। कलियुग में ब्राह्मणत्व जन्म से ही प्राप्त होता है तथा इसके अलावा तप आदि स ब्राह्मणत्व पूर्ण और शुद्ध हो जाता है।
अतः इस कलियुग में जीवों के कल्याण का एक मात्र उपाय का निर्णय करते हए कलिसंतरणोपनिषद में कहा गया है कि-
"रहस्यम् गोप्यं तच्छण येन कलि संसारं तरिष्यसि।
भगवत आदिपुरुषस्य नारायणस्य नामोच्चारणमात्रेण निघृतकलिर्भवति।
नातः परतरोपायः सर्व वेदेषु दृश्यते।"
अर्थात् हे संसार के प्राणियों सब श्रुतियों का रहस्य और गोप्य को सुनो, जिससे कलि में संसार को पार करोगे। वह जो आदि पुरुष भगवान् श्रीमन्नारायण हैं उनके नाम उच्चारण करने से समस्त पाप से निवृति हो जाती है। इससे बढ़कर सहज उपाय वेदों में नहीं है।
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जहाँ भागवत कथा हो आप अवश्य पधारें प्रायः ग्रन्थों में कहा गया है कि कोई भी अनुष्ठान शास्त्र के उल्लंघन करके करने पर अच्छा फल देनेवाला नहीं होता है। शास्त्र क्या है ? - जो हम पर अनुशासन करता है, वही शास्त्र है। यथा - मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, धर्मम् चर इत्यादि आचरण का उपदेश शास्त्र ही देता है। "शासनात् इति शास्त्रम् ।
भागवत कथा सप्ताह शास्त्र विधि से नही सुना जाय तो उसका फल ठीक-ठीक नहीं मिलता। बल्कि संतजन निन्दा करते हैं। पवित्र स्थानों पर जाकर अपराध करने पर वह अपराध वजलेख हो जाता है। जो वर्ण एवं आचरण से कमजोर या छोटा होकर भी ब्राह्मण को शिष्य बनाता है या ब्राह्मण को उच्छिष्ट भोजन कराता है, वह अक्षम्य अपराध करता है। जो हीन वर्ण होकर ब्राह्मण को शिष्य बनाता है, वह मरणोपरान्त निकृष्ट योनि में जाता है। इसलिए किसी को भी उच्छिष्ट भोजन नहीं देना चाहिए।
जूठा भोजन किसीको नही देना चाहिए। शीशे के बर्तन एवं कप प्लेट में खिलाना, उच्छिष्ट ही होता है। कमंडलु का प्रयोग केवल सन्यासी ही कर सकता है दूसरे आश्रम या धर्म का व्यक्ति यदि कमंडल का उपयोग करता है, तो यह गलत है। यह शास्त्र-विरोध है। इसीप्रकार शुद्ध ब्राह्मण ही त्रिदण्ड सन्यास लें। शीशे के बर्तन तथा कप प्लेट (चीनी-मिट्टी) की शुद्धि नहीं बतायी गयी है। शंख भी एक ही व्यक्ति द्वारा उपयोग किया जाना चाहिए। एक व्यक्ति के शंख को दूसरे व्यक्ति द्वारा उपयोग या फूंकना ठीक नहीं है।
शास्त्र में कहा गया है कि अपना आसन, अपना वस्त्र, अपनी पत्नी, अपना पुत्र अपना जलपात्र-कमण्डलु आदि केवल अपने लिए पवित्र है। महाभारत में कृष्ण, अर्जुन, भीम इत्यादि सभी अपने-अपने शंख से ध्वनि करते थे। सभी योद्धाओं का अपना-अपना शंख था। एक के शंख को कोई दूसरा फूंकता नहीं था। कमंडलु की पवित्रता जल आदि से होती है। सोने का पात्र केवल पानी से धोया जाता है।
तांबे के पात्र को गरम करके गोबर एवं नमक से शुद्ध करने का नियम है। मिट्टी के पात्र को केवल एकबार व्यहार में लेने को बताया गया है तथा इसकी शुद्धी पानी से बताया गया है। यज्ञ कार्य में राजा या धनवान यज्ञ-पात्र एवं कलशादि पात्र स्वर्ण के बनाते है। लकिन साधारण जन यज्ञ या देवपूजन कार्य में मिट्टी के कलश को स्थापित करते हैं
और अनुष्ठान करते हैं परन्तु वह मिट्टी पात्र केवल एक बार ही उपयोग किया जाता है। उच्छिष्ट भोजी यानी जुठा खानेवाला व्यक्ति कुत्ते की योनि को प्राप्त करता है और जूठा खिलानेवाला भी कुत्ते की योनि को प्राप्त करता है। जो श्रोता आचार्य को दान करता है वह अक्षय लोक को प्राप्त करता है।
दान लेकर अपने परिवार में समस्त दान की राशिको खर्च करना या लगाना श्रेयस्कर नहीं होता संतान निकृष्ट हो जाती है। इसलिए आचार्य को भी दान प्राप्त धन में से दशांश भाग धर्मकार्य में भी लगाना चाहिए। दान लेनेवाला आचार्य या कथावाचक व्यास गद्दी से प्राप्त धन का आधा या चतुर्थांश या यदि छोटी राशी भी दान करता है तो वह आदरणीय हैं और वह अच्छा फल को प्राप्त करता है तथा उसके संतान अच्छे संस्कारी होते है।
भागवत कथा श्रोता श्रद्धा भाव से छोटी राशि भी दान करता है, तो वह ग्रहणीय है। उसका फल अच्छा होता है। कौशिक पुराण में कहा गया है कि कथा सुनने के बदले में या कथा कहने के मूल्य के रूप में मूल्यांकन करके, दान देना या लेना दोनों ही फलदायक नहीं होते। सनकादि ऋषिया न नारदजा से उपर्युक्त विधि से भागवत सप्ताह कथा कराने के लिए कहा था। इसी नियम से कथा सुनन पर कथा सुनने वाले को अक्षय फल होता है।
कथा समाप्ति पर कथावाचक व्यास को यथाशक्ति धन अर्पण करना चाहिए। अकिंचन श्रोता बिना कुछ दिये ही उत्तम फल का अधिकारी होता है। अकिंचन का "पत्रम्, पुष्पम्, फलम्, तोयम्" अर्पण ही उत्तम अर्पण है। परमात्मा उसी से प्रसन्न होते हैं। यह अकिंचन के लिए है। कार्पण्य शास्त्रों द्वारा वर्जित है। कथा समाप्ति के बाद थोड़ा प्रसाद, तुलसीदल अवश्य लेना चाहिए। प्रसाद का अनादर करनेवाले अधोगति को प्राप्त करते हैं।
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एक कथा है कि एक बार चैतन्य महाप्रभु एकादशी व्रत में थे। व्रत के क्रम में जब उन्हें जगन्नाथ भगवान् का प्रसाद दिया गया, तो उन्होंने उसे और कहीं नहीं रखा, बल्कि उसे हाथ में लिए, रात भर कीर्तन करते रहे। फिर समय से उसे ग्रहण किया। उन्होंने प्रसाद का अनादर नहीं होने दिया। स्वीकार करने योग्य ही प्रसाद लें। किसी प्रकार का और किसी का प्रसाद नहीं लेना चाहिए। इसप्रकार कथा समापन होने पर वाद्य आदि बजाना चाहिए। कोई भी अतिथि आता है तो उसका सम्मान करें।
कुछ भी नहीं हो तो "तृणानि, भूमि, उदकम्” का भाव लेकर अतिथि की सेवा सत्कार करें। यानी अतिथि को पहले शुद्ध भूमि पर तृण के आसन देकर सुन्दर वाणी बोलकर जल इत्यादि से सत्कार करे क्योंकि अतिथि का अपमान होने पर पुण्य का नाश होता है, पाप की वृद्धि होती है। अतिथि की सेवा नहीं करनेवाले परिवार या संस्था में कलह शुरू हो जाता है और शांति भंग हो जाती है। इस प्रकार सप्ताह कथा की समाप्ति होने पर श्रीमद्भगवत्गीता का पाठ अवश्य करें तथा कथा के अन्त होने पर दस हजार गायत्री मंत्र से आहति दें। यह संभव नहीं हो तो १८०० गायत्री मंत्र से भी आहुति दे सकते हैं। दोष निवृति के लिए विष्णु सहस्रनाम का पाठ अन्त में अवश्य करायें।
कम-से-कम बारह ब्राह्मणों को खिलायें। संभव हो तो सारे गांव को खिलायें। यदि हविष्य से हवन करना संभव नहीं हो तो तिल, उसका आधा चावल, उसका आधा जौ, उसका आधा गुड़, घी का हवन करना चाहिए। यदि हवन की भी क्षमता नहीं हो तो कुछ धन का दान कर दे। सप्ताह श्रवण से भोग एवं योग दोनों प्राप्त हो सकते हैं। इसके श्रवण से अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चारों फल प्राप्त होते हैं। इस भागवत कथा को आषाढ़ में गोकर्णजी ने धुंधुकारी के निमित्त सुनाया तथा पुनः श्रावण में सभी ग्रामवासियों के लिए सुनाया। भादो में शुकदेवजी ने परीक्षित् को सुनाया, भगवान ने ब्रह्मा को पढाया, क्वार में मैत्रेय जी उद्धवजी को, कार्तिक में नारदजी ने व्यासजी को, एवं अगहन में व्यास जी ने शुकदेव जी को भागवत कथा पढ़ाया।
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नारदजी ने इसी तरह उपर्युक्त नियमों के अनुसार भागवत कथा का आयोजन किया था। ज्ञान और बराग्य, वृन्दावन में भागवतकथा समारोह के आयोजन होते ही तरुण हो गये। भक्ति देवी प्रसन्नता से अपन। दोनों पुत्रों ज्ञान और वैराग्य की तरुणाई देखकर नाचने लगी। यह देखकर नारदजी आह्लादित हो गये। भक्ति का प्रचार घर-घर में हो गया।
ज्ञान-वैराग्य जवान हो गये। नारदजी कहने लगे कि आज धन्य हो गया हूभागवत कथा का श्रवण सभी धर्मकार्यों में श्रेष्ठ एवं प्रिय है। भागवत कथा की सभा में भगवान भी वैकुण्ठ से आ जाते हैं। अतः श्रीभागवत कथा को श्रद्धा-विश्वास निष्ठा से कहना सुनना चाहिए। जब यह कथा हो रही थी तो भगवान भी आ गये तथा श्री शुकदेवजी भी इस समारोह में भागवत पुराण के श्लोकों का शनैः शनैः गायन करते आ गये। श्रीशुकदेवजी को देखते ही सभी खड़े हो गये और उनको अनेक प्रकार से भक्ति भाव द्वारा पूजन कर एक दिव्य सिंहासन पर बैठाया गया।
श्रीशुकदवेजी दिगम्बर थे। याना दिशाये ही उनका आवरण थीं। अतः अल्पवस्त्र जैसे केवल लंगोटी पहने थे। शास्त्र में कहा गया है कासहासन पर बैठना गलत नहीं है. बल्की उसमें आशक्ति नहीं होनी चाहिए। यानी किसी चीज की चाह आसाक्त है। जैसे- जेल बन्धन नहीं है। उसमें काम करनेवाले जेलर एवं अन्य जेलकर्मियों के लिए जेल बन्धन नही है परंतु राज नियम-कानून के विरुद्ध कार्य करनेवालों के लिए जेल बन्धन है।
इसकी पुष्टी अन्यत्र ग्रन्थों की कथा से होती है कि एक बार नारदजी एवं श्री शुकदेवजी में देवर्षि एवं संत होने की प्रतियोगिता हो गयी। आहार शद्धि से स्मति होती है। नारदजी एवं शुकदेवजी दाना प्रमाण में थे। दोनों में साधता की प्रतियोगिता थी। नारदजी तो शाप दे देते हैं परन्तु शुकदेवजी न कमा का को शाप नहीं दिया। इन दोनों के परीक्षक श्री जनकजी बने, क्योंकि व्यासजी ने ऐसी आज्ञा दी थी।
इधर श्री नारदजी एवं शकदेवजी जनकजी के पास गये तो जनक जी ने तीन दिन द्वार पर और तीन दान अपन आंगन में दोनों को खड़ा रखा यानी बैठने का आदेश नहीं दिया। फिर श्री जनकजी ने नारदजी और शुकदेवजी के बीच अपनी पत्नी को बैठा दिया तब दोनों को बैठने का आदेश दिया। श्रीनारदजी इस घटना से कुछ उद्विग्न सा हो गये परन्तु शुकदेवजी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा बल्कि शुकदेवजी नहीं जानते थे कि मैं किसके साथ बैठा हूँ। इस प्रकार परीक्षा में शुकदेवजी ने उत्तम सफलता प्राप्त की वैसी नारदजी ने सफलता नहीं प्राप्त की।
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यह भागवतकथा एक ऐसा अपूर्व फल है, जिसमें कोई विकृति नहीं है। यह एक दिव्य अमृत है। अतः इसके पान करने से जन्म मृत्यु धन्य हो जाते हैं। श्री शुकदेवजी द्वारा इस कथा को जूठा किया हुआ है यानी श्री शुकदेवजी ने भागवत पुराण के रस को ग्रहण किया है। अतः रसज्ञों को भागवत कथा का रस रात-दिन ग्रहण करना चाहिए। यह भगवत् कृपा से पृथ्वी पर प्राप्त हुआ अमृत-फल है। यह केवल पृथ्वीलोक के भारतवर्ष में ही सुलभ है क्योंकि यह भारतवर्ष में ही प्रकट हुआ है।
तथा भारत में भी सनातनधर्मी के लिए ही यह सुलभ है। इधर उसी हरीद्वार के आनन्दवन के भागवत कथा समारोह में भगवान अपने पार्षदों प्रह्लाद ध्रुव अर्जुन वगैरह को जो साथ में लाये थे। वे सभी भगवान का पूजन कर वह भक्त मंडली अपने-अपने वाद्यों को बजाकर कीर्तन करने लगी। सभी लोग जय-जयकार करने लगे। भगवान् ने ऐसी भक्तमंडली के भक्ती को देखकर वर मांगने को कहा। भक्तों ने कहा कि जहाँ भी भागवत कथा हों, वहाँ आप अवश्य पधारें यही हमें बरदान दे। भक्त-वत्सल भगवान् ने कहा "तथास्तु" - ऐसा ही होगा।
उसके बाद सभी देवता अपने-अपने लोक में चले गये। सूतजी कहते हैं कि हे शौनकजी! मनुष्य का शरीर पाकर जिसने भागवत कथा नहीं सुनी, भजन नहीं किया, सुकृत नहीं कियावह पृथ्वी के लिए भार है। भागवतकार कहते हैं कि हर तरह के दुःखी भी यदि प्रभु श्रीमन्ननारायण की शरणागति करे, तो उसे परमानन्द की प्राप्ति होती है। जबतक जीवन रहे सभी इन्द्रियों को भगवान् की सेवा में लगा दें। इस प्रकार रोमहर्षण सूत के पत्र उग्रश्रवा सूतजी ने कहा कि हे शौनकजी ! इस भागवत माहात्म्य कथा को मैंने संक्षिप्त में आपको सुनाया।
यहाँ पर पद्मपुराण के उतरखण्ड के प्रथम अध्याय से षष्ठम् अध्याय के अनुसार श्रीमद्भागवत
माहात्म्य की कथा समाप्त हुई।
इति श्रीमदभागवत प्रवचन-रस ग्रन्थ का माहात्म्य समाप्त हुआ।