संपूर्ण भागवत सप्ताहिक कथा / भाग-1
भागवत प्रवचन रस जीयर स्वामी जी
अब यहाँ से श्रीमद्भागवत महापुराण का परिचय तथा श्रीमद्भागवत माहात्मय की कथा प्रारम्भ होती है। || श्रीमद्भागवत महापुराण का परिचय एवं माहात्मय की कथा प्रारम्भ।।
भागवत मंगलाचरण श्लोक
ॐ अस्मद्गुरुभ्यो नमः ऊँ अस्मत्परमगुरुभ्यो नमः ऊँ अस्मत्सर्वगुरुभ्यो नमः ऊँ श्रीमते रामानुजाय नमः ॐ श्री परांकुशदासाय नमः ऊँ श्रीमद्यामुनमुनये नमः ॐ श्री राममिश्राय नमः ऊँ पुण्डरीकाक्षाय नमः ऊँ श्रीमन्नाथमुनये नमः ऊँ श्रीमते शठकोपाय नमः ऊँ श्रीमते विष्वक्सेनाय नमः ॐ श्रियै नमः ऊँ श्रीधराय नमः ॐ श्रीपतिवादिभयंकरमहागुरवे नमः
लक्ष्मीनाथसमारम्भां नाथयामुनमध्यमाम् ।
अस्मदाचार्यपर्यन्तां वन्दे गुरुपरम्पराम् ।।1
ज्ञानानन्दमयंदेवं निर्मलस्फटिकाकृतिम् ।
आधारं सर्वविद्यानां हयग्रीवमुपास्महे ।।2
सव्य पादं प्रसार्याश्रितदुरितहरं दक्षिणं कुंचयित्वा
जानुन्याधाय सव्येतरमितरभुजं नागभोगेनिधाम
पश्चाबाहुद्वयेन प्रतिभटशमने धारयन् शंखचक्रे,
देवीभूषादिजुष्टोवितरतु जगतां शर्म वैकुण्ठनाश 3
सर्वोपनिषदो गावोदोग्धा गोपालनन्दनः।
पार्थोवत्सः सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्।।4
वाल्मिकीगिरिसम्भूता रामसागरगामिनी।
न पुनाति भुवनं पुण्या रामायणमहानदी।। 5
यःस्वानुभावमखिलश्रुतिसारमेकमध्यात्मदीपमतितीर्षतां तमोऽन्धम् ।
संसारिणां करुणयाऽऽह पुराणगुह्यं तं व्यासासूनुमुपयामि गुरुं मुनीनाम् ।।6
नमामि भक्त वत्सलं कृपालु शील कोमलम्। I
भजामि ते पदाम्बुजं अकामिनां स्वधामदं ।।7
प्रह्लादनारदपराशरपुण्डरीक
व्यासाम्बरीषशुकशौनकभीष्मदाल्भ्यान्।
रुक्मांगदार्जुनवसिष्ठविभीषणादीन्
पुण्यानिमान्परमभागवतान्स्मरामि।।8
ओम्नारायणाय विद्महे वासुदेवायधीमहि तन्नोविष्णुःप्रचोदयात्।
ओम् महालक्ष्म्यै च विद्महे विष्णुपत्न्यै च धीमहि तन्नोलक्ष्मीःप्रचोदयात्।।
सबसे पहले इसी श्रीमद्भागवत की महिमा की कथा को एक बार प्राचीन काल में श्री श्रीमन्नारायण भगवान् ने संसार के जीवों के उद्धार के लिए अपनी शक्ति को अपनी वाणी द्वारा प्रकट करके उस वाणी का नाम श्रीमद्भागवत कथा रखा।
एक बार जब श्रीलक्ष्मी जी ने संसारी जीवों के कल्याण के लिए प्रभु से पूछा तो प्रभु ने श्रीलक्ष्मी जी से कहा कि यह श्रीमद्भागवत कथा ही सबसे सुगम और सरल कल्याण का उपाय है। फिर श्रीलक्ष्मी जी ने इस श्रीभागवत कथा को अपने अनेक पार्षद सहित अनेक श्री वैष्णवाचार्यों जैसे- श्रीविष्वक्सेनजी महाराज, श्री शठकोप स्वामी, श्रीनाथमुनि स्वामी आदि को उपदेश दिया।
एक बार जब श्रीलक्ष्मी जी ने संसारी जीवों के कल्याण के लिए प्रभु से पूछा तो प्रभु ने श्रीलक्ष्मी जी से कहा कि यह श्रीमद्भागवत कथा ही सबसे सुगम और सरल कल्याण का उपाय है। फिर श्रीलक्ष्मी जी ने इस श्रीभागवत कथा को अपने अनेक पार्षद सहित अनेक श्री वैष्णवाचार्यों जैसे- श्रीविष्वक्सेनजी महाराज, श्री शठकोप स्वामी, श्रीनाथमुनि स्वामी आदि को उपदेश दिया।
इसी भागवत कथा को एकबार ब्रह्माजी के पूछने पर प्रभु ने उन्हें भी उपदेश दिया था। इसी कथा को भगवान् श्रीमन्नारायण से प्राप्तकर श्रीशंकर जी ने श्री पार्वती जी को सुनाया था। इसी कथा को अनुसंधान कर बारहों आदित्य, आदि अपना कार्य करते हैं। इसी कथा को एकबार सनकादियों ने भगवान् से सुना था तथा उन्हीं सनकादियों ने ब्रह्माजी से भी इसी कथा को पुनः सुना था।
इसी कथा को एक बार श्रीनारदजी ने भगवान् से सुना था तथा पुनः ब्रह्माजी से भी सुना एवं फिर इसी कथा को श्री नारद जी ने सनकादियों से हरिद्वार में अनुष्ठान के रूप में सुना था।
इसी कथा को श्री नारद जी ने व्यास जी को सुनाया था एवं इसी कथा को व्यास जी ने अपने पुत्र श्री शुकदेव जी को पढाया था इसी कथा को एक बार गोकर्ण जी ने अपने भाई धुन्धकारी के कल्याण के निमित सुनाया।
इसी कथा को श्री शुकदेव जी ने महाराज परीक्षित को सुनाया और इसी कथा को रोमहर्षण सुत के पुत्र श्रीउग्रश्रवा सूत ने शौनकादि, ऋषियों को नैमिषारण्य में सुनाया। इस प्रकार इस कथा को जगत् में सुनने और सुनाने की परम्परा आज भी कायम पर श्रीमद्भागवत पंचम वेद भी है। जैसे-
“इतिहासपुराणानि पंचमो वेद उच्यते”
अर्थात् इतिहास और पुराण भी पंचमवेद हैं। अतः यह श्री भागवत इतिहास भी है और पुराण भी है। उस श्रीमद्भागवत कथा की महिमा को जानने हेतु एक बार श्री ब्रह्माजी ने भगवान् श्रीमन्नारायण से संसारी जीवों की मुक्ति हेतु सहज उपाय पूछा तो प्रभु ने कहा-हे ब्रह्माजी, हमारी प्रसन्नता एवं प्राप्ति या हमारे सन्तोष के लिए श्रीमद्भागवत महापुराण की कथा ही केवल है। जैसे:"श्रीमद्भागवतम् नाम पुराणम् लोकविश्रुतम।
श्रृणुयाच्छ्रद्धयायुक्तो मम संतोषकारणम् । यः पठेत्प्रयतोनित्य श्लोक (एक श्लोक को) भागवतं सुत ।
अष्टादशपुराणानां फलमाप्नोति मानवः।
यत्र यत्र भवेत् पुण्यं शास्त्रम्भागवत कलौ।
तत्र-तत्र सदैवाहम् भवामि त्रिदशैः सह।। (देवताओं के साथ रहते हैं)। तत्र सर्वाणि तीर्थानि नदीनदसरांसि (सरोवर रूप सभी तीथ) च। यज्ञाः सप्तपुरीनित्यं पुण्याः सर्वे शिलोच्चयाः।। (पवित्र पर्वत) || इस "श्रीमद्भागवतमहापुराण कथा" का मतलब होता है कि :श्री+म+भा-ग-व-त,+महा। पुराण,+क-था यानी श्रीमद् शब्द का अर्थ-"श्री" श्री ईश्वरभक्ति-वाचकः अर्थात् महालक्ष्मी (राधा) वाचक है। "मद शब्दः सर्वगुणसम्पन्नतावाचकः अर्थात् परमात्मा के समस्त गुणों जैसे:दया, कृपा इत्यादि से सुशोभित होने का वाचक होता है। “भागवत" शब्द का अर्थ-
भाशब्दः कीर्तिवचनो, गशब्दो ज्ञानवाचकः,
सर्वाभीष्टवचनो वश्च, त विस्तारस्य वाचकः
(भा माने कीर्ति, ग माने ज्ञान, व माने सर्वाभीष्ट अर्थात् अर्थ, धर्म काम मोक्ष इन चारों को देने वाला सूचक है। "त" माने विस्तार का वाचक है। अतः इसका वास्तविक अर्थ है कि जो कीर्ति, ज्ञान सहित अर्थ धर्म-काम-मोक्ष को विस्तार से सन्तुष्ट और पुष्ट करके हमेशा हमेशा के लिए अपने चरणों में भक्ति प्राप्त कराता है वह "भागवत है। अथवा "भागवत" का मतलब यह भी है कि जिसका "भा यानी तेज या प्रभा या भक्ति या महत्ता सभी लोकों में त्रिकालावधि विद्यमान हो। "ग" यानी नारदादि मुनियों ने उस परमात्मा की इस महिमा का गायन किया है और आज भी गायन किया जाता है। "वत' यानी शास्त्र उस परमात्मा एवं उनकी कीर्ति महिमा के अन्तर्गत है।
अर्थात इसी परमात्मा से एवं परमात्मा की महिमा से प्रकट है या निकला है और हमेशा इसी परमात्मा में और उसकी महत्ता में रहता है। अतः इस कारण भी इसका नाम "भागवत' है। अर्थ-धर्म काम-मोक्ष इन चारों को प्राप्त कराता है। अतः इसका नाम "भागवत" है।
संपूर्ण भागवत सप्ताहिक कथा
आगे महापुराण शब्द का अर्थ होता है कि "महा" माने सभी प्रकार से और सभी में श्रेष्ठ जो हो वह "महा कहलाता है एवं "पुराण' का मतलब होता है कि जो लेखनी-ग्रन्थ-कथा या फल देने वालों में प्राचीन हो या जो लेखनी ग्रन्थ-कथा के रूप में पुराना हो परन्तु जगत् के जीवों को हमेशा नया ज्ञान, शान्ति एवं आनन्द देते हुए नया या सरल जीवन का उपेदश देते हुए सनातन प्रभु से सम्बन्ध जोड़ता है वह "पुराण' है।"कथा" का मतलब होता है कि "क" माने सुख या परमात्मा के सान्निध्य में निवास के सुख की अनुभूति "था" माने स्थापित करा दे वह "कथा" है।
तात्पर्य जो जगत् मे रहने पर परमात्मा की अनुभूति की स्थपना करा दे या परमात्मा के तत्व का ज्ञान कराकर परमात्मा से सम्बन्ध जोड़ दे एवं शरीर त्यागने पर उन परमात्मा के दिव्य सान्निध्य में पहुँचाकर परमात्मा की सायुज्य मुक्ति यानी प्रभु के श्रीचरणों में विलय करा दे उसे “कथा' कहते हैं। इसके साथ-साथ
श्रीमदभागवत कथा का अर्थ है कि जो श्री वैष्णव भक्ति का उद्गम ग्रन्थ हो उसे श्रीमदभागवत कहते हैं।
जैसे- श्रीमद् भागवत -
श्री वैष्णव भक्ति का उद्गम ग्रंथ है। स्वयं श्री भगवान् के मुख से प्रकट ग्रंथ है। पंचम वेद है। वेदों एवं उपनिषदों का सार है। भगवत् रस सिन्धु है। ज्ञान वैराग्य और भक्ति का घर या प्रसूति है। भगवत् तत्त्व को प्रभासित करने वाला अलौकिक प्रकाशपुंज है। मृत्यु को भी मंगलमय बनाने वाला है। विशुद्ध प्रेमशास्त्र है। मानवजीवन को भागवत बनाने वाला है। व्यक्ति को व्यक्ति एवं समाज को सभ्यता संस्कृति-संस्कार देने वाला है।आध्यात्मिक रस वितरण का प्याऊ है। परम सत्य की अनुभूति कराने वाला है। काल या मृत्यु के भय से मुक्त करने वाला है। शास्त्र के समस्त धर्म एवं साधनों के फल को देने वाला है। भगवान् के भक्त के अवतार सहित विभिन्न चरित्रों का भण्डार एवं इतिहास है।
नर को नारायण यानी मनुष्य को भगवत् पद प्राप्त कराने के लिए उत्तम सोपानहै। भगवान् के जो हो जायें वे भागवत हैं। भगवान् के भक्त की कथा का नाम भागवत है। भगवान् के उपेदश को भागवत कहते हैं। भगवान् के प्रियजनों की कथा भागवत है। यह श्रीमद् भागवत कथा भगवान् का वाङ्मयस्वरूप है अथवा यह श्रीमद् भागवत भगवान की प्रत्यक्ष मूर्ति है।
यानी- प्रथम तथा द्वितीय स्कन्ध प्रभु के चरण हैं। तृतीय तथा चतुर्थ स्कन्ध प्रभु के जंघा हैं। पंचम स्कन्ध नाभि है, षष्ठ स्कन्ध वक्षः स्थल है, सप्तम तथा अष्टम स्कन्ध दोनों भुजायें है। नवम स्कन्ध कण्ठ है, दशम स्कन्ध मुख है, एकादश स्कन्ध ललाट है तथा द्वादश स्कन्ध प्रभु का मस्तक है।
संपूर्ण भागवत सप्ताहिक कथा
अतः यह श्रीमदभागवत "विद्यावतां भागवते परीक्षा -विद्वान् की पहचान या परीक्षा का भी सूचक है। इसी श्रीमद भागवत रूपी अमर कथा को सुनकर श्री महर्षि वेदव्यासजी ने शान्ति प्राप्त की थी। अर्थात श्रीव्यास जी ने श्रीमद्भागवत की रचना जब तक नहीं की थी तब तक उनका चित्त अप्रसन्न था। जिन व्यास जी को कृष्ण द्वैपायन भी कहते हैं क्योकि उन व्यास जी का जन्म यमुना के कृष्ण द्विप महुआ था तथा कृष्ण रंग के भी थे। जिनकी माता का नाम सत्यवती था।
वह सत्यवती पुत्र पराशर नन्दन । वदव्यास जी ने श्रीमदभागवत महापराण की रचना करने से पहले चारों वेदा का व्यवस्था सहित महाभारतादि की रचना कर ली थी तथा सोलर पराणों की रचना भी कर ली थी एवं अपने पिता श्री पराशर जी द्वारा रचित श्री विष्णपराण के भी स्वामित्व को भी प्राप्त कर चके थे।
फिर भी श्री व्यास जी को शान्ति नहीं थी। उस अशान्ति के दो कारण थे। पहला तो यह कि उन्हें कोई पुत्र उस समय तक नहीं था जो उनके बाद उनकी बौद्धिक विरासत को सम्भाल सके। अर्थात श्रीव्यास जी को यह चिन्ता थी कि हमारे बाद हमारी बौद्धिक विरासत को कौन सम्भालेगा? दसरा कारण यह कि मेरे द्वारा की गयी रचनाओं में कहीं न कहीं राग-द्वेष की अभिव्यक्ति हई है।
अतः मेरे द्वारा पूर्णरूप से श्री भगवान् में समर्पण की कथा की रचना एक भी नहीं है। इन्हीं दोनो कारणों से श्री व्यास जी का मन पूर्ण रूप से प्रसन्न नहीं था। इसलिए श्री व्यास जी ने श्री नारद जी के उपदेश से भगवान के निर्मल चरित्र की कथा को लिखकर "श्रीमद्भागवत महापुराण कथा' नाम रखकर शान्ति प्राप्त की। वही श्रीमद्भागवत महापुराण के माहात्म्य को हम आपके सामने निवेदन करेगें।
श्रीमद् भागवत महात्म्य कथा प्रारम्भ
अब यहाँ पर यह प्रश्न होता है कि- माहात्म्य का मतलब क्या होता है ? अर्थात् माहात्य का मतलब होता है कि इस कथा से कथा की पद्धति आदि क्या है ?, श्रीमद्भागवत सुनने की पद्धति क्या है ?, भागवत कथा के श्रवण के नियम क्या हैं ?तथा कथा क्यों सुनी जाती है तथा इसके सुनने से क्या फल होता है एवं किन-किन लोगों ने कौन-कौन और कब-कब तथा क्या-क्या फल प्राप्त किया ? उपरोक्त सभी प्रश्नों का वर्णन जहाँ और जिस ग्रन्थ में किया गया हो वह "माहात्म्य" कहा जाता है।
इस भगवत् स्वरूप भागवत के प्रधान देव तो श्रीकृष्ण ही हैं। इसलिए पद्म पुराण के उत्तर खण्ड के प्रथम् से लेकर षष्ठम् अध्याय तक इस भागवत के महात्म्य में परम मंगलमय श्री बालकृष्ण की वाड्.मयी प्रतिमूर्ति स्वरुप इस भागवत के माहात्म्य को कहने से पहले प्रभु श्री कृष्ण को प्रणाम करके वन्दना करते हुये श्री महर्षी वेदव्यासजी ने जो प्राचीन समय में मंगलाचरण के श्लोक का गान किया है उसी श्लोक का गायन करते हुये नैमीशारण्य के पावन क्षेत्र में अठास्सी हजार संतो के बीच शौनकादी ऋषियों के सामने श्री व्यासजी के शिष्य श्रीसुतजी मंगलाचरण करते हुये महात्म के प्रथम श्लोक में कहते हैं कि :
सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्त्यादिहेतवे।
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुमः।।
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुमः।।
श्रीमद्भा० मा० १/१
इस प्रकार इस भागवतजी में भागवत माहात्म्य के प्रधान देवता श्रीकृष्ण की वन्दना की गयी है तथा "सच्चिदानन्दरूपाय अर्थात् सत्+चित्+आनन्द यानी सत् का मतलब त्रिकालावधि जिसका अस्तित्व सत्य हो। चित माने प्रकाश होता है अर्थात् जो स्वयं प्रकाश वाला है और अपने प्रकाश से सबको प्रकाशित करता है।
इस प्रकार इस भागवतजी में भागवत माहात्म्य के प्रधान देवता श्रीकृष्ण की वन्दना की गयी है तथा "सच्चिदानन्दरूपाय अर्थात् सत्+चित्+आनन्द यानी सत् का मतलब त्रिकालावधि जिसका अस्तित्व सत्य हो। चित माने प्रकाश होता है अर्थात् जो स्वयं प्रकाश वाला है और अपने प्रकाश से सबको प्रकाशित करता है।
आनन्द माने आनन्द होता है अर्थात् जो स्वयं आनन्द स्वरूप होकर समस्त जगत् को आनन्द प्राप्त कराता हो इस प्रकार ऐसे कार्यों को करने वाले को सच्चिदानन्द कहते हैं। "वे सच्चिदानन्द श्रीमन-नारायण स्वरूप श्रीकृष्ण ही हैं। अर्थात् सत् भी कृष्ण हैं, चित् भी कृष्ण हैं एवं आनन्द भी श्रीकृष्ण ही हैं, तथा जिनका आदि, मध्य और अन्त तीनों ही सत्य है तथा सत्य था एवं सत्य रहेगा। ऐसे शाश्वत सनातन श्रीकृष्ण को ही सच्चिदानन्द कहते हैं। अत: “सत्" माने शाश्वत-सनातन-सत्य एवं चित् माने प्रकाश तथा आनन्द माने आनन्द।
“रूपाय माने ऐसे गुण या धर्म या रूप वाले। "विश्वोत्पत्यादिहेतवे' यानी जो विश्व की उत्पत्ति, पालन, संहार एवं मोक्ष के हेतु हैं, अथवा कारण हैं। "तापत्रयविनाशाय" यानी जो तीनों तापों जैसे- दैहिक, दैविक, भौतिक या जीवों के शरीरादि में उत्पन्न रोग, दैवप्रकोप जैसे आधि-व्याधि-ग्रहादी का प्रकोप एवं भौतिकप्रकोप यानी जीवों द्वारा जो अनेक जीवों से प्राप्त दुःख या कष्ट होता है।
संपूर्ण भागवत सप्ताहिक कथा
अथवा "तापत्रय" का मतलब तीनों लोकों के कष्ट या उन तीनों प्रकार के कष्ट को विनाश करता है। ऐसे "श्रीकृष्णाय" यानी श्रीकृष्णको। वयं नुमः अर्थात् हम सभी प्रणाम करते हैं"। अतः इस श्लोक का शाब्दिक अर्थ है कि सत्य स्वरूप एवं प्रकाशस्वरूप तथा आनन्दस्वरूप होकर जो संसार के उत्पत्ति-पालन-संहार के अलावा मोक्ष को भी देने वाले हैं तथा संसार के प्राणियों के दैहिक-दैविक-भौतिक कष्ट को दूर करते है, ऐसे श्रीकृष्ण यानी राधा कृष्ण को हम सभी प्रकार एवं सभी अंगों यानी आठों अंगों से प्रणाम करते हैं।उपरोक्त श्लोक में सत्य स्वरूप श्रीकृष्णभगवान् के मंगलाचरण करने के बाद आगे श्री सूतजी पुनः दूसरे श्लोक मे श्री शुकदेवजी के स्वरूप एवं गुण स्वभाव का वर्णन करते हुए कहे कि श्रीकृष्ण के प्यारे एवं राजा परीक्षित् को मुक्ति दिलाने वाले श्रीव्यास जी के पुत्र श्रीशुकदेवजी को वन्दना की और कहा कि -
यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव।
पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदु स्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि।।
श्रीमद्भा० मा०१/२
अर्थात “यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं ...... मुनिमानतोऽस्मि" यानी जो प्रभु की कृपा से माता के गर्भ में सोलह वर्षों तक समाधिस्थ रहकर प्रभु का ध्यान करते रहे तथा प्रभु द्वारा माया से विजय प्राप्ति का वरदान पाकर पिता की आज्ञा से अपनी माता पिंगला देवी या अरणी देवी से इस पृथ्वी पर प्रकट हुए तथा प्रकट होते या जन्म लेते ही व्यावहारिक जगत् के जनेउ संस्कार इत्यादि को बिना पूर्ण किये ही आध्यात्मिक ज्ञान स्वरूप परमात्मा को ध्यान-चिन्तन-धारणा करने का संकल्प रूपी जनेउ को धारण करते हुए सन्यासी ज्ञानियों के समान घर द्वार को त्याग कर जन्म लेते ही सोलह वर्ष के बालक जैसा प्रतीत होते हुए जंगल की यात्रा जिन्होंने तय कर दी और वह घटना देखकर श्री वेदव्यास जी ने पुत्र मोह से मोहित होकर 'बेटा बेटा' कहकर पुकारा तो उस समय मानो श्रीव्यास जी की ओर द्रवित होकर वृक्षों-पर्वतों जलाशयों इत्यादि ने भी उन व्यास लाडले को रुकने को कहा।
अर्थात “यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं ...... मुनिमानतोऽस्मि" यानी जो प्रभु की कृपा से माता के गर्भ में सोलह वर्षों तक समाधिस्थ रहकर प्रभु का ध्यान करते रहे तथा प्रभु द्वारा माया से विजय प्राप्ति का वरदान पाकर पिता की आज्ञा से अपनी माता पिंगला देवी या अरणी देवी से इस पृथ्वी पर प्रकट हुए तथा प्रकट होते या जन्म लेते ही व्यावहारिक जगत् के जनेउ संस्कार इत्यादि को बिना पूर्ण किये ही आध्यात्मिक ज्ञान स्वरूप परमात्मा को ध्यान-चिन्तन-धारणा करने का संकल्प रूपी जनेउ को धारण करते हुए सन्यासी ज्ञानियों के समान घर द्वार को त्याग कर जन्म लेते ही सोलह वर्ष के बालक जैसा प्रतीत होते हुए जंगल की यात्रा जिन्होंने तय कर दी और वह घटना देखकर श्री वेदव्यास जी ने पुत्र मोह से मोहित होकर 'बेटा बेटा' कहकर पुकारा तो उस समय मानो श्रीव्यास जी की ओर द्रवित होकर वृक्षों-पर्वतों जलाशयों इत्यादि ने भी उन व्यास लाडले को रुकने को कहा।
अथवा उन प्रकृतियों ने श्री व्यास जी को समझाकर सबके हृदय स्वरूप भगवान के भक्त उन शुकदेव की महिमा बताया। अर्थात जिनका दर्शन करने के लिए जलाशय में स्नान करती हुई देवियों ने समीप से आकर प्रणाम किया तथा श्री व्यासजी को देखकर उन्हीं देवियों ने दूर से ही प्रणाम किया।
उन देवियों की ऐसी घटना को देखकर श्री व्यासजी को क्षोभ हुआ, परन्तु उन देवियों ने कहा कि यह आपके पुत्र हम समस्त संसार के प्राणियों के हृदय हैं तब श्री व्यास जी को प्रसन्नता हई। ऐसे सभी प्राणियों के हृदय स्वरूप व्यासनन्दन भगवत् भक्त श्री शुकदेवजी को मैं प्रणाम करता है। इस प्रकार उपरोक्त दुसरे श्लोक में श्रीशुकदेवजी के स्वभाव के मंगलाचरण करने के बाद आगे माहात्म्य के तीसरे श्लोक में श्रीशौनकजी और सूतजी सहित नैमिषारण्य का वर्णन है।