sampurna bhagwat katha in hindi
[ भाग-5,part-5]
[ प्रथम स्कंध ]
वपनं द्रविणादानं स्थानान्निर्यापणं तथा ।
एष हि ब्रह्मबन्धूनां वधो नान्योऽस्ति दैहिकः ॥
(भा. 1/7/57)
ब्राह्मण का दैहिक-वध नहीं करना चाहिये। उसे विद्रूप कर दो, उसे घोर अपमानित कर दो, धक्का मारकर घर से निकाल दो - यही ब्राह्मण की मृत्यु है। शिविर से धक्का मारकर अर्जुन ने अश्वत्थामा को निकाल दिया,उसकी मणि को छीन लिया।
अपमान की ज्वाला में जलता हुआ अश्वत्थामा सोचने लगा कि मेरा भी नाम अश्वत्थाम नहीं, इनके वंश में कोई पानी देने वाला नहीं छोडूंगा। अपमानित होकर चला गया। । भगवान् अब इधर पाण्डवों से बोले, भाई! आपके बीच रहते-रहते बहुत दिन हो गये।
अब हमारे द्वारिकावासी भी हमारी बहुत राह देख रहे होंगे, तो अब हम अपने घर चलें। पर कोई भी पाण्डव प्रभु को भेजना ही नहीं चाहता, विदा करना ही नहीं चाहता। आपस में विचार किया। अन्त में निर्णय लिया, देखो भाई! आज नहीं तो कल, विदाई तो देना ही पड़ेगी।
कबतक हम इन्हें अपने पास बाँधकर रखेंगे? हमें अब स्वार्थ त्यागकर द्वारिकावासियों पर भी ध्यान देना चाहिये। जैसे-तैसे सब राजी हुए और भगवान् की विदाई की तैयारियाँ होने लगी। भगवान् को ले जाने के लिए दिव्य रथ तैयार होकर आ गया।
समस्त पाण्डव-परिकर मिलकर प्रभु को विदा देने लगे। द्वारिकाधीश की जय-जयकार बोलते हुए सब विदाई दे रहे हैं। भगवान् द्वारिका जाने के लिये अपने रथ में एक कदम रख दिये। बड़ी अपूर्व झाँकी हो रही है। एक चरण धरती पर है, एक चरण रथ पर।
एक भुजा से रथ को चढने के लिये पकड़ रखा है और दूसरी भुजा से सबको अभय-मुद्रा में आशीर्वाद दे रहे हैं। मन्द-मन्द मुस्कुराते हुए प्रभु की छटा का सभी दर्शन कर रहे थे कि अचानक ! एक अबला चीखती-पुकारती बाल विधवा दौड़ी-दौड़ी आई और चरणों में लिपट के पुकारने लगी।
अपमान की ज्वाला में जलता हुआ अश्वत्थामा सोचने लगा कि मेरा भी नाम अश्वत्थाम नहीं, इनके वंश में कोई पानी देने वाला नहीं छोडूंगा। अपमानित होकर चला गया। । भगवान् अब इधर पाण्डवों से बोले, भाई! आपके बीच रहते-रहते बहुत दिन हो गये।
अब हमारे द्वारिकावासी भी हमारी बहुत राह देख रहे होंगे, तो अब हम अपने घर चलें। पर कोई भी पाण्डव प्रभु को भेजना ही नहीं चाहता, विदा करना ही नहीं चाहता। आपस में विचार किया। अन्त में निर्णय लिया, देखो भाई! आज नहीं तो कल, विदाई तो देना ही पड़ेगी।
कबतक हम इन्हें अपने पास बाँधकर रखेंगे? हमें अब स्वार्थ त्यागकर द्वारिकावासियों पर भी ध्यान देना चाहिये। जैसे-तैसे सब राजी हुए और भगवान् की विदाई की तैयारियाँ होने लगी। भगवान् को ले जाने के लिए दिव्य रथ तैयार होकर आ गया।
समस्त पाण्डव-परिकर मिलकर प्रभु को विदा देने लगे। द्वारिकाधीश की जय-जयकार बोलते हुए सब विदाई दे रहे हैं। भगवान् द्वारिका जाने के लिये अपने रथ में एक कदम रख दिये। बड़ी अपूर्व झाँकी हो रही है। एक चरण धरती पर है, एक चरण रथ पर।
एक भुजा से रथ को चढने के लिये पकड़ रखा है और दूसरी भुजा से सबको अभय-मुद्रा में आशीर्वाद दे रहे हैं। मन्द-मन्द मुस्कुराते हुए प्रभु की छटा का सभी दर्शन कर रहे थे कि अचानक ! एक अबला चीखती-पुकारती बाल विधवा दौड़ी-दौड़ी आई और चरणों में लिपट के पुकारने लगी।
पाहि पाहि महायोगिन् देवदेव जगत्पते ।
नान्यं त्वदभयं पश्ये यत्र मृत्युः परस्परम् ॥
(भा. 1/8/9)
'पाहि माम् ... पाहि माम्' कहते हुए चरणों में उस देवी को गिरते देखा, भगवान् सावधान हो गये ! देखने वाले हैरान हो गये कि ये अचानक ! कौन आ गया? प्रभु ने ध्यान से देखा, अरे ! ये तो पाण्डवों की कुलवधू है, अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा है।अभिमन्यु तो वीरगति को प्राप्त हुए चक्रव्यूह में। परन्तु गर्भवती होने के नाते देवी उत्तरा सती न हो सकी। आज वह बेचारी विकल चरणों में पड़ी है, प्रभु सावधान होकर मुस्कुराये, अरे देवी ! क्या हुआ? गिड़गिड़ाती हुई उत्तरा हाथ जोड़कर बोली, प्रभो!
आज मुझे आपके अतिरिक्त अपना कोई भी रक्षक त्रिभुवन में दिखाई नहीं पड़ रहा। प्रभु के अतिरिक्त दूसरा कोई भी मेरा रक्षक नहीं, ऐसा दिव्यभाव मन में जागे - वही सच्चा अनन्याश्रित भक्त है। और भगवान् की तो प्रतिज्ञा है,
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यम् ॥
(गीता 9/31)
अनन्याश्रित होकर देवी उत्तरा चरणों में गिरी क्षण भर का विलम्ब किया होता? तो अनर्थ हो सकता था। भगवती द्रौपदी ने भी प्रभु को पुकारा तो था, पर कौरवसभा में कब पुकारा? जब चारों तरफ से निराशा हाथ लगी। कभी अपने पतियों को देखती है, कभी द्रोणाचार्य गुरुदेव को देखती है, कभी पितामह भीष्म को।पर सबका सिर झुक गया, चारों तरफ से निराशा-पिशाची ने घेर लिया। तब जाकर प्रभु से आशा जागी और द्रौपदी की रक्षा प्रभु ने की। पर उत्तरा देवी ने ये भूल नहीं की। पूरा परिवार खड़ा है प्रभु को विदा देने के लिये, परन्तु उत्तरा ने किसी अन्य का विश्वास नहीं किया, भरोसा नहीं किया, आश्रय नहीं लिया और सबके बीच आकर गोविन्द के पादपों को पकड़ लिया प्रभो ! रक्षा करो।
आप देख रहे हैं? ये तेजपुंज मेरी ओर बढ़ता ही चला आ रहा है और निश्चित् ही ये मुझे भस्म कर देगा। मुझे अपने प्राणों का तनिक भी मोह नहीं है, ये वैधव्य जीवन मेरे लिये तो भार ही है। परन्तु भय इस बात का है कि मेरे गर्भगत-शिशु पर कोई आँच न आ जाये। क्योंकि यदि वह समाप्त हो गया, तो आज आपके द्वारा रक्षित सम्पूर्ण कुरुवंश ही समाप्त हो जायेगा। इसलिये मैं भले ही बचूँ या मरूँ, पर मेरे गर्भ पर कोई संकट न आवे।
sampurn bhagwat katha
उत्तरा केवल अपनी रक्षा की बात करती, तो हो सकता है वह बच जाती और गर्भ नष्ट हो जाता। परन्तु गर्भ रक्षा की बात करती है कि मैं बनूँ या मरूँ, कोई चिन्ता नहीं है। तो भाई ! गर्भ की रक्षा भी तो तभी सम्भव है, जब माँ की भी रक्षा हो? इसलिये गर्भ की रक्षा की गुहार करती है, अपनी रक्षा की नहीं।
भगवान् बोले, देवी! बिल्कुल भयभीत न हो। अभयदान देकर भगवान् तुरन्त अंगूठे के बराबर नन्हा-सा रूप धारण किये और देवी उत्तरा के गर्भ में प्रविष्ट हो गये। ___उत्तरा के गर्भ में ज्यों-ही भगवान् प्रविष्ट हुए, नन्हे-से परीक्षित अभी गर्भ में विराजमान हैं।
अश्वत्थामा का भेजा हुआ ब्रह्मास्त्र जलाने के लिये अंगारा बना चला आ रहा है। परीक्षित नन्हे-से कांप रहे हैं, उस तेज से संतप्त हो रहे हैं, विलख रहे हैं, विकल हो रहे हैं। पर अचानक ! उनकी आँखों के सामने वहाँ चतुर्भुज दिव्यरूप प्रकट हुआ, भगवान् ने अपने दिव्य तेज और प्रभाव से ब्रह्मास्त्र को शान्त कर लौटा दिया। और परीक्षित की ओर अभयमुद्रा में आशीर्वाद दिया।
परीक्षित की नन्ही-सी आँखों में वह झांकी हमेशा के लिये बैठ गई। ये अचानक ! अंगारा जो आग का मुझे जला रहा था, उससे मेरी रक्षा करने वाला ये चार हाथ वाला कौन आ गया? और चित्त में जो छटा एक बार चिपक जाये, वह निकलती नहीं है।
विशेषकर बालकों की, क्योंकि बालक का चित्त एकदम विशुद्ध होता है। उसमें जो भी चित्र है, वह हमेशा के लिये अकित हो जाता है। अभी परीक्षित का तो जन्म भी नहीं हुआ, माँ के गर्भ में ही है।
संसार का दृश्य अभी देखा ही कहाँ है, गर्भ में ही ये चार हाथ वाले का दृश्य दिखाई पड़ गया। और ये भी प्रत्यक्ष देख लिया कि इसी ने मेरे प्राणों की रक्षा की। बस ! इसीलिये परीक्षित के चित्त में वह चित्र चिपक गया अंकित हो गया।
___ धन्य है उत्तरा का सौभाग्य। इस भारतभूमि में माताओं ने अपने गर्भ में भक्तों को धारण किया, ध्रुव और प्रह्लाद के रूप में। भगवान् को भी अपने उदर में धारण किया, श्रीराम और कृष्ण के रूप में। पर ऐसी भाग्यशालिनी माता कोई नहीं हुई, जिसके गर्भ में भक्त और भगवान् एक साथ विराजे होवें।
आज ये परमसौभाग्य यदि मिला तो, भगवती उत्तरादेवी को। इनके गर्भ में परमभागवत परीक्षित पहले ही विद्यमान थे और आज साक्षात् प्रभु भी पधार गये। भक्त और भगवान् का ये दिव्य-संयोग भगवती उत्तरा के गर्भ में सम्पन्न हुआ।
पुनः प्रभु प्रकट हुए मन्द-मन्द मुस्कुराकर उत्तरा को देखा और कहा, देवी! अब तो कोई कष्ट नहीं है। उत्तरा के आनन्द का पारावार नहीं रहा, चरणों में बार-बार प्रणाम करने लगी, अश्रुधारा नयनों से बहने लगी। किन शब्दों में प्रभु को धन्यवाद दिया जाये, वाणी मूक हो गई। एक शब्द भी देवी उत्तरा के मुख से निकला नहीं।
और भगवान् अभयदान देकर पुनः रथ में चढ़ने को उद्यत हुए, तो देवी कुन्ती महारानी से नहीं रहा गया, मेरे वंश की रक्षा की है। यदि ये बालक समाप्त हो गया होता, तो कुरुवंश उसके साथ ही समाप्त हो जाता। और इतना बड़ा कार्य करके प्रभु जा रहे हैं, कोई धन्यवाद भी नहीं दे रहा? ठीक है, आकाश का अंत कोई नहीं पा सकता, फिर भी पक्षी तो अपनी-अपनी सामर्थ्य से उड़ते ही हैं। गोविन्द के अनन्त गुणगणों का कोई भी गायन नहीं कर सकता, कोई भी पार नहीं पा सकता।
और उल्टे आप मुझे प्रणाम करने लगीं? कुन्ती मैया हाथ जोड़कर कहती हैं, प्रभो! ये बुआ-बुआ कहकर मेरी आँखों पर ये मोह का पर्दा न डालिये। अनेकों बार आपकी भगवत्ता को मैंने ठीक से जान लिया, समझ लिया।
पर जैसे ही आपकी भगवत्ता मेरी समझ में आने लगती है, तभी बड़े प्यार से आप बुआजी-बुआजी ! इतने प्यार से बोलते हो कि आपकी सारी भगवत्ता भुलाकर केवल भतीजा मानकर रह जाती हूँ। इसलिये निवेदन है कि थोड़ी देर मौन ही खड़े रहो और आज जो उद्गार हृदय में आ रहे हैं, उन्हें कह लेने दीजिये ! मैं आज अपने भतीजे को प्रणाम नहीं कर रही अपितु,
भगवान् बोले, देवी! बिल्कुल भयभीत न हो। अभयदान देकर भगवान् तुरन्त अंगूठे के बराबर नन्हा-सा रूप धारण किये और देवी उत्तरा के गर्भ में प्रविष्ट हो गये। ___उत्तरा के गर्भ में ज्यों-ही भगवान् प्रविष्ट हुए, नन्हे-से परीक्षित अभी गर्भ में विराजमान हैं।
अश्वत्थामा का भेजा हुआ ब्रह्मास्त्र जलाने के लिये अंगारा बना चला आ रहा है। परीक्षित नन्हे-से कांप रहे हैं, उस तेज से संतप्त हो रहे हैं, विलख रहे हैं, विकल हो रहे हैं। पर अचानक ! उनकी आँखों के सामने वहाँ चतुर्भुज दिव्यरूप प्रकट हुआ, भगवान् ने अपने दिव्य तेज और प्रभाव से ब्रह्मास्त्र को शान्त कर लौटा दिया। और परीक्षित की ओर अभयमुद्रा में आशीर्वाद दिया।
परीक्षित की नन्ही-सी आँखों में वह झांकी हमेशा के लिये बैठ गई। ये अचानक ! अंगारा जो आग का मुझे जला रहा था, उससे मेरी रक्षा करने वाला ये चार हाथ वाला कौन आ गया? और चित्त में जो छटा एक बार चिपक जाये, वह निकलती नहीं है।
विशेषकर बालकों की, क्योंकि बालक का चित्त एकदम विशुद्ध होता है। उसमें जो भी चित्र है, वह हमेशा के लिये अकित हो जाता है। अभी परीक्षित का तो जन्म भी नहीं हुआ, माँ के गर्भ में ही है।
संसार का दृश्य अभी देखा ही कहाँ है, गर्भ में ही ये चार हाथ वाले का दृश्य दिखाई पड़ गया। और ये भी प्रत्यक्ष देख लिया कि इसी ने मेरे प्राणों की रक्षा की। बस ! इसीलिये परीक्षित के चित्त में वह चित्र चिपक गया अंकित हो गया।
___ धन्य है उत्तरा का सौभाग्य। इस भारतभूमि में माताओं ने अपने गर्भ में भक्तों को धारण किया, ध्रुव और प्रह्लाद के रूप में। भगवान् को भी अपने उदर में धारण किया, श्रीराम और कृष्ण के रूप में। पर ऐसी भाग्यशालिनी माता कोई नहीं हुई, जिसके गर्भ में भक्त और भगवान् एक साथ विराजे होवें।
आज ये परमसौभाग्य यदि मिला तो, भगवती उत्तरादेवी को। इनके गर्भ में परमभागवत परीक्षित पहले ही विद्यमान थे और आज साक्षात् प्रभु भी पधार गये। भक्त और भगवान् का ये दिव्य-संयोग भगवती उत्तरा के गर्भ में सम्पन्न हुआ।
पुनः प्रभु प्रकट हुए मन्द-मन्द मुस्कुराकर उत्तरा को देखा और कहा, देवी! अब तो कोई कष्ट नहीं है। उत्तरा के आनन्द का पारावार नहीं रहा, चरणों में बार-बार प्रणाम करने लगी, अश्रुधारा नयनों से बहने लगी। किन शब्दों में प्रभु को धन्यवाद दिया जाये, वाणी मूक हो गई। एक शब्द भी देवी उत्तरा के मुख से निकला नहीं।
और भगवान् अभयदान देकर पुनः रथ में चढ़ने को उद्यत हुए, तो देवी कुन्ती महारानी से नहीं रहा गया, मेरे वंश की रक्षा की है। यदि ये बालक समाप्त हो गया होता, तो कुरुवंश उसके साथ ही समाप्त हो जाता। और इतना बड़ा कार्य करके प्रभु जा रहे हैं, कोई धन्यवाद भी नहीं दे रहा? ठीक है, आकाश का अंत कोई नहीं पा सकता, फिर भी पक्षी तो अपनी-अपनी सामर्थ्य से उड़ते ही हैं। गोविन्द के अनन्त गुणगणों का कोई भी गायन नहीं कर सकता, कोई भी पार नहीं पा सकता।
sampurn bhagwat katha
sampurna bhagwat katha in hindi
फिर भी ऋषि-मुनि अनादिकाल से उनके गुणगणों का गायन तो करते ही हैं, अपनी-अपनी सामर्थ्य से उनकी महिमा गाते हैं। कुन्ती मैया से भी नहीं रहा गया। प्रभु के चरणों में आकर प्रणाम करने लगी। भगवान् बोले, बुआ ! ये उल्टी गंगा क्यों बहा रही हो? मैं आपका भतीजा विदा ले रहा हूँ, तो प्रणाम मुझे आपको करना चाहिये।और उल्टे आप मुझे प्रणाम करने लगीं? कुन्ती मैया हाथ जोड़कर कहती हैं, प्रभो! ये बुआ-बुआ कहकर मेरी आँखों पर ये मोह का पर्दा न डालिये। अनेकों बार आपकी भगवत्ता को मैंने ठीक से जान लिया, समझ लिया।
पर जैसे ही आपकी भगवत्ता मेरी समझ में आने लगती है, तभी बड़े प्यार से आप बुआजी-बुआजी ! इतने प्यार से बोलते हो कि आपकी सारी भगवत्ता भुलाकर केवल भतीजा मानकर रह जाती हूँ। इसलिये निवेदन है कि थोड़ी देर मौन ही खड़े रहो और आज जो उद्गार हृदय में आ रहे हैं, उन्हें कह लेने दीजिये ! मैं आज अपने भतीजे को प्रणाम नहीं कर रही अपितु,
नमस्ये पुरुषं त्वाऽऽद्यमीश्वरं प्रकृतेः परम् ।
अलक्ष्यं सर्वभूतानामन्तर्बहिरवस्थितम् ॥
मायाजवनिकाच्छन्नमज्ञाधोक्षजमव्यम् ।
न लक्ष्यसे मूढदृशा नटो नाट्यधरो यथा ॥
(भा. 1/8/18-19)
इस प्रकार से बड़े प्यार से छब्बीस श्लोकों में कुन्ती महारानी ने स्तुति की। भतीजे को नमस्कार नहीं है बल्कि, त्रिगुणात्मक प्रकृति से परे उस परमपुरुष भगवान् नारायण को मैं प्रणाम कर रही हूँ। आश्चर्य की बात है कि सबके भीतर भी आप ही विराजमान हो और बाहर कण-कण में, अणु-अणु में, आपकी सत्ता विद्यमान है। पर इसके बाद भी दिखाई नहीं पड़ रहे। भीतर-बाहर सर्वत्र आपकी सत्ता है, फिर भी दृष्टिगोचर नहीं हो रहे।क्यों दिखाई नहीं पड़ रहे? क्योंकि सबकी आँखों पर माया का बूंघट जो डाल रखा है। माया का इतना बड़ा पर्दा डाल दिया कि जबतक आप माया का वह घूघट न उठायें, तबतक कोई आपको नहीं जान सकता, कोई नहीं देख सकता। हे प्रभु! आपका ये जो सुन्दर विग्रह है, ये परमहंसों को भी श्रीपरमहंस बनाने के लिए, उन परमहंसों के हृदय में भक्तियोग का विधान करने के लिये ही आपका मुख्य रूप से अवतार हुआ है।
आपके अवतार का मुख्य हेतु मैं तो यही मानती हूँ। बड़े-बड़े अमलात्मा, विमलात्मा, महात्मा, योगीन्द्र, मुनीन्द्र, संत-संन्यासी आपके इस रूप के रहस्य को नहीं जान सकते, तो 'कथं पश्येम हि स्त्रियः' मैं एक साधारण-सी स्त्री क्या समझू ? मैं तो सिर्फ इतना जानती हूँ कि मेरे भैया वसुदेव और भाभी देवकी के आठवें पुत्र हैं आप! इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं जानती हूँ।
पर हां! एक विश्वास अवश्य है प्रभु! कि जो कृपा आपने मुझ पर बरसाई, ऐसी कृपा तो मेरी भाभी देवकी को भी आपसे प्राप्त नहीं हुई। भले ही आप देवकी के पुत्र हो, पर जो मुझे मिला, वह देवकी को भी नहीं। भगवान् बोले, वह कैसे? ___ तो कुन्तीजी बोलीं, देखिये सरकार ! देवकी के आठ पुत्र हुये, आठवें हैं आप।
विवाह होते ही बेचारी को जेलखाने में जाना पड़ा, भैया ने ही बंदी बना लिया। एक-एक करके सन्तान को पकड़-पकड़कर उसके भाई कंस ने उसकी आँखों के सामने मारे। अवाक् बने सब देखते रहे। परन्तु जब मैं अपनी तरफ दृष्टि डालती हूँ, कैसी आपकी अद्भुत कृपा ! मैं अकेली पति-वंचिता विधवा, मेरे पाँच-पाँच अनाथ बच्चे।
शत्रु कोई बाहर नहीं, घर में ही घुसे बैठे हैं। समझ में नहीं आता कौन मित्र है, कौन शत्रु है? प्रतिक्षण आक्रमण, प्रतिक्षण षडयंत्र। उन षडयंत्रों के जाल में हम हर क्षण फंसे हुए थे। कितने-कितने षडयंत्र नहीं रचाये गये? पर कितनी बार आपने हमारी रक्षा की ! एक-दो बार नहीं महाराज! कहाँ तक गिनाऊँ ? कबतक गिनाऊँ ?
sampurn bhagwat katha
sampurna bhagwat katha in hindi
विषान्महाग्नेः पुरुषाददर्शनादसत्सभाया वनवासकृच्छ्रतः ।
मृधे मृधेऽनेकमहारथास्त्रतो द्रौण्यस्त्रतश्चास्म हरेऽभिरक्षिताः ॥
(भा. 1/8/24)
मेरे पुत्र भीम को मारने के लिए जहर के लड्डू खिलाये थे, परन्तु जब मुझे वापिस मिला मेरा बेटा दस हजार हाथियों का बल प्राप्त करके लौटा। जो विष मारक था, वह तारक बन गया, बलप्रदाता बन गया।
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई।
गोपद सिंधु अनल सितलाई॥
(रामचरितमानस 5/5/1)
जिसके ऊपर गोविन्द की कृपा हो, उसके लिए विष भी अमृत तुल्य हो जाता है, शत्रु भी उसका मित्र बन जाता है, अग्नि उसके लिए शीतल हो जाती है। भयंकर विशाल सागर उसके लिए गोखुर (गोपद) के समान हो जाता है।
मैंने प्रत्यक्ष देखा प्रभ! कि जो विष मारने के लिये खिलाया था, वह शक्तिप्रदाता बन गया। लाक्षाभवन की आग से कौन बचाने वाला था? पर आपकी कृपा से कुछ भी तो नहीं बिगड़ पाया।
उन ज्वालाओं को हमने अपनी आँखों से देखा, पर आपकी कृपा से बच गये। हिडिम्बासुर, जटासुर जैसे भयंकर असुरों से वन में हमने बहुत कष्ट भोगे, पर सबसे आप बचा ले गये। अरे! ये संकट तो जीवन में यदा-कदा आते थे। पर जब महाभारत युद्ध छिड़ गया, तब तो मेरे पाँचों बालकों के चारों ओर काल-ही-काल था। जिन पितामह भीष्म ने बच्चों को अंगुली पकड़कर चलाना सिखाया, वह शत्रु बने सामने खड़े थे।
जिन द्रोणाचार्यजी ने धनुष पर बाण चढ़ाना सिखाया, वह स्वयं शत्रुदल में खड़े थे। स्वप्न में भी कोई कल्पना कर सकता था कि मेरे बच्चों को इस इच्छा मृत्यु के वरदान धारण करने वाले भीष्म से कोई बचा पायेगा? अनेक महारथी, कल्पना नहीं थी कि कैसे बचेंगे। पर वाह प्रभु ! आपकी कृपा! एक को भी आंच नहीं आने दी। पाँचों के पाँच सुरक्षित हैं। भगवान् बोले- बुआ ! ये तो आपकी भावना है!
इस सबका सब श्रेय तुम मुझे क्यों दे रही हो? क्या तुम्हें नहीं मालूम महाभारत में मैंने तो अस्त्र भी नहीं उठाया, मैंने क्या किया? अरे ! तुम्हारे पुत्र इतने पराक्रमी इतने पुरुषार्थी हैं कि बड़े-बड़े संकट इनसे स्वयं टकराकर लौट जाते हैं। पर तुम सबका श्रेय मुझे दे रही हो? कुन्ती महारानी कहती हैं, प्रभो! आप करते हुए भले ही न दिखाई पड़ो, पर करते सब आप ही हो।
और भगवान् ने अर्जुन से भी संकेत किया कि तुझे सिर्फ निमित्त बनना है, मार तो सब मैंने दिये हैं। इस कुरुक्षेत्र में कर्म तो तुम्हीं को करना पड़ेगा, बाकि करने-कराने वाला तो सब मैं ही हूँ। क्या होना है? क्या होगा? वह मुझे मालूम है। करूँगा मैं, पर करते हुए तुम दीखोगे क्योंकि कर्म तुम्हीं को करना है। सुग्रीव से भगवान् ने स्पष्ट कहा-
सुनि सुग्रीव मैं मारिहुं बालिहि एकहि बाण।
एक ही बाण से मैं बाली को मारूँगा, पर फिर कहते हैं, सुग्रीव जाओ लड़ने के लिये। सुग्रीव ने पूछा, अरे! जब आपको मारना है, तो मुझे क्यों पिटवाने को भेज रहे हो? भगवान् बोले, नहीं ! लड़ना तो तुम्हें ही पड़ेगा, तुम लड़ो; पर मारूँगा मैं। इसलिये जीव को कर्म तो अपनी पूरी निष्ठा के साथ करना चाहिये। परन्तु होगा क्या? वह परमात्मा ही करने वाला है। इसी प्रकार महाभारत के युद्ध में अर्जुन से ही युद्ध करवाया। परन्तु करने-कराने वाले तो प्रभु ही हैं।कुन्ती मैया उसका अनुभव कर रही हैं, प्रभो! सब प्रकार से आपने मेरे बच्चों को बचाया है। एक बार नहीं! अनेक बार। परन्तु न तो लड़ते दिखाई पड़ते हैं, न हाथ में अस्त्र लिये दिखाई पड़ते हैं। अरे! अभी-अभी द्रोणाचार्यजी के पुत्र अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से मेरे वंशधर को कौन बचा सकता था?
द्रौण्यस्त्रतश्चास्म हरेऽभिरक्षिताः।
sampurn bhagwat katha
sampurna bhagwat katha in hindi